लोकसभा चुनाव 2019 में महागठबंधन के बहुत कारगर परिणाम न आने के कारण विधानसभा चुनाव में महागठबंधन आकार ले पायेगा, इसकी संभावना कम है। यदि महागठबंधन ने झारखंड में आकार ले लिया तो इससे निश्चित रूप से सत्तारूढ़ भाजपा के लिए परेशानियां बढ़ जायेंगी और अपना 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य हासिल करना उसके लिए मुश्किल हो जायेगा। पर भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि झारखंड में महागठबंधन की राह में जितने फूल नहीं हैं, उससे ज्यादा कांटे हैं। झारखंड में महागठबंधन के राह में रोड़ों की पड़ताल करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि उसमें चुप्पी ही मुकम्मल जवाब होती है। झारखंड में इस समय जो राजनीतिक परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें महागठबंधन को लेकर विपक्षी दलों की चुप्पी रहस्यमय होती जा रही है। इस रहस्य के खुलने का इंतजार जितना जनता को है, उतना ही सत्तारूढ़ भाजपा को। भाजपा को, इसलिए क्योंकि उसका 65 प्लस का लक्ष्य बहुत हद तक इसी महागठबंधन की सफलता या असफलता पर निर्भर कर रहा है। दरअसल बीते लोकसभा चुनाव में गठबंधन से जो उम्मीदें लगायी गयी थीं, उन उम्मीदों को पूरा करने में महागठबंधन नाकाम रहा था। महागठबंधन के बाद भी भाजपा और आजसू लोकसभा की 14 में से 12 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। वहीं कांग्रेस और झामुमो एक-एक सीट जीतकर किसी तरह इज्जत बचाने में कामयाब रहे थे। राजमहल सीट जीतने में तो झामुमो के कार्यकर्ताओं का योगदान था, पर सिंहभूम की जिस सीट से गीता कोड़ा विजयी हुर्इं, उसमें कांग्रेस का योगदान कम और कोड़ा दंपति का योगदान अधिक था।
अहं भी आडेÞ आ रहा गठबंधन के निर्माण में
झारखंड में आसन्न विधानसभा चुनावों से पहले महागठबंधन के आकार न ले पाने में जितना बीते लोकसभा चुनावों में महागठबंधन की असफलता का हाथ है उससे ज्यादा अहं की लड़ाई का भी है। हेमंत सोरेन बाबूलाल मरांडी को अपना बड़ा भाई मानते हैं और महागठबंधन का नेता कांग्रेस हेमंत सोरेन को मान चुकी है, ऐसे में बाबूलाल मरांडी के लिए हेमंत को महागठबंधन का नेता स्वीकारना असहज परिस्थितियां उत्पन्न कर रहा है। वहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव भले ही हेमंत को नेता मान लें पर सच तो यह है कि वह कांग्रेस की स्वायतता की हिमायती है और हेमंत को नेता स्वीकारते हुए बहुत सहज नहीं है। इसके अलावा सीटों पर पेंच भी महागठबंधन के झारखंड में आकार लेने में बाधक बन रहा है। झारखंड के प्रमुख विपक्षी दल झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य एक प्रेसवार्ता में कह चुÑके हैं कि पार्टी झारखंड की सभी 81 सीटों पर चुनाव लड़ने में सक्षम है और जितनी सीटें स्वेच्छा से वह छोड़ देगी उतना झामुमो का त्याग और उसकी शहादत होगी। उन्होंने यह भी कहा कि अन्य दलों को भी त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। वहीं, झामुमो भले ही 81 सीटों की प्रेशर पॉलिटिक्स कर रहा हो, पर असल में पार्टी 40 सीटों पर ही विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती है। इसी तरह कांग्रेस 25 सीटों पर किस्मत आजमाना चाहता है। वाम मोर्चा राज्य में महागठबंधन के आकार न ले पाने की स्थिति में पचास सीटों पर उम्मीदवार उतारने की बात कर रहा है।
