अलिफ
सितारे : नीलिमा अजीम, दानिश हुसैन, भावना पाणी, पवन तिवारी, सौद मंसूरी, गौरी शंकर, ईशान कौरव,
निर्देशक-लेखक : जैगम इमाम
निर्माता : पवन तिवारी, जैगम इमाम
संगीत : अमन पंत
रेटिंग: 2 स्टार
एक सूत्रधार के रूप में जया बच्चन की आवाज इस फिल्म के प्रति उत्सुकता पैदा करती है। टाइटल के साथ पाश्र्व में गूंजती ये बात-‘जीने के लिए लड़ना नहीं, पढ़ना जरूरी है…’ निर्देशक जैगम इमाम की ये फिल्म एक बारह साल के बच्चे अली (सौद मंसूरी) की कहानी कहती है। अली अब तक मदरसे में पढ़ रहा था। हालात उसे अंग्रेजी स्कूल पहुंचा देते हैं। इसके अलावा और भी बहुत सी बातें हैं, जो जैगम ने इस फिल्म के जरिए उठाई हैं।
अली के अलावा ये कहानी उसके पिता और उसकी फुफीजान की दुश्वारियों से भी रू-ब-रू कराती है, जिसमें मदरसे के हाफिज की एक प्रेम कहानी का भी चित्रण है।
ये कहानी शुरू होती है वाराणसी के एक मुस्लिम मौहल्ले से। इलाके में हकीम रजा (दानिश हुसैन) की एक दुकान है। उनका बेटा अली और उसका दोस्त शकील (ईशान कौरव) साथ-साथ पास के एक मदरसे में जाते हैं। एक दिन रजा को पाकिस्तान से एक खत आता है। पता चलता है कि उनकी बहन जहरा (नीलिमा अजीम) भारत आ रही है। बंटवारे के वक्त वह किसी वजह से पाकिस्तान चली गई थी, जिसे वापस लाने में रजा नाकाम रहे हैं। उन्हें बहन के आने की खुशी और गम दोनों हैं। जहरा के आने से घर में रौनक आ जाती है। धीरे-धीरे रजा भी जहरा को अपनी परेशानियां समझा पाते हैं। एक दिन जहरा रजा से कहती है कि वह अली को मदरसे से निकलवा कर अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाए। जहरा का मानना है कि अली को डॉक्टर बनाना चाहिए, जिसके लिए अंग्रेजी स्कूल जाना जरूरी है।
रजा के लिए ये मुश्किल काम है, लेकिन किसी तरह से वह अली का दाखिला एक अंग्रेजी स्कूल में करा देते हैं। पहले ही दिन से अली के लिए स्कूल परेशानियों का सबब बनने लगता है। शकील तो चाहता ही नहीं था कि अली मदरसा छोड़ स्कूल जाए। ऐसे में मदरसे के नए हाफिस बने जमाल (आदित्य ओम) ने भी रजा को मना किया कि वह अली को स्कूल के बजाए वापस मदरसे में भेजे। उधर, स्कूल में अली के टीचर उससे परेशान हैं, क्योंकि उसे अंग्रेजी का एक लफ्ज भी नहीं आता। उसे तो बस उर्दु आती है। एक टीचर तो मानो उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाता है। आए दिन अली के स्कूल से उसकी शिकायतें घर आने लगती हैं।
देखते ही देखते अली और उसके पिता पर कई सारी आफतें आ पड़ती है। इस बीच जहरा का वीजा भी खत्म होने लगता है। अब जहरा को वापस जाना है। रजा किसी तरह से जुगाड़ कर जहरा को यहीं रोकने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये बात जमाल को पता चल जाती है। वह रजा को धमकी देता है कि अगर उन्होंने अली को मदरसे फिर से नहीं भेजा तो वह पुलिस को जहरा के यहां रुकने की सारी बातें बता देगा। इन्हीं बातों के चलते जमाल, अली की आपा शम्मी से होने वाली सगाई भी तोड़ देता है और अली का स्कूल जाना रुक जाता है।
निर्देशक ने इस फिल्म को काफी रियलिस्टिक ढंग से बनाया है। फिल्म की धीमी गति इसके किरदारों के अंर्तद्वंद और विभिन्न झंझावातों को सजोए रखने में मदद करती है। रंग-रूप और माहौल भी विश्वस्नीय लगता है। चाहे वो रिक्शा से घर आते रजा-जहरा के सीन हों या फिर अली का घर और वहां की संकरी गालियां। रीयल लोकेशंस में भी कुछ फिल्मकार अपने ढंग का बनावटीपन उकेर डालते हैं। जैगम ने इससे परहेज किया है और ये बात मेकिंग के लिहाज से काफी हद तक उनके पक्ष में भी जाती है। लेकिन फिल्म में कई विषयों के रूप में उठाई गई बातें पुख्ता ढंग से सामने नहीं आ पाती, जिसकी वजह है इसकी पटकथा।
एक विचार के रूप में और एक कहानी के रूप में इस फिल्म का कथानक आकर्षित करता है और कई जगह चौंकाता भी है, लेकिन कई जगहों पर पटकथा में भारी खामियों के कारण यह निराश भी करता है। अपनी परेशानियों और मजबूरियों की वजह से रजा का किरदार बांधता है, लेकिन जहरा का किरदार तमाम संभावनाओं के बावजूद सही ढंग से पनप नहीं पाता। इसी तरह से जमाल का किरदार भी सही ढंग से अस्तित्व में नहीं आ पाता। उसके शायर और हाफिज बनने के कवायद और शम्मी संग उसका प्रेम-प्रसंग वास्तविकता से दूर नजर आता है। एक और बात ये कि जैगम ने फिल्म में कई जगह पर धर्म की बात की है, जो कई सीन्स में उकसाने का काम करती है। इससे बचा जा सकता था, क्योंकि यहां बात शिक्षा और उसकी जरूरत की हो रही है।
कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रशंसा पा चुकी ये फिल्म केवल अपने विचार की वजह से ध्यान खींचती है। इसके शिल्प पर और ध्यान दिया जाता तो शायद ये पुख्ता ढंग से अपनी बात रख पाती।