सर्वोच्च न्यायालय ने आधार को मोबाइल से जोड़ने के केन्द्र सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर पश्चिम बंगाल की ममता सरकार को सोमवार को कड़ी फटकार लगाई। न्यायमूर्ति ए.के. सिकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की खण्डपीठ ने इस मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल को भी आड़े हाथों लिया। अदालत ने उनसे सवाल किया कि आप परिपक्व कानूनविद होते हुए भी क्या यह नहीं मानते कि कोई भी राज्य सरकार संसद से पारित किए गए कानून को कैसे चुनौती दे सकती है? ममता बनर्जी चाहें तो व्यक्तिगत तौर पर याचिका दायर कर सकती है। अदालत का यह फैसला पूर्णत: भारतीय संघीय व्यवस्था के अनुरूप ही है। कोई भी राज्य सरकार भारत की उस संगठित संघीय प्रणाली को चुनौती नहीं दे सकती जिसकी व्यवस्था संविधान में स्थापित है। हालांकि आधार की अनिवार्यता को लेकर देश में काफी सवाल खड़े किए जा रहे हैं और बहस भी जारी है। लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मुद्दा बनाकर सवाल खड़े कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे जबर्दस्ती थोपने के प्रयास अनुचित हैं। प्रत्येक व्यक्ति की नितांत निजी जानकारी सरकार को अपने कब्जे में रखने का क्या अधिकार है? ये सवाल गलत नहीं है, लेकिन इस पर सरकार का तर्क है कि आधार को सामाजिक योजनाओं से लेकर बैंक खातों व मोबाइल नंबर से इसलिए जोड़ा जा रहा है ताकि गरीब सामाजिक तबकों को दी जानी वाली आर्थिक मदद बिना किसी व्यवधान के वांछित व्यक्ति तक पहुंच सके और किसी प्रकार की गड़बड़ी समाप्त हो सके। इसके साथ ही बैंक खातों से आधार नंबर जोड़ने के पीछे भी यही कारण है कि किसी भी व्यक्ति के आर्थिक लेन-देन में पूरी पारदर्शिता बनी रहे। यहां सरकारी तर्क को भी अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। आधार के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की हुई हैं और उन पर प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में तीन जजों की खण्डपीठ सुनवाई कर रही है।
याचिकाकर्ता आधार को मोबाइल नंबरों और बैंक खातों आदि से जोड़ने की अनिवार्यता की समाप्ति चाहते हैं। अदालत की सुनवाई के बीच अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने जानकारी दी कि सरकार ने आधार की अनिवार्यता की सीमा को 31 दिसंबर 2017 से बढ़ाकर 31 मार्च 2018 कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने जब से निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया है, तब से आधार के मुद्दे पर बहस और तेज हो गई है। विडंबना यह है कि भारत जैसे देश में एक बड़ी आबादी निरक्षर और गरीब है, और वह आधार के कई तकनीकी पहलुओं को नहीं समझती। उसे यह तक पता नहीं है कि आधार कार्ड को कब और कहां से जोड़ा जाए। विचारणीय तथ्य यह है कि सरकारें जब किसी मामले में अपना फरमान जारी करती हैं, तो उन्हें धरातल की व्यावहारिक जानकारियां पता नहीं होती। सरकार आधार को पूरी तरह लागू करने के लिए किसी हड़बड़ी में जरूर है, लेकिन ऐसे में यह सवाल बना रह जाता है कि इसे लागू करने की जो दुश्वारियां हैं और उनसे जो लोग पीड़ित हो रहे हैं या होंगे,उसका जवाबदार कौन होगा? झारखण्ड में एक गरीब परिवार ने आधार कार्ड को राशन कार्ड से नहीं जोड़ा तो एक बच्ची भूख से मर गई। परिवार को राशन नहीं मिला। आधार थोपने का इससे बड़ा दुष्परिणाम और क्या होगा? बहरहाल, सरकार ने योजनाओं से आधार को जोड़ने की समय सीमा बढ़ाई है, इसे खत्म नहीं किया है। आखिर अब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के अनुरोध पर एक संविधान पीठ का गठन कर कोई अंतिम फैसला देने का फैसला लिया है। खण्डपीठ नवंबर के अंतिम दिनों में सुनवाई शुरू करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि आधार योजना के संदर्भ में ऐसे मुद्दे उठे हैं, जिनसे नागरिकों में चिंता पैदा हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संविधान पीठ की सुनवाई के बाद जो फैसला आएगा उससे आधार को लेकर पैदा हुई सारी शंकाएं समाप्त हो जाएंगी।