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    Home»Top Story»पुलिस और खुफिया तंत्र की नाकामी में एक और चैप्टर जुड़ा
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    पुलिस और खुफिया तंत्र की नाकामी में एक और चैप्टर जुड़ा

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskJanuary 23, 2020No Comments12 Mins Read
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    आधुनिक संसाधनों से लैस झारखंड की पुलिस भरोसेमंद नहीं है। यह पुलिस क्राइम कंट्रोल को छोड़ कर सब कुछ करती है। यह वही पुलिस है, जिस पर फर्जी मुठभेड़ के कई आरोप हैं। हद तो यह कि फर्जी मुठभेड़ को जायज ठहराने में पुलिस के आला अफसर भी एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। नक्सलियों और अपराधियों के खिलाफ मुहिम में यह पुलिस फेल हो जाती है, लेकिन कोयला तस्करों, बिल्डरों या स्क्रैप के धंधेबाजों की सरपरस्ती में यह सबसे आगे है। रीयल इस्टेट के कारोबार में इस पुलिस के अफसरों को महारत हासिल है। इनके कारनामों के कारण फजीहत सरकार की होती है। पुलिस तंत्र के आधुनिकीकरण, पुलिसकर्मियों के लिए बेहतर हथियार खरीदने और खुफिया तंत्र को मजबूत करने के संसाधन जुटाने में अरबों रुपये खर्च किये गये, लेकिन क्राइम कंट्रोल के मामले में चाईबासा में सामूहिक नरसंहार की घटना से पुलिस की नाकामी में एक और चैप्टर जुड़ गया है। झारखंड पुलिस के कामकाज का पोस्टमार्टम करती आजाद सिपाही के राज्य समन्वय संपादक अजय शर्मा की रिपोर्ट।

    चाईबासा जिला के गुदड़ी में हुई नरसंहार की घटना ने झारखंड की पुलिस और पूरे खुफिया तंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया है। सवाल उठ रहा है कि जिस पुलिस और खुफिया तंत्र पर अरबों का खर्च है, वह इस कदर नाकाम और बेखबर क्यों है! यह कोई अचानक आवेश में अंजाम दी गयी वारदात नहीं है। इसकी परिस्थितियां पहले से निर्मित हो रही थीं, लेकिन पुलिस तंत्र बेखबर रहा। चाईबासा की घटना के बाद बुधवार को पूरे पुलिस मुख्यालय में इस कदर तेजी दिख रही थी जैसे एक घंटे के अंदर अफसर सब कुछ ठीक कर देंगे। हकीकत में पूरा तंत्र सुस्त नहीं रहता तो यह घटना रोकी जा सकती थी। पुलिस के अफसरों को पता है कि ऐसी घटनाओं की चर्चा एक-दो दिन होती है, इसलिए घटना के बाद तो तेजी दिखायी जाती है, लेकिन जैसे ही मामला थोड़ा ठंडा पड़ता है, पुलिस भी जैसे रजाई ओढ़ कर निश्चिंत हो जाती है।

    इससे बड़ी विफलता और क्या होगी?
    झारखंड पुलिस के लिए इससे बड़ी विफलता नहीं हो सकती। हद तो तब हो गयी, जब मंगलवार की शाम तक पुलिस के अधिकारी घटना होने की बात तो कबूलते रहे, लेकिन कितने लोगों की हत्या हुई, नरसंहार की वजह क्या है, घटना को अंजाम देने के पीछे कौन लोग हैं, ऐसे सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था। वारदात के 72 घंटे बाद भी पुलिस का घटनास्थल पर नहीं पहुंच पाना यह साबित करता है कि यह पुलिस कितनी नाकाम है और इसकी गति कितनी सुस्त है। पत्थलगड़ी को लेकर विवाद की भनक पुलिस को थी, लेकिन एहतियाती कदम नहीं उठाये गये। अगर मान लिया जाये कि पुलिस को पहले से इसकी कोई जानकारी नहीं थी, तो यह भी एक बड़ी नाकामी है।

