स्वास्थ्य सेवा के मामलों में झारखंड अचानक पिछड़ता जा रहा है। इस राज्य को सरकार ने वर्ष 2022 तक मेडिकल हब बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया था। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग कई परियोजना पर एक साथ कम कर रही है। लेकिन फाइलों की गति और वास्तविकता के धरातल में उपलब्धियों का आंकड़ा कुछ और ही कहानी कह रहा है।
हाल के दिनों में झारखंड में स्वास्थ्य सेवा से संबंधित कई किस्म की विसंगतियां सामने आयीं है। कई शवों को कंधे पर ढोने की मजबूरी भी यहां की स्वास्थ्य सेवा के बिगड़े स्वास्थ्य का ही हाल बयां करती है। इसी तरह भूख से होने वाली मौतें भी राज्य की सेहत के बिगड़े होने का ही संकेत देती हैं। ऐसी स्थिति में अगर मेडिको सिटी परियोजना पर काम प्रारंभ नहीं हो पाता है जो यह माना जा सकता है कि मेडिकल हब बनाने का राज्य सरकार का दावा समय पर कतई पूरा नहीं होने वाला है।
करीब सवा नौ सौ करोड़ की इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए अब तक निजी कंपनियों ने कोई उत्साह नहीं दिखाया है। आज के गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में इस किस्म की अरुचि के बारे में सरकार को गंभीर रुप से आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि आखिर वे कौन से कारण हैं कि यहां आकर स्थिति का जायजा लेने के बाद बाहर की कंपनियां झारखंड में पूंजी निवेश से पीछे हट जाती है।
राज्य के महत्वाकांक्षी मोमेंटम झारखंड का वास्तविक हाल भी अब हम देख रहे हैं। इस पूंजी निवेश उत्सव में समझौता पर हस्ताक्षर करने वाली कई कंपनियों ने अपने हाथ पीछे खींच लिये और उनलोगों ने अन्य राज्यों में अपना काम प्रारंभ कर दिया। राज्य के स्वास्थ्य सचिव सुधीर त्रिपाठी इटकी स्थित टीवी सैनेटोरियम में मेडिको सिटी बनाना चाहते हैं।
यह उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना है।
इस परियोजना पर स्वास्थ्य विभाग अब भी काम कर रहा है लेकिन अब तक विभाग के इस परियोजना में
किसी भी निजी कम्पनी ने रुचि नहीं दिखाई है। जो टेंडर निकाला गया था उसमें चार कम्पनियों ने भाग लिया
था, लेकिन परियोजना में हिस्सेदारी को लेकर किसी भी कम्पनी के साथ स्वास्थ्य विभाग का अब तक कोई भी
समझौता हो पाया है। दरअसल टेंडर होने के बाद भी काम के आगे नहीं बढ़ने की वजह को तलाशना जरूरी है।
राज्य की आम जनता इस कारण को अच्छी तरह समझ रही है। हर काम में लेटलतीफी और फाइलों में निजी
लाभ के लिए अड़ंगा लगाने की प्रवृत्ति ही इसमें सबसे प्रमुख कारण है। इसका दूसरा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी की महत्वाकांक्षी जनौषधि परियोजना है। राज्य के हर प्रखंड में जेनेरिक दवाई की दुकान खोलने की इस
परियोजना पर भी स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी ही पग पग पर रोड़े अटका रहे हैं।
असली मकसद बालू से भी तेल निकालने की प्रवृत्ति भर है। हर अफसर को यह भ्रम है कि उसके हस्ताक्षर
से होने वाले हर काम में कुछ न कुछ उसका भी हिस्सा बनना ही चाहिए। निजी हित जब सरकार पर इस कदर
हावी होने लगे तो सरकारी परियोजनाओं का ऐसा ही हाल होना तो तय है। अनेक जिलों में जनौषधि परियोजना
का काम सिर्फ इसलिए लटका है क्योंकि वहां के चिकित्सा पदाधिकारियों ने इस सस्ती दवा की दुकान से कोई
निजी लाभ होता हुआ नहीं दिखता।
बड़ी कंपनियों की दवा से जो कमिशन उन्हें प्राप्त हो सकता है, उसका लाभ भी प्रधानमंत्री की अपनी परियोजना
पर अड़ंगा लगाये हुए हैं। स्वास्थ्य विभाग के उच्चाधिकारी भी अच्छी तरह इस बात को समझते हैं कि जनौषधि
परियोजना प्रधानमंत्री की अन्यतम बेहतर परियोजनाओं में से एक है। बावजूद इसके कोई इसकी गाड़ी को आगे
बढ़ाने में सक्षम नहीं हो रहा है।
नतीजा है कि गांव देहात के मरीजों और उनके परिजनों को अब भी सस्ती दवा उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
राज्य को इस सच को भी स्वीकारना होगा कि व्यवस्था के अंदर व्याप्त खामियों को दूर किये बिना हम बेहतर
स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य कतई हासिल नहीं कर सकते। और इस लक्ष्य को हासिल किये बिना हम राष्ट्रीय
स्तर पर बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने में अपने राज्य को आगे भी नहीं ले जा सकते।
हमें पड़ोसी राज्य उड़ीसा की स्थिति और कार्यसंस्कृति पर ध्यान देना चाहिए। पिछले दस वर्षों में उड़ीसा ने
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय सुधार किया है, उससे उसकी ख्याति अब तो दक्षिण भारतीय राज्यों
तक में फैल गयी है। इन दक्षिण भारतीय राज्यों की निजी और सरकारी स्वास्थ्य सेवा पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय
ख्यातिप्राप्त हैं।
इसलिए झारखंड को अपने अंदर की खामियों को दूर करने के लिए कुर्सी पर बैठे लोगों के निजी हित को त्यागने
की दिशा में कार्रवाई करनी चाहिए। इस सोच को बदले बिना फाइलों को गति तेज नहीं होगी।
फाइलों की गति और कार्य संस्कृति में सुधार नहीं होने पर निजी निवेशक अपना पैसा लगाने झारखंड कभी नहीं
आयेंगे और हर बार मोमेंटम झारखंड की तरह के आयोजन विफल साबित होते रहेंगे।