राहुल लाल: वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पानी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन हो गया है। यह संघर्ष का कारण बन सकता है। इस समय तिब्बत के विशाल जल संसाधन पर चीन का कब्जा है। भारत में बहने वाली नदियों का स्रोत वही जल संसाधन है। भारत के पूर्वोत्तर में ब्रह्मपुत्र जलशक्ति का एक बड़ा स्रोत है और पनबिजली पैदा करने और अपने शुष्क उत्तरी क्षेत्र की तरफ बहाव मोड़ने के लिए चीन की इस पर नजर है। इससे भारत की चिंता बढ़ गयी है, क्योंकि यह एक निम्न नदी तटीय देश है। इसके अलावा, पर्यावरण क्षरण और पानी की घटती मात्रा भारत के लिए चुनौती है। भारत ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल समझौते-1960 की समीक्षा की बात की तो पाकिस्तान ने धमकी दी कि वह चीन से कह कर ब्रह्मपुत्र का पानी रुकवा देगा।
इसके बाद चीन से समाचार आया कि उसने ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी शियाबुकु का पानी रोक दिया है। यहां लालहो नामक प्रोजेक्ट चल रहा है, जिस पर चीन अब तक चौहत्तर करोड़ डॉलर का निवेश कर चुका है। इतना ही नहीं, उसने लालहो प्रोजेक्ट में महज पच्चीस किमी क्षेत्र में जिएशु, जांगमू और जियाचा बांध बनाया है, जो भारतीय सीमा से महज साढ़े पांच सौ किमी की दूरी पर है। अगर पानी बाधित हुआ तो अरुणाचल प्रदेश की अपर सियांग और लोअर सुहांस्त्री परियोजना प्रभावित हो सकती है। इसके अलावा असम में भी कुछ जलविद्युत केंद्र प्रभावित हो सकते हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने भारत आने वाले थे तो चीनी सरकारी मीडिया ने संकेत दिया कि भारत-पाकिस्तान के जलयुद्ध में चीन शामिल नहीं है
और भारत के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के जल पर समझौता करना चाहता है। जलमार्ग पर नियंत्रण और किसी भी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय समझौते में पड़ने से इनकार करने वाली चीनी एकपक्षीय नीति के संदर्भ में देखा जाये तो चीन का उपरोक्त संकेत भारतीय कूटनीति के लिए जबर्दस्त सफलता हो सकता है, पर ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत-चीन शिखर वार्ता में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई। चूंकि ज्यादातर जल संसाधनों पर चीन का कब्जा है और भारत निम्न नदी तटीय देश है, इसलिए पानी पर चीन के वर्चस्व हासिल करने से भारत बहुत लाभप्रद स्थिति में रहेगा। भारत की सबसे बड़ी चिंता है कि वह किस तरह चीन के साथ वार्ता करके एक दीर्घावधि हल प्राप्त कर सकता है। चीन के किसी भी जल समझौते में प्रवेश करने से लगातार इनकार ने भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध को लेकर अहम टकराव को बल दिया है। दुनिया के कुछ शुष्क क्षेत्रों के साथ एक आर्थिक शक्तिगृह के रूप में चीन भी एक प्यासा देश है।
यह दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। वहां अप्रत्याशित रूप में प्रदूषित नदियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, ऐसे में चीन के लिए पानी बेहद महत्त्वपूर्ण संसाधन है। वहीं भारत में भी मांग के अनुरूप जल उपलब्ध नहीं है। आने वाले समय में यह समस्या और विकराल होगी। गौरतलब है कि भारत में सन 1947 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता छह हजार क्यूबिक मीटर थी, जो अब घट कर सोलह सौ क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति रह गई है।
