कुनबा खड़ा करना जितना चुनौतीपूर्ण होता है, उससे ज्यादा चुनौतीपूर्ण उसे बचाना और बढ़ाना होता है। यह खासकर तब ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जब कुनबे को बचाये रखने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्ष के कुनबे में सेंधमारी कर उसकी ताकत कमजोर कर दी है। इससे एक तरह से विपक्ष की कमर ही टूट गयी है। विधानसभा चुनाव मेें विपक्ष को नख-दंत विहीन करने की जिस रणनीति पर भाजपा चल रही है, उसका सबसे मजबूत दांव पार्टी ने बुधवार को खेला और विपक्ष को शॉक्ड कर दिया। यह तो तय है कि कांग्रेस और झामुमो इस झटके के बावजूद खुद को संभालने की पूरी कोशिश करेगी और भाजपा का कड़ा मुकाबला भी करेगी, पर जिन हीरों को इन दलों ने खोया है, उसकी क्षतिपूर्ति करना इनके लिए असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर हो गया है। महामिलन समारोह के बाद झारखंड में मजबूत हुई भाजपा और कमजोर हुए विपक्ष की चुनौतियों को रेखांकित करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।
खुदा जब देता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है और जब लेता है, तब भी छप्पर फाड़ कर लेता है। इसे झारखंड की राजनीतिक परिस्थितियों का चमत्कार कहें या खुदाई करिश्मा, बुधवार को यह कहावत भाजपा के प्रदेश कार्यालय में आयोजित महामिलन समारोह में कुछ-कुछ चरितार्थ होती दिखी। इस महामिलन समारोह में भाजपा को विपक्ष के ऐसे सूरमा विधायक मिले, जो न सिर्फ अपनी शख्सियत में बेजोड़ हैं, बल्कि इसी बहाने भाजपा ने विपक्ष पर सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए उसका सूरमाओं का खजाना खाली कर दिया। विपक्ष को भाजपा के इस सर्जिकल स्ट्राइक से उबरने में बहुत वक्त लगेगा।
बुधवार को जिन पांच विधायकों ने भाजपा का दामन थामा उनमें लोहरदगा विधायक और कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत, बरही विधायक और धाकड़ कांग्रेसी नेता मनोज यादव, भवनाथपुर विधायक भानु प्रताप शाही, झामुमो के शालीन और सुशिक्षित युवा तुर्क कुणाल षाडंगी और टेकलाल महतो की विरासत संभालकर चल रहे मांडू विधायक जेपी पटेल के नाम शामिल हैं। सुखदेव भगत की बात करें, तो वे जितने कुशल वक्ता हैं उतने ही बड़े संगठनकार भी हैं। बातों को तर्क के साथ पेश करने मेें उनका कोई जवाब नहीं है। प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष रह चुकने के कारण झारखंड के कद्दावर आदिवासी नेताओं में उनकी गिनती होती है। उनके आने के बाद से भाजपा को लोहरदगा में एक कद्दावर नेता मिल गया है। वहीं बरही विधायक मनोज यादव दबंग तो हैं ही उनका कद इतना बड़ा है कि उनके सामने खड़े होने और बराबरी में बोलने में भी बहुतों को सोचना पड़ेगा। बरही में उनकी लोकप्रियता का कोई सानी नहीं है और क्षेत्र का तो बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है। यही नहीं राज्य के लगभग सभी कद्दावर नेताओं से उनकी ट्यूनिंग भी अच्छी है। कांग्रेस ने उनकी कद्र नहीं की यह तो नहीं कहा जा सकता पर ये जरूर कहा जा सकता है कि जिस कद्र के वे लायक हैं वह कांग्रेस नहीं कर सकी और भाजपा ने इस मौके को चुनाव से पहले उन्हें पार्टी में शामिल कराकर भुना लिया। इसी तरह झामुमो में तकनीक की ताकत से संपन्न और सुशिक्षित और शालीन कोई चेहरा था तो वह बहरागोड़ा विधायक कुणाल षाडंगी थे, पर उनकी अहमियत भी झामुमो नहीं समझ पाया। यह कुणाल षाडंगी की कृतज्ञता थी कि उन्होंने भाजपा में आने के बाद भी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन के योगदान को याद किया और इसे महामिलन समारोह में बखूबी अपने जज्बातों के जरिये साझा किया। इससे साफ हो जाता है कि कुणाल न सिर्फ बड़े कद के नेता हैं बल्कि उनका दिल भी बड़ा है। कुणाल को हेमंत सोरेन से कोई दिक्कत नहीं थी। उन्हें दिक्कत थी उनसे, जो पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन को घेरे रहते हैं और पार्टी को रसातल में मिलाने में लगे हुए हैं। ये झामुमो के छुटभैये हैं जो अपना बड़प्पन साबित करने की असफल कोशिश में ऐसा व्यवहार कर जाते हैं जिसके बाद कुणाल षाडंगी जैसे लोगों का पार्टी में रहना मुश्किल हो जाता है।
