पार्टी की पुरानी कार्यशैली को बदलने का मिला है साफ संदेश ’अब नये अवतार में दिखेगी देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने राजस्थान में अपनी सरकार पर आये संकट को टालने में फिलहाल सफलता हासिल कर ली है, लेकिन राजस्थान के रेगिस्तान ने पार्टी को सियासत का नया फलसफा भी पढ़ा दिया है। 135 साल पुरानी इस पार्टी ने राजस्थान संकट को हल करते हुए अपनी पुरानी कार्यशैली को पूरी तरह बदल कर रख दिया है और इसके साथ ही यह संदेश भी दे दिया है कि यह उसका नया अवतार है, जिसमें पुराने और नये नेताओं का दमदार मिक्स है। कांग्रेस ने यदि अशोक गहलोत की कुर्सी को बचा लिया है, तो उसने सचिन पायलट जैसे युवा नेता की प्रतिष्ठा को भी आंच नहीं आने दी है। इतना ही नहीं, सचिन पायलट के खिलाफ की गयी कार्रवाई को भी पार्टी ने वापस नहीं लिया है। इसका मतलब यही निकलता है कि कांग्रेस अब एक पार्टी के तौर पर अंतर्द्वंद्व से निकलने के लिए पूरी तरह तैयार हो गयी है। लगातार दो आम चुनावों में बुरी तरह पराजय झेलने के बाद कांग्रेस आत्ममंथन और संकट के जिस दौर से गुजर रही थी, राजस्थान के घटनाक्रम में साफ कर दिया है कि पार्टी उससे बाहर निकलने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है। कांग्रेस का यह नया अवतार कितना कारगर साबित होगा और आनेवाले चुनावों में इसका क्या असर होगा, इसकी पड़ताल करती आजाद सिपाही ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
सोमवार 10 अगस्त की शाम जब सचिन पायलट कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से मिलने के बाद बाहर निकले और राजस्थान के सियासी संकट पर विराम की घोषणा की, तो उनके चेहरे पर कई रंग आ-जा रहे थे। लेकिन महीने भर तक अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चाबंदी करनेवाले सचिन पायलट के बारे में जयपुर में कांग्रेसियों की ओर से कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया सामने नहीं आ रही थी। यहां तक कि सचिन को ‘निकम्मा’ और ‘पीठ में छुरा घोंपने’ जैसे विशेषणों से सुशोभित करनेवाले अशोक गहलोत भी मौन साधे रहे। लगातार दो आम चुनावों में करारी हार झेलने से पस्त समझी जानेवाली भारत की इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी में हाल के दिनों में यह पहला अवसर था, जब पार्टी का कोई भी नेता इस मुद्दे पर टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं था। आम तौर पर देखा जाता था कि पार्टी के भीतर के किसी भी घटनाक्रम पर कांग्रेस के दिग्गज प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहते थे। आश्चर्य तो तब हुआ, जब टीवी चैनलों पर भी कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने पार्टी महासचिव केसी वेणुगोपाल द्वारा जारी आधिकारिक बयान से इतर कोई भी टिप्पणी देने से इनकार कर दिया।
यह कांग्रेस और इस पार्टी से जुड़े नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए पूरी तरह अप्रत्याशित था। इतना ही नहीं, दूसरी पार्टियों और देश की सियासत की नब्ज पहचानने वाले मीडियाकर्मी भी अचरज में थे कि आखिर कांग्रेस का रवैया बदल कैसे गया। दरअसल यही बदलाव का सबक कांग्रेस ने राजस्थान के घटनाक्रम से सीखा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने सचिन पायलट से बातचीत से पहले पार्टी नेताओं को सख्त ताकीद कर दिया था कि कोई भी इस बातचीत के परिणाम पर टिप्पणी नहीं करेगा। इन दोनों ने अशोक गहलोत तक को साफ कर दिया था कि यदि इस बार पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन किसी ने भी किया, तो उससे कड़ाई से निबटा जायेगा। इसलिए सचिन पायलट के साथ समझौते का रास्ता निकलने से असहज हुए गहलोत और केंद्र में उनके समर्थन में खड़े कांग्रेसियों को मौन साधना पड़ा।
राजस्थान से दूसरा सबक कांग्रेस ने यह सीखा है कि किसी भी मसले पर शीर्ष स्तर का प्रयास तभी शुरू किया जाना चाहिए, जब नीचे के स्तरों की कोशिश विफल हो जाये। राजस्थान संकट जब शुरू हुआ था, तब राहुल और प्रियंका ने सचिन से बातचीत की हड़बड़ी नहीं दिखायी, बल्कि रणदीप सुरजेवाला और अजय माकन सरीखे नेताओं को जयपुर भेजा। पार्टी के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे भी जयपुर में ही रहे। इधर कांग्रेस आलाकमान सचिन पायलट से बातचीत के संभावित परिणामों पर मंथन करता रहा। जब उसे लगा कि अब उसके हस्तक्षेप की जरूरत है, तब उसने सचिन को बातचीत के लिए समय दिया। कांग्रेस ने एक दिन पहले शशि थरूर जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी यह संदेश दे दिया है कि पार्टी के दिशाहीन होने की उनकी बात सही नहीं है, क्योंकि पार्टी की कार्यशैली बदलने लगी है।
राजस्थान के घटनाक्रम की आहट चार दिन पहले उसी समय मिल गयी थी, जब झारखंड के लिए पार्टी के सह प्रभारी उमंग सिंघार को उनके गिरिडीह दौरे के बीच से वापस बुला लिया गया था और वह रात में ही दिल्ली चले गये थे। कांग्रेस आलाकमान ने सह प्रभारी के झारखंड दौरे पर आपत्ति की थी। इसलिए सिंघार बिना कुछ बोले रांची से चले गये थे।
राजस्थान के माध्यम से कांग्रेस ने बदलाव का जो रास्ता चुना है, उसका दूरगामी परिणाम निकलना निश्चित है। इस पूरे घटनाक्रम ने देश भर के कांग्रेसियों को यह संदेश दे दिया है कि अब उनको पुराना ढर्रा छोड़ना ही होगा। बिहार में इसी साल चुनाव होना है और कांग्रेस ने वहां पाला बदलने की तैयारी करनेवाले नेताओं को यह संदेश दे दिया है कि पार्टी का रंग-रूप बदलने लगा है, संगठन अब बदलाव के लिए तैयार है। यह बदलाव शीर्ष स्तर से शुरू नहीं होगा, बल्कि इसे निचले स्तर से शुरू किया जायेगा। कांग्रेस के पुराने नेताओं का कहना है कि पार्टी आलाकमान अब उसी आक्रामक शैली अपनाने पर विचार कर रहा है, जिसके कारण उसे चुनाव में पराजित होना पड़ा। कर्नाटक और मध्यप्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद पार्टी आलाकमान ने बदलाव का जो रास्ता चुना है, वह असरदार होगा।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस बदलाव के इस रास्ते पर कितनी तेजी से कितना फासला तय कर पाती है। युवा नेताओं को तरजीह देने का हश्र पार्टी 2014 और 2019 के चुनावों में देख चुकी है। इसलिए अब उसके सामने अनुभव और जोश का मिक्सचर तैयार करने का विकल्प बचा है। इसमें वह कितना कामयाब हो पाती है, इस सवाल का जवाब तो भविष्य ही दे सकता है।