टीआर रामचंद्रन: तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता के निधन के बाद इस दक्षिणी राज्य की राजनीति में एक बड़ी रिक्तता आ गई है। जयललिता अन्नाद्रमुक का इकलौता चेहरा थीं। उनके नेतृत्व में पार्टी एकजुट थी। अब उनके अभाव में पार्टी किस तरह आगे बढ़ेगी, यह देखने वाली बात होगी। हालांकि अपेक्षा के मुताबिक जयललिता के कट्टर वफादार ओ. पन्न्ीरसेल्वम को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रहा। कहीं से विरोध के स्वर सुनायी नहीं दिये।
उन पर जयललिता का भरोसा सर्वविदित है। मुसीबतों ने जयललिता का ताउम्र कभी पीछा नहीं छोड़ा। विपरीत हालात ने कदम-कदम पर उनकी परीक्षा ली, लेकिन जयललिता ने सभी बाधाओं का साहसपूर्वक न सिर्फ सामना किया, बल्कि विजेता बनकर उभरीं। जब वह महज दो वर्ष की थीं तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और जिंदगी के हर इम्तिहान को पास किया। जब वह राजनीति में आयीं, तब वहां भी उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी राह रोकने की हरसंभव कोशिश की, लेकिन उन्होंने सबको मात देकर चार बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड कायम किया। वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी, जो मुश्किल से तीन हफ्ते के लिए मुख्यमंत्री पद पर काबिज हो गयीं थीं, के बाद इस दक्षिणवर्ती राज्य की मुख्यमंत्री बनने वाली दूसरी महिला थीं।
एक सवाल यह उठ रहा है कि जयललिता के जाने के बाद पार्टी में जो निर्वात पैदा हुआ है, उसे कौन भरेगा? एक नाम जो सबसे पहले आ रहा है, वह शशिकला नटराजन का है। शशिकला दशकों तक जयललिता की करीबी रही हैं और पार्टी महासचिव के रूप में अन्नाद्रमुक की बागडोर संभालने की आकांक्षी भी हैं। उनके बारे में अटकलें तो यहां तक हैं कि जयललिता उन्हें पार्टी की कमान सौंपने का मन बना रही थीं। हालांकि जो लोग इस तरह की बात कर रहे हैं उन्हें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि विभिन्न मौकों पर जयललिता और शशिकला के बीच मतभेद उभरने के बावजूद बाद में दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ी थीं, क्योंकि शशिकला द्वारा जयललिता से माफी मांग लेने के बाद दोनों के बीच कटुता खत्म हो गयी थी।
जाहिर है यदि अम्मा ने अपना मन बदल लिया था तो यह एक चमत्कार से कम नहीं था या इसके दूसरे कारण थे। इसके साथ ही इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि जयललिता बीमार पड़ने के बाद से लेकर अंतिम सांस लेने तक चेन्नई स्थित अपोलो अस्पताल में 74 दिनों तक भर्ती रहीं। इस पूरे समय में शशिकला उनके साथ बनी रहीं। यही नहीं, जब जयललिता के पार्थिव शरीर को लोगों के अंतिम दर्शनों के लिए राजाजी भवन में रखा गया, तब भी शशिकला वहां से नहीं हटीं। एक अन्य नेता थंबीदुरई के साथ अन्नाद्रमुक के महासचिव पद को लेकर उनकी प्रतियोगिता है, जो कि अभी लोकसभा के डिप्टी स्पीकर हैं। जयललिता मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ-साथ पार्टी प्रमुख की भी जिम्मेदारी संभालती रहीं। उम्मीद के मुताबिक अब मुख्यमंत्री के साथ-साथ अन्नाद्रमुक के महासचिव की जिम्मेदारी संभालने की परिपाटी खत्म करने की मांग हो सकती है, क्योंकि अब पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो एक साथ इन दोनों दायित्वों का निर्वहन कर सके। राष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो जयललिता का जाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी एक सदमे की तरह है। दरअसल उन्होंने अपने एक अच्छे दोस्त को खो दिया है।
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से दोनों में अच्छी समझबूझ थी। हालांकि औपचारिक रूप से भाजपा और अन्नाद्रमुक के बीच गठबंधन नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि अन्नाद्रमुक का कांग्रेस व द्रमुक के खिलाफ होना भाजपा के लिए अनुकूल है। जयललिता के असमय निधन से तमिलनाडु में अपने लिए मौके तलाश रही भाजपा को भी स्पष्ट रूप से झटका लगा होगा। केंद्र की राजनीति में इस समय अन्नाद्रमुक का अहम स्थान है। राज्यसभा में राजग सरकार अल्पमत में है। कई मुद्दों पर अन्नाद्रमुक की ओर से उसे समर्थन मिलता रहता है। अब जयललिता के जाने के बाद यह देखना होगा कि संसद के दोनों सदनों में अन्नाद्रमुक का क्या रुख रहता है? राज्यसभा और लोकसभा में अन्नाद्रमुक की करीब पचास सीटें हैं। इस लिहाज से उसके महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती।
भाजपा दक्षिण के राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रही है। लोकसभा में इन सभी राज्यों की सीटों की संख्या 200 से अधिक है। अभी तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक सरकार का चार साल का कार्यकाल शेष है। ऐसे में यदि पन्नीरसेल्वम जयललिता के बाद स्वयं अपनी छवि और प्रभाव गढ़ने की कोशिश करेंगे तो हो सकता है उन्हें पार्टी को एकजुट बनाये रखने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़े। अभी आलम यह है कि पार्टी में अन्नाद्रमुक के संस्थापक एमजी रामचंद्रन जैसा न तो कोई करिश्माई नेता है और न ही किसी के पास जयललिता जैसा नेतृत्व कौशल है। भाजपा को लेकर तमिलनाडु में कुछ आशंकाएं हैं, जिन्हें दूर करके ही वह दक्षिण के इस अहम राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकती है।
जहां तक द्रमुक का प्रश्न है तो उसे भी अपनी रणनीति नए सिरे से निर्धारित करनी होगी। द्रमुक का जनाधार कायम है, लेकिन वह केवल यही सोचकर आश्वस्त नहीं रह सकती कि अन्नाद्रमुक के कमजोर होने से उसे फायदा मिलेगा।