    72 घंटे में 13 किमी की दूरी तय की पुलिस ने
    घटनास्थल चाईबासा के चक्रधरपुर अनुमंडल अंतर्गत गुदड़ी थाना क्षेत्र के बुरुगुलीकेला गांव में है। 16 जनवरी से ही इलाके में पत्थलगड़ी समर्थकों और विरोधियों के बीच तनाव की स्थिति थी। उस दिन दोनों पक्षों में मारपीट भी हुई थी। मोटरसाइकिल पर सवार होकर नौ लड़के गांव में आये थे और कई घरों में उन्होंने तोड़फोड़ की थी। इसकी भनक महज 13 किमी के फासले पर स्थित थाना और सीआरपीएफ कैंप को भी नहीं लगी। अंतत: रविवार के दिन घटना ने विकराल रूप धारण कर लिया। रविवार को ग्रामीणों के साथ पत्थलगड़ी समर्थकों की बैठक हुई और विरोध करनेवालों को पत्थलगड़ी समर्थकों ने अगवा कर लिया। उन्हें लेकर जंगल चले गये। पुलिस तीन दिन बाद बुधवार को गांव में तब पहुंची, जब सात लोग मौत के घाट उतारे जा चुके थे। पुलिस का रोल अब सिर्फ इतना है कि वह शवों का पंचनामा और पोस्टमार्टम करा रही है। अगर सूचना मिल गयी थी तो पुलिस को वक्त रहते पहुंचना चाहिए था। ऐसा हो पाता तो सात जानें बचायी जा सकती थीं। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य का खुफिया तंत्र पूरी तरह से फेल है।

    एसएस फंड में मिले हैं “200 करोड़
    झारखंड इकलौता ऐसा राज्य है, जहां सर्विस सीक्रेट फंड में अब तक 200 करोड़ से अधिक की राशि खर्च कर दी गयी। राज्य बनने के बाद करीब आठ वर्षों का दौर ऐसा था, जब झारखंड को इस फंड में अति आतंकवादग्रस्त कश्मीर से भी ज्यादा रकम मिली। कश्मीर अब आतंकवाद से करीब-करीब मुक्ति की ओर है, जबकि झारखंड अब भी कराह रहा है। यहां इस फंड का दुरुपयोग इस कदर किया गया कि इसकी जांच भी करानी पड़ गयी थी। पुलिस ने इस फंड का उपयोग कर कौन सी खुफिया सूचनाएं हासिल कीं, यह कोई बताने की स्थिति में नहीं है। इस फंड की राशि मुखबिरों पर खर्च की जाती है। मुखबिरों की सूचना पर कार्रवाई होती है। यहां कुछ नहीं हुआ। इस राशि का उपयोग तो व्यक्तिगत हित साधने के लिए किया गया। पूर्व मुख्य सचिव अशोक कुमार सिंह की जांच रिपोर्ट में इसकी पुष्टि हो चुकी है। जांच में यह बात सामने आयी थी कि पुलिस अधिकारियों ने अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी और रेखा तक मुखबिर बताकर राशि खर्च कर दी थी। ये चौंकाने वाले तथ्य जांच में सामने आये थे। तब झारखंड पुलिस को प्रतिवर्ष इस फंड में 15 करोड़ रुपये उपलब्ध कराये जाते थे। करीब आठ वर्षों तक लगातार इतनी राशि पुलिस को दी गयी। इसके बाद यह रकम घटाकर 10 करोड़ कर दी गयी। इतनी राशि भी बाद के आठ वर्षों तक लगातार मिलती रही। अब प्रतिवर्ष पांच से छह करोड़ मिलते हैं। राज्य बनने के बाद लगभग 200 करोड़ रुपये मुखबिरी के तंत्र को मजबूत बनाने के नाम पर फूंके गये। विशेष शाखा में जो भी अधिकारी बने, उन्होंने मनमर्जी से यह राशि खर्च की। पुलिस अब यह कहने की स्थिति में नहीं है कि कौन मुखबिर है। अधिकारियों ने अपने मुखबिर तैयार किये थे।

    खुफिया तंत्र में 1800 जवान और अफसर
    राज्य खुफिया तंत्र में 1800 जवान और अधिकारी काम करते हैं। विशेष शाखा के हेड एडीजीपी होते हैं। सरकार सबसे भरोसेमंद अधिकारी को इस पद पर तैनात करती है। एडीजीपी का काम सूचना एकत्र कर सरकार को अवगत कराना होता है। अब तो इस विभाग के जिम्मे विरोधियों की सूचना ही सरकार को उपलब्ध कराना रह गया है। हर जिले में एक डीएसपी खुफिया तंत्र का इंचार्ज होता है। उसके अधीन थाना स्तर पर दारोगा, इंस्पेक्टर और जवान तैनात रहते हंै। इतनी बड़ी फौज मूल काम से हट कर दूसरे धंधे में व्यस्त है। विशेष शाखा मुख्यालय में एडीजीपी के अलावा कम से कम तीन डीआइजी, दो आइजी, सात एसपी और 28 डीएसपी तैनात हैं।