झामुमो को कुणाल के जाने के बाद यह समीक्षा जरूर करना चाहिए कि आखिर वे कौन लोग हैं जिनके रहने से सभ्य और सुशिक्षित नेताओं का पार्टी में रहना मुश्किल हो जाता है जबकि हेमंत सोरेन तो संयमित और विनम्र होने का कोई मौका नहीं छोड़ते। भवनाथपुर विधायक भानु प्रताप शाही जितने दबंग हैं उतना ही बेलाग बोलने के लिए भी मशहूर हैं। धुन के पक्के भानु एक बार तय करने के बाद अंजाम की परवाह नहीं करते। यही कारण है कि अपना दल खुद चलाने की उन्होने न सिर्फ सफल कोशिश की बल्कि बुधवार को अपनी गलती भी स्वीकार और कहा कि वे पॉलिटिकली मैच्योर अब हुए हैं। भानु प्रभावशाली वक्ता हैं और अब भवनाथपुर में भाजपा उनके नेतृत्व में विजयश्री का झंडा बुलंद करेगी इसमें कहीं कोई इफ बट नहीं रह गया है। कुल मिलाकर इस सीट पर पार्टी को एक ऐसा नेता मिल गया है जो बहुत आगे तक जा सकता है और उसे अवसर की जरूरत थी जो भाजपा में शामिल होने के बाद भानु को मिल गया। अब बात जेपी पटेल की करते हैं। जेपी पटेल को भी झामुमो संभाल नहीं पायी तो यह पार्टी का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। जेपी टेकलाल महतो की राजनीतिक विरासत की उपज है। उनका शारीरिक कद भले ही जरा छोटा हो पर राजनीतिक कद निर्विवाद रुप से बहुत बड़ा है और क्षेत्र में उनकी पकड़ भी जबर्दस्त है। उनके आने के बाद मांडू में भी भाजपा इस क्षेत्र से जीत हासिल करने को लेकर लगभग आश्वस्त हो सकती है। अभी तक जो कहानी कही गयी है उसमें यदि डॉ अरुण उरांव को छोड़ दिया जाये तो यह कहानी अधूरी मानी जायेगी। डॉ अरुण उरांव कांग्रेस में जिस स्थान के हकदार थे उन्हें वह नहीं मिल पाया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की निर्णायक जीत के पीछे उनका विजन, उनकी नेतृत्व क्षमता और सबसे बढ़कर पूर्ण समर्पण के साथ काम करने की उनकी योग्यता का कांग्रेस पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पायी। कद्दावर नेता होने के सभी गुणों से सुशोभित डॉ अरुण उरांव का प्रबल पक्ष यह है कि वे न सिर्फ अपने पिता बंदी उरांव की राजनीतिक विरासत से लैस हैं बल्कि एक बेहतरीन आइपीएस आॅफिसर के रूप में भी उन्होंने अपनी कार्यक्षमता का लोहा मनवाया है।
उनके भाजपा में शामिल होने से न सिर्फ भाजपा को एक कुशल रणनीतिकार मिला है बल्कि एक ऐसा राजनेता मिला है जिसकी क्षमता पर शायद ही कोई सवाल उठा पायेगा। गुणों से परिपूर्ण होने के बावजूद डॉ अरुण उरांव में विनम्रता कूट-कूट कर भरी हुई है और जमीन से जुड़े होने के कारण उनके राजनीति में उपलब्धियों का आसमान छूने की कूबत भी है।
विपक्ष को भाजपा ने जोर का झटका धीरे से दिया
बुधवार को विपक्ष के जो पांच विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं उससे विपक्ष को करारा झटका लगा है। खासकर झारखंड के प्रमुख विपक्षी दल झामुमो और गठबंधन में झामुमो की साथी कांग्रेस के लिए तो यह बड़ा सेटबैक है। झामुमो महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य भले ही यह कहे कि ये नेता स्क्रैप हैं पर सच्चाई क्या है यह जगजाहिर है। भाजपा के इस झटके से उबरने में विपक्ष को बहुत वक्त लगेगा। इनके पार्टी में शामिल होने के बाद भाजपा के लिए झारखंड में 65 प्लस का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ने का मार्ग अपेक्षाकृत सुगम हो गया है। अपने धाकड़ विधायकों को खोने के बाद कांग्रेस भी सदमे में है और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव ने बुधवार को अपने जज्बात जाहिर करते हुए कहा कि जो भाजपा में गये उन्होंने अवसरवादी राजनीति की है। वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और वोट बेचकर भाजपा में चले गये। ऐसे लोगों को जनता सबक सिखायेगी।
ऐसे लोगों का कोई सामाजिक सरोकार नहीं है। इनको केवल चुनाव लड़ना और जीतना है। डॉ रामेश्वर उरांव ने जो बयान दिया वह सिद्धांत के रुप में तो सही है पर व्यवहारिक वही था जो भाजपा में आये विपक्ष के पांच विधायकों ने किया। इन पांच विधायकों को पार्टी में शामिल कराकर भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि उसकी चुनावी रणनीति और टाइमिंग बेजोड़ है और विपक्ष के लिए यह समीक्षा का वक्त है जिससे वह समझ सके कि आखिर उसके अपने साथी उसे छोड़कर क्यों जा रहे हैं।