झारखंड का खूंटी एक बार फिर चर्चा में है। दो साल पहले पत्थलगड़ी के नाम पर देशविरोधी ताकतों ने भगवान बिरसा की जन्मभूमि को अशांत कर दिया था। इस बार यही ताकतें विश्व शांति सम्मेलन के नाम पर भोले-भाले आदिवासियोें को बरगलाने-भड़काने का अभियान शुरू कर चुकी हैं। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों की मदद से ऐसे लोग बहुत तेजी से आदिवासियों के बीच पैर जमा लेते हैं। हैरत की बात यह है कि पुलिस-प्रशासन इन्हें देख कर भी अनदेखा कर रहा है। लेकिन हकीकत यह भी है कि यह अकेले विधि-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक-राजनीतिक समस्या है। इसका समाधान उस नजरिये से भी तलाशा जाना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ये देशतोड़क ताकतें खूंटी को ही अपना टारगेट क्यों चुनती हैं। इस इलाके का इतिहास बताता है कि यहां ऐसी गतिविधियां पहले कभी नहीं हुई हैं। इसी मुद्दे को रेखांकित करती आजाद सिपाही टीम की खास रिपोर्ट।
झारखंड की राजधानी रांची से सटा खूंटी का इलाका एक बार फिर सुलगने की तैयारी में है। दो साल पहले इस अपेक्षाकृत शांत इलाके में पत्थलगड़ी के नाम पर देश को तोड़नेवाली ताकतों ने सिर उठाया था और इसका परिणाम यह हुआ कि पूरा इलाका अशांति की आग में झुलसने लगा। इस बार भी ऐसा ही कुछ शुरू हुआ है, हालांकि इसका स्वरूप थोड़ा अलग है। पत्थलगड़ी के नाम पर आंदोलन चलानेवाले आदिवासियों को राज्य व्यवस्था के खिलाफ भड़काते थे, लेकिन इस बार विश्व शांति सम्मेलन के नाम पर आदिवासियों को जमा करनेवाले लोग उन्हें पूरे विश्व का मालिक बता रहे हैं और तर्क दे रहे हैं कि उन्हें किसी सरकार के आदेश के पालन की जरूरत नहीं है। ये लोग यह भी कहते सुने जा रहे हैं कि वोटर पहचान पत्र या आधार कार्ड जैसे दस्तावेज की जरूरत आदिवासियों को नहीं है।
खींच रहे हैं विभाजन की लकीर
खूंटी इलाके में पिछले दो दिन में विश्व शांति सम्मेलन के नाम पर दो आयोजन हुए। इनमें हजारों लोगों ने शिरकत की। इन सम्मेलनों में झारखंड के बाहर से लोग आये और उन्होंने आदिवासियों को खूब बरगलाया।
उन्होंने यहां तक कहा कि आदिवासियों को गैर-आदिवासियों से कोई संपर्क नहीं रखना चाहिए, क्योंकि आदिवासी मालिक हैं और गैर-आदिवासी नौकर। सामाजिक अलगाव की नींव डाल कर ये देशतोड़क ताकतें अपने बिल में छिप गयीं, लेकिन इस जहर का दुष्प्रभाव भोले-भाले आदिवासियों को भुगतना होगा। सम्मेलनों में आदिवासियों से सरकारी दस्तावेज और प्रमाण पत्र नष्ट करने और किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं लेने का आह्वान किया गया। यह एक तरह से देश को तोड़ने की बात है।
पत्थलगड़ी की परंपरा और मौजूदा स्वरूप
आदिवासी समुदाय और गांवों में विधि-विधान/संस्कार के साथ पत्थलगड़ी (बड़ा शिलालेख गाड़ने) की परंपरा पुरानी है। इनमें मौजा, सीमाना, ग्रामसभा और अधिकार की जानकारी रहती है। वंशावली, पुरखे तथा मरनी (मृत व्यक्ति) की याद संजोये रखने के लिए भी पत्थलगड़ी की जाती है। कई जगहों पर अंग्रेजों (दुश्मनों) के खिलाफ लड़कर शहीद होने वाले वीर सूपतों के सम्मान में भी पत्थलगड़ी की जाती रही है। दूसरी तरफ ग्रामसभा द्वारा पत्थलगड़ी में जिन दावों का उल्लेख किया गया था, उसे लेकर सवाल भी खूब उठे और यह साबित हो गया कि यह आंदोलन पूरी तरह देशतोड़क था।