ऐसे में राज्य में राजनीतिक परिस्थितियां महागठबंधन के लिए बहुत मुफीद नहीं हैं। असल में बीते लोकसभा चुनाव के दौरान बने महागठबंधन में वाम दलों को जिस तरह से दरकिनार किया गया उसके बाद उनके सामने एकला चलो की राह अपनाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा। वहीं झामुमो के सामने मजबूरी यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा का मुकाबला करने में वह महागठबंधन के साथ ही सहज महसूस कर रहा है। इसलिए वह महागठबंधन चाहता तो है पर अपनी शर्तों पर। पर जिस रिश्ते में शर्तें आ जाती है उसमें स्वाभाविकता स्वत: समाप्त हो जाती है। नतीजा झारखंड में गठबंधन की राह में छप्पन छुरी और बहत्तर पेंच हैं।
भाजपा चाहती है कि आकार न ले पाये महागठबंधन
झारखंड में 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा यह स्वाभाविक रूप से चाहती है कि महागठबंधन आकार न ले पाये। वजह विपक्षी दलों की एकजुटता उसका लक्ष्य मुश्किल कर सकती है और ऐसे में भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ जायेंगी। जब विपक्षी दल अलग-थलग रहेंगे तो भाजपा के लिए उनसे निपटना आसान हो जायेगा। यही वजह है कि भाजपा नहीं चाहती है कि राज्य में महागठबंधन आकार ले। पर हेमंत सोरेन जिन परिस्थितियों में खुद को खड़ा पा रहे हैं उसमें महागठबंधन की जरूरत सबसे अधिक महसूस उन्हें ही हो रही है। इसकी एक वजह तो यह है कि झामुमो के पास सभी 81 सीटों पर उतारने के लिए न तो संसाधन हैं और न उम्मीदवार। और अकेले भाजपा से भिड़ना उनके लिए अच्छा नहीं होगा यह वे अच्छी तरह जानते हैं। कांग्रेस भी यह अच्छी तरह जानती है कि यदि अकेले वह चुनाव के मैदान में उतरी तो भाजपा उसे नाकों चने चबवा सकती है। झाविमो के पास तो उम्मीदवार ही नहीं हैं और बाबूलाल मरांडी उस क्षण की दम साधे प्रतीक्षा कर रहे हैं जिस क्षण में भाजपा में टिकटों का बंटवारा हो और जिन नेताओं का टिकट कटे वे भागते हुए झाविमो में आयें और उनके सहारे वह अपनी चुनावी वैतरणी पार कर लें। बाबूलाल मरांडी यह अच्छी तरह जानते हैं कि यह परिस्थिति आने में बहुत वक्त नहीं बचा है। इसी बहाने वह अपने छह विधायकों को तोड़कर ले जानेवाली भाजपा से बदला लेने का मिशन भी पूरा कर लेंगे। झारखंड में महागठबंधन की छतरी के नीचे आनेवाले दलों में सीट शेयरिंग को लेकर दिक्कतें हैं और इसी वजह से समस्या आ रही है। झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में जेएमएम की चाहत कम से कम चालीस सीटों पर चुनाव लड़ने की है। यदि जेएमएम की यह चाहत पूरी होती है तो बाकी बची 41 सीटों पर ही अन्य दलों को संतोष करना होगा। इसमें कांग्रेस, झाविमो, राजद और वामदलों को आपस में सीटें बांटनी होगी। झारखंड में कांग्रेस 25 सीटें चाहती है। झाविमो की दावेदारी कम से कम 15 सीटों की है। ऐसे मेें राजद और वामदलों के लिए महागठबंधन में गुंजाइश अधिक नहीं बचती।
वाम दल एकला चलो का रुख अख्तियार कर चुके हैं
22 सितंबर को मासस नेता मिथिलेश सिंह की अध्यक्षता में हुई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक में वाम नेताओं ने अपना रुख साफ करते हुए कहा कि झारखंड में सत्तारूढ़ भाजपा को टक्कर देने के लिए वामदल गठबंधन के पक्ष में हैं पर यदि किसी कारणवश विपक्षी दल एकजुट नहीं हो पाया तो वे पचास सीटों पर प्रत्याशी उतारेंगे। जाहिर है सीट शेयरिंग में सम्मानजनक हिस्सेदारी न मिलने पर वाम दल एकला चलो की नीति पर चल सकते हैं। झारखंड में महागठबंधन आकार लेगा या नहीं लेगा यह तो वक्त और राजनीति की परिस्थितियां तय करेंगी पर इतना तो अभी साफ है कि झारखंड में महागठबंधन की राह में छप्पन छुरी और बहत्तर पेंच हैं।