    कभी हेलीकॉप्टर खरीद लिया था पुलिस ने
    वर्ष 2003-04 में उग्रवादग्रस्त होने के कारण नक्सलियों के खिलाफ आभियान चलाने के नाम पर झारखंड पुलिस ने एक हेलीकॉप्टर भी खरीद लिया था। इसे उड़ाने के लिए पायलट भी रखे गये। यह अलग बात है कि झारखंड सरकार अब तक अपना हेलीकॉप्टर नहीं खरीद सकी है। झारखंड पुलिस इस हेलीकॉप्टर का उपयोग नक्सल अभियान में तो नहीं कर सकी, लेकिन बैठकों के लिए दूसरे जिलों में जाने के लिए अधिकारी इसका उपयोग जरूर करते रहे। पुलिस मुख्यालय अब नाइट लैंडिंग हेलीकॉप्टर खरीदने पर विचार कर रहा है।

    कोयला तस्करी कराने और जमीन कारोबार में अव्वल
    झारखंड की पुलिस कोयला तस्करी कराने और जमीन के कारोबार में फर्स्ट है। पूरे राज्य में अगर एक ट्रक कोयला भी कहीं बाहर भेजा गया, तो वह बगैर पुलिस की सहमति के नहीं भेजा जा सकता। यह वही पुलिस है, जो नक्सली और अपराधियों को नहीं पकड़ पाती। लेकिन कोयला तस्करों और बिल्डरों की पूरी सूची पॉकेट में लेकर घूमती है। सब धंधेबाजों के नाम मुंह पर हैं। टेरर फंडिंग में भी इस तंत्र ने कम बड़ी भूमिका नहीं निभायी। जमकर उगाही की गयी। हालांकि अब तक जांच कर रही एजेंसी ने एक सिपाही तक से पूछताछ नहीं की। आरोप लग रहे हैं कि हर बार की तरह इस बार भी पुलिस के लोग बेदाग निकल जायेंगे। अब कोयला के अलावा बालू और अफीम के धंधे में भी पुलिस के नाम जुड़ रहे हैं। अब तो झारखंड पुुलिस के बारे में यह सच स्थापित हो गया है कि किसी को अगर जमीन पर कब्जा करना हो, तो झारखंड पुलिस के अफसरों से मिल लें, वे तुरंत इसकी पूरी रूपरेखा तय कर देंगे। इसके लिए मोटी रकम का भुगतान करना होगा। यही वजह है कि पुलिस हस्तक्षेप के कारण जमीन विवाद के मामले बढ़े और इससे जुड़ी हत्याएं भी।

    एसआरइ में अरबों खर्च

    झारखंड के 18 जिले घोर नक्सलग्रस्त है। पूरे देश में 36 जिलों को पिछड़ा माना गया है। इनमें 18 झारखंड के हैं। नक्सलग्रस्त होने से न सिर्फ भारी रकम पुलिस को मिलती है। साथ ही विकास के नाम पर बड़ा बजट मिलता है। एसआरए (सिक्योरिटी रिलेटेड एक्सपेंडिचर) के तौर पर चिह्नित जिलों में यह व्यवस्था है कि पुलिस प्रशासन की ओर से जो खर्च किया जाता है, उसकी पूरी भरपाई केंद्र सरकार करती है। इसमें बच्चों को पाठ्यपुस्तक देने से लेकर सड़क-बिजली-पानी तक की खर्च भी शामिल हैं। अधिकारियों ने इस फंड का भरपूर उपयोग किया है। ग्रामीणों के बीच सस्ती कीमत वाली धोती- साड़ी का वितरण किया गया और मोटी रकम का खर्च दिखा दिया गया। सच यह है कि अधिकारी चाहते नहीं है कि इस समस्या से इस राज्य को निजात मिले। अगर ऐसा हुआ तो उनकी कमाई मारी जायेगी। अधिकांश जिलों में एसआरए फंड से भाड़े की गाड़ी रखी गयी है। अधिकारी अपने चहेतों की गाड़ी भाड़े पर रख लेते हैं। गाड़ी के परिचालन के बगैर पूरी राशि का भुगतान कर दिया जाता है।

    80 कंपनी सीआरपीएफ भी
    झारखंड में अभी 80 कंपनी सीआरपीएफ भी तैनात है। इसके रहने-खाने का खर्च भी सरकार उठाती है। प्रतिनियुक्ति भत्ता अलग से दिया जाता है। यह भी एक तरह से बोझ हो गया है। सीआरपीएफ भी झाखंड में कुछ खास नहीं कर सकी। इसके कार्रवाई पर भी सवाल खड़े हुए हैं।