पत्थलगड़ी में क्या हुआ था
करीब तीन साल पहले खूंटी और आसपास के इलाकों में ‘अपना शासन अपनी हुकूमत’ की बात जोर-शोर से उठायी गयी थी। कई गांवों में संविधान की पांचवीं अनुसूची का हवाला देकर पत्थलगड़ी की गयी थी। ऐसे गांवों में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गयी थी। गांव का शासन पूरी तरह ग्राम सभा के हाथों में सौंप दिया गया था। शुरुआत में प्रशासन ने इसकी गंभीरता को नहीं समझा। इसका कारण यह हुआ कि यह आंदोलन पूरी तरह देशतोड़क गतिविधि में बदल गया। इस आंदोलन के नेता आदिवासियों को व्यवस्था के खिलाफ भड़काते रहे और धीरे-धीरे यह आग फैलती गयी। हालत यहां तक पहुंच गयी कि पुलिस प्रशासन के लोगों को ग्रामीणों ने बंधक बना लिया और तत्कालीन सांसद के घर पर हमला कर पुलिसकर्मियों का अपहरण तक कर लिया गया। साल 2016 में 25 अगस्त को खूंटी के कांकी में ग्रामीणों ने पुलिस के कई आला अफसरों और जवानों को 13 घंटे तक बंधक बना लिया था। तब रांची रेंज के डीआइजी और खूंटी के उपायुक्त हस्तक्षेप करने पहुंचे थे। दरअसल इस गांव के लोगों ने एक बैरियर लगाया था, जिसे पुलिस ने तोड़ दिया था। तब जाकर प्रशासन जागा और उसकी सख्ती के कारण यह आंदोलन पूरी तरह खत्म हो गया।
खूंटी में ही क्यों होती हैं ऐसी गतिविधियां
खूंटी जंगलों-पहाड़ों और आदिवासियों के गांवों का इलाका है। यहां के लोग मेहनतकश हैं। दिन भर पसीना बहाना और शाम ढलते ही अखड़ा में गीत-संगीत ही इनका जीवन होता है। धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा ने इसी जिले में जन्म लिया और अंग्रेजों, इसाई मिशनरियों और देश को तोड़नेवाली ताकतों के खिलाफ उलगुलान किया था।
महज 25 साल की उम्र में शहीद होनेवाले बिरसा की वही जन्मभूमि आज देशतोड़क ताकतों की पनाहगाह बन चुकी है।
सामाजिक स्तर पर निपटना होगा
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि खूंटी के ग्रामीण इलाकों में आज भी सामाजिक जागरूकता का स्तर बेहद कम है। पारंपरिक सामाजिक रीतियों पर आधारित आदिवासी समाज में रूढ़िवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसे खत्म करने के लिए व्यापक अभियान चलाये जाने की जरूरत है। पत्थलगड़ी का आंदोलन हो या नक्सली समस्या, पुलिस के बल पर इन्हें नियंत्रित तो किया जा सकता है, खत्म नहीं किया जा सकता। झारखंड सरकार ने पिछले पांच साल में नक्सली समस्या को करीब-करीब खत्म कर दिया है। इसका एक कारण यह भी है कि सरकारी स्तर पर सामाजिक जागरूकता के अभियान भी चलाये गये। ठीक इसी तरह पत्थलगड़ी जैसे देशतोड़क अभियानों को पूरी तरह खत्म करने के लिए सामाजिक अभियान जरूरी हो गये हैं।
झारखंड में विधानसभा चुनाव नजदीक है। ये देशतोड़क ताकतें समझती हैं कि अभी प्रशासन का अधिक ध्यान शांतिपूर्ण चुनाव पर होगा। इसलिए उन्हें अपना जहर फैलाने में आसानी होगी। प्रशासन को इस ओर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही इलाके में सक्रिय सामाजिक-राजनीतिक संगठनों को भी इन देशतोड़क ताकतों के खिलाफ सक्रिय होना होगा।