झारखंड में पिछले कई सालों से निजी स्कूलों की मनमानी और विद्यार्थियों-अभिभावकों के साथ उनके व्यवहार की हकीकत की कहानियां सामने आती रही हैं। सरकार की तरफ से बार-बार उन्हें इस बाबत चेतावनी भी दी जाती रही है। इसके बावजूद राज्य के शिक्षा मंत्री के घर की बच्ची के साथ डीपीएस चास ने जो सलूक किया, वह इस बात का प्रमाण है कि इन निजी स्कूलों को न तो सरकार का कोई डर है और न ही नियम-कायदे की कोई चिंता। बरसों पहले दक्षिण भारत में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की लॉबी का इसी तरह का दबदबा था, जहां वे किसी की बात नहीं सुनते थे। झारखंड के निजी स्कूलों को राज्य सरकार ने कहा था कि वे लॉकडाउन की अवधि में फीस नहीं देने के कारण किसी बच्चे का नाम नहीं काटेंगे, लेकिन डीपीएस चास ने तो शिक्षा मंत्री के घर की बच्ची का ही नाम काट दिया। इतना ही नहीं, खुद शिक्षा मंत्री ने स्कूल प्रबंधन से अगले कुछ दिन में पूरी फीस जमा करने का आश्वासन दिया, लेकिन इसका भी कोई असर प्रबंधन पर नहीं हुआ। यह झारखंड के निजी स्कूलों की हकीकत है, जिससे राज्य सरकार के मंत्री रू-ब-रू हुए हैं। इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि जो स्कूल किसी राज्य के शिक्षा मंत्री के साथ ऐसा बर्ताव कर सकता है, उसके लिए एक आम अभिभावक और बच्चे का रवैया क्या होगा, यह आसानी से कल्पना की जा सकती है। राज्य के निजी स्कूलों के मनमाने रवैये और बच्चों-अभिभावकों के साथ उनके व्यवहार पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
रविवार को झारखंड के लगभग हर अखबार की सुर्खियों में शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो द्वारा डीपीएस चास में अपनी नतिनी की फीस का भुगतान करने की खबर थी। यह खबर आम लोगों के दुख-दर्द की कहानी थी, क्योंकि इससे निजी स्कूलोें की हकीकत का पता चलता है। जो स्कूल राज्य के शिक्षा मंत्री के घर की बच्ची का नाम काट सकता है, उसके दबदबे और रुतबे का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। चूंकि यह शिक्षा मंत्री से जुड़ा मामला था, इसलिए यह घटना मीडिया में आ गयी, वरना सैकड़ों आम अभिभावकों को हर दिन इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ता है। स्कूल चलाने के नाम पर राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल करते ये निजी स्कूल वास्तव में दुकानों में तब्दील हो गये हैं।
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार झारखंड में करीब साढ़े तीन हजार निजी स्कूल हैं। इनमें गली-मुहल्लों में स्थापित स्कूल शामिल नहीं हैं। इन निजी स्कूलों में चार लाख के करीब बच्चे पढ़ते हैं। इन बच्चों के अभिभावकों के साथ निजी स्कूलों का रवैया बेहद घटिया और मनमाना होता है। झारखंड में अक्सर निजी स्कूलों के मनमाने रवैये के बारे में खबरें आती रहती हैं, लेकिन इन पर लगाम लगाने की हिम्मत कोई नहीं करता। सरकार के निर्देशों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन निजी स्कूलों में होता है। यहां तक कि अदालतों के आदेश और संविधान के प्रावधावन भी इन निजी स्कूलों के गेट पर पहुंचते ही दम तोड़ देते हैं। राज्य सरकार ने लॉकडाउन अवधि का फीस नहीं देने के कारण किसी भी बच्चे का नाम नहीं काटने का आदेश दिया हुआ है, लेकिन डीपीएस चास के प्रबंधन ने शिक्षा मंत्री के घर की बच्ची का ही नाम काट दिया। इससे आसानी से समझा जा सकता है कि निजी स्कूलों की लॉबी की पहुंच कितनी गहरी है। इस लॉबी का दबदबा इतना है कि यह राज्य के शिक्षा मंत्री तक के आग्रह को कूड़ेदान में डाल सकता है।
सवाल यह है कि इस लॉबी को इतनी ताकत कहां से मिलती है। निजी स्कूलों को पता चल गया है कि सरकार की स्कूली शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह बदहाल हो चुकी है। लोगों के सामने बच्चों को पढ़ाने के लिए निजी स्कूलों के अलावा कोई विकल्प नहीं है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का जो स्तर है, उससे बच्चों का भविष्य संवारा नहीं जा सकता है। इसलिए निजी स्कूल मनमानी पर उतर आये हैं। उन्हें किसी का डर नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसलिए ये स्कूल धीरे-धीरे दुकान में तब्दील हो गये हैं, जहां किताब-कॉपी से लेकर बच्चों के टिफिन तक खुले बाजार से अधिक दामों पर खुलेआम बेचे जाते हैं और सरकार की व्यवस्था चुप्पी साधे रहती है। निजी स्कूल प्रबंधन हर साल सैकड़ों बच्चों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करते हैं, अपने शिक्षकों और कर्मचारियों के श्रम अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, लेकिन उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता, क्योंकि उन्हें पता है कि लोगों की कमजोर नस उनके हाथ में है। अदालती आदेशों और न्यायाधिकरण के निर्देश उनके लिए रद्दी के समान होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी लॉबी की ताकत पर भरोसा होता है।
तो क्या यह मनमानी ऐसे ही चलती रहेगी। इस सवाल का जवाब दिल्ली के सरकारी स्कूलों की व्यवस्था से मिल सकता है। इस मनमानी पर तभी अंकुश लग सकता है, जब इसके समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी जाये। दिल्ली के सरकारी स्कूल आज हर मायने में निजी स्कूलों से बेहतर हैं। इसलिए वहां निजी स्कूलों की मनमानी नहीं चलती है, बल्कि वे खुशी-खुशी सरकारी नियम-कानूनों का पालन करते हैं। बच्चों के एडमिशन से लेकर दूसरे सभी नियम-कायदे निजी स्कूलों में लागू होते हैं। झारखंड में भी ऐसा हो सकता है, लेकिन उसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की जरूरत होगी। झारखंड में कई ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों के नामांकन के लिए लाइन लगती है। वहां के शिक्षकों की प्रतिबद्धता और कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी को नजीर बना कर उसे पूरे राज्य में लागू किया जाये, तो सरकारी शिक्षा व्यवस्था भी निजी स्कूलों की व्यवस्था के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकती है।
निश्चित रूप से यह बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है, लेकिन यदि झारखंड को निजी स्कूलों के इस दुष्चक्र से बाहर निकाल दिया जाता है, तो राज्य के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और कुछ नहीं हो सकती है। झारखंड के लोग निजी स्कूलों की चक्की में बुरी तरह पिस रहे हैं। उन्हें मन मसोस कर ऐसा करना पड़ रहा है, क्योंकि किसी सरकार ने अब तक उनकी पीड़ा पर ध्यान नहीं दिया। अब, जबकि शिक्षा मंत्री को ही निजी स्कूलों की मनमानी का सामना करना पड़ा है, यह उम्मीद तो जरूर बंधी है कि स्थिति में बदलाव होगा।