    इसी पुलिस ने जीतन मरांडी को फांसी की सजा दिलायी
    गिरिडीह के पीरटांड का रहनेवाला जीतन मरांडी अभी जिंदा है। हम इसका जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि इसके जरिए झारखंड पुलिस के अनुसंधान के तौर तरीकों को बता सकें। जीतन मरांडी का कसूर सिर्फ इतना है कि उसके नाम का एक बड़ा नक्सली भी है। गिरिडीह के चिलकारी नरसंहार को अंजाम देने में नक्सली कमांडर जीतन मरांडी के दस्ते का हाथ था। पुलिस उस नक्सली कमांडर को तो नहीं पकड़ पायी, उसके बगले रांची के फिरायालाल चौक के पास से तत्कालीन सिटी एसपी ने जीतन मरांडी नामक एक दूसरे व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया था कि यह नरसंहार का मास्टर माइंड है। उसे जेल भेज दिया गया और क्रमवार पुलिस के अधिकारी टीआइ परेड में उसकी पहचान तक करने लगे। उसे हाइकोर्ट ने फांसी की सजा दे दी थी। जीतन मरांडी का परिवार पुलिस अधिकारियों के समक्ष गिड़गिड़ाता रहा, लेकिन कोई सुननेवाला नहीं था। यह तो महज संयोग है कि असली नक्सली जीतन मरांडी दुमका में गिरफ्तार कर लिया गया था। उस समय वहां के एसपी हेमंत टोप्पो थे और थाना प्रभारी शैलेश प्रसाद सिन्हा, जो अभी डोरंडा थाना प्रभारी हैं। असली जीतन की गिरफ्तारी के बाद ही नकली जीतन की जान बच पायी, नहीं तो अब भी वह जेल में होता। इसी तरह रांची के चुटिया के तीन युवक एक छात्रा की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराये गये थे। 20 वर्षीय युवती का अधजला शव बुंडू से मिला था। पुलिस ने हत्या के आरोप तीन छात्रों को जेल भेज दिया था। बाद में जिसकी हत्या के आरोप में उन्हें जेल भेजा गया था, वह बरियातू के पास से जीवित मिल गयी थी।

    आधुनिकीकरण पर 1600 करोड़ खर्च
    झारखंड पुलिस के आधुुनिकीकरण पर अब तक 1600 करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। इस राशि से उग्रवादग्रस्त 18 जिलों के लिए आधुनिक वाहन, बेहतर हथियार, वायरलेस सेट की खरीदारी की गयी। बुलेटप्रूफ वाहन, एंटी लैंडमाइंस वाहन भी बड़ी संख्या में खरीदे गये। आधुनिकीकरण मद में किसी वर्ष 80 करोड़, तो किसी वर्ष 120 करोड़ रुपये मिले। राज्य बनने के बाद से अब तक 1600 करोड़ से अधिक की राशि खर्च की गयी। कोई ऐसा साल नहीं है, जब पुलिस महकमे में गाड़ियां नहीं खरीदी गयीं। कभी एंबेसडर, कभी स्कॉर्पियो, कभी जीप तो कभी इनोवा जैसे लग्जरी वाहन भी खरीदे गये। इसी तरह झारखंड पुलिस को वैसे हथियार उपलब्ध कराये गये, जो सिर्फ सेना के लिए थे। इनमें इंसास राइफल और एके 56 भी शामिल हैं। इनका समुचित उपयोग भी पुलिस नहीं कर सकी। पुलिस के ये हथियार उग्रवादी लूटते रहे। राज्य के 500 थानों में से 320 थानों को अपना भवन दिया गया। इसके बाद भी थानों पर हमले होते रहे। हर वर्ष आधुनिकीकरण के नाम पर मिलनेवाले पैसे खर्च कर दिये जाते हैं, लेकिन पुलिस आज भी थानों में एफआइआर लिखने के लिए कागज तक नहीं हैं। पुलिस की स्थिति आज भी लचर है।

    नक्सली 360, अपराधी 42 और पुलिस सवा लाख
    झारखंड में लिस्टेड नक्सलियों की संख्या 360 है। बड़े अपराधी 42 हैं। इनपर अंकुश के लिए करीब सवा लाख जवान तैनात हैं। इसमें 109 आइपीएस, 413 डीएसपी, 13 जिलों में सीआरपीएफ-बीएसएफ के अधिकारी अभियान के एएसपी के पद पर, जैप की दस बटालियन में करीब 12 हजार जवान, आइआरबी के आठ बटालियन में करीब नौ हजार जवान, सीआरपीएफ के 80 बटालियन में करीब 80 हजार जवान और झारखंड पुलिस के 90 से 95 हजार जवान, 6600 दारोगा भी शामिल हैं। सीआरपीएफ को छोड़ दें, तो झारखंड पुलिस के सवा लाख जवान और अधिकारी मुट्ठी भर नक्सलियों और अपराधियों से निबट नहीं पा रहे हैं।

    Another chapter joined in the failure of police and intelligence system
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