तिब्बत का क्षेत्रफल लगभग चार लाख सत्तर हजार वर्ग किमी है और इस पर चीन ने 1950 में ही कब्जा जमा लिया था। तिब्बत का यह पठार पानी का विशाल भंडार है और उपमहाद्वीप में ज्यादातर नदियों का उद्गमस्थल भी है। विशेषज्ञों के अनुसार चीन के पास जितना पानी है, उससे चालीस हजार गुना पानी तिब्बत के पास है। ज्यादातर नदियों का उद्गम तिब्बत से होता है और इस पर चीन का एकाधिकार है। ये नदियां निम्न तटीय देशों से होकर बहती हैं। ये आने वाले वर्षों में भारत, बांग्लादेश और म्यांमा जैसे देशों की कठिनाइयां बढ़ा सकती हैं। चीन ने दुर्भाग्यवश अपने इन पड़ोसियों की चिंताओं की अवहेलना की है। भारत तिब्बत से निकलने वाली नदियों पर बहुत हद तक निर्भर है, जिनका कुल बहाव प्रतिवर्ष 627 क्यूबिक किलोमीटर है, जो भारत के कुल नदी जल संसाधन का चौंतीस प्रतिशत है। तिब्बत से निकलने वाली नदियां भारत के साथ-साथ बांग्लादेश के लिए भी अहम हैं।
हालांकि भारत और बांग्लादेश के बीच जल साझेदारी संधि है, जो बहुत हद तक पानी के मुद्दे को लेकर बनती असहमति को दूर करने की गुंजाइश बनाती है, लेकिन ऐसी ही संधि भारत और चीन के बीच नहीं है। अरुणाचल प्रदेश के संपूर्ण क्षेत्र पर अपना दावा ठोंकने के पीछे चीन की मंशा तिब्बत की तरह अरुणाचल प्रदेश में जल संसाधन के लगभग बीस करोड़ क्यूसेक पर कब्जा जमाने की है। इस दौर में भारत और चीन दोनों में विकसित होती अर्थव्यवस्था में पानी बेहद प्रमुख संसाधन है। भले चीन की तुलना में भारत के पास ज्यादा कृषि योग्य भूमि है, मगर भारत के पास जल संसाधन की बेहद कमी है और यहां प्रवाहित होने वाली ज्यादातर नदियों का उद्गम चीन का तिब्बती क्षेत्र है। चीन विश्व का सबसे ताबड़तोड़ बांध निमार्ता देश है। विश्व में सबसे ज्यादा, पचास हजार से अधिक बड़े बांध यहां हैं। चीन अंतरराष्ट्रीय नदियों पर बांध निर्माण करने का एकपक्षीय कदम उठा रहा है, जो भारत के लिए चिंता का विषय है।
चीन पहले ही ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों पर दस बांध बना चुका है और तीन बांध निमार्णाधीन हैं। इसी क्षेत्र में चीन सात और बांध बनाने पर विचार कर रहा है तथा आठ और बांध प्रस्तावित है। इसमें ह्यझंग्मुह्ण नामक 510 मेगावाट वाली विद्युत परियोजना वाले बांध का निर्माण भारत और चीन के बीच टकराहट को जन्म दे सकता है। अपने शुष्क उत्तरी क्षेत्र में जल प्रवाह के लिए ब्रह्मपुत्र से लगभग अस्तित्वहीन हो चुकी पीली नदी की तरफ मोड़ने वाली चीन की योजना भी कई आशंकाएं पैदा करती है। चीन के उत्तरी क्षेत्र में अधिकतम जनसंख्या है और पानी का संकट भी सबसे ज्यादा यहीं है। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध निर्माण से न सिर्फ भारत के लिए संघर्ष बढ़ेगा, बल्कि भारत को भी पर्यावरण की बड़ी क्षति के रूप में कीमत चुकानी पड़ेगी। भारत के लिए ब्रह्मपुत्र से पानी का निम्न प्रवाह कृषि उत्पादकता के संदर्भ में गंभीर परिणामों को जन्म देगा। इससे बाढ़ आ सकती है और पर्यावरणीय आपदाएं पैदा हो सकती हैं। इसका संयुक्त परिणाम जैव विविधता की क्षति, सिकुड़ते जंगल, जनजीवन के लिए आवास की समस्या के रूप में आ सकता है।
यह कहने की जरूरत नहीं कि इन्हीं परिणामों में से एक बड़े पैमाने पर लोगों के पलायन के रूप में भी हो सकता है। ऐसे में आवश्यक है कि भारत चीन को राजी करे कि वह ब्रह्मपुत्र पर प्रस्तावित बांध निर्माण को आगे न बढ़ाए। ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध निर्माण के मुद्दे पर सौदेबाजी की तलाश में चीन अक्साईचिन और अरुणाचल के मुद्दे पर रियायत देने के लिए भारत को मजबूर कर सकता है। दरअसल, चीन यथार्थ राजनीति पर आगे बढ़ रहा है और इस कारण वह भारत के साथ किसी भी तरह के बराबरी वाले समाधान में रुचि नहीं दिखा रहा है, क्योंकि तिब्बत में दस बड़े जल विभाजक पर चीन का कब्जा है
और इस क्षेत्र में जल संसाधनों पर इसका नियंत्रण है। इसलिए, भारत को न सिर्फ मुखर होना होगा, बांग्लादेश की चिंता को लेकर भी चीन को उसी तरह ज्यादा पारदर्शी और तार्किक तरीके से प्रभावित करना होगा। सवाल है कि क्या अब तक इसके समाधान के लिए कोई प्रयत्न हुआ है? यह सही है कि दोनों देशों ने सीमा के दोनों ओर बहने वाली नदियों को लेकर विशेषज्ञ स्तर का तंत्र बनाया है और उसके अनुपालन पर सहमति भी व्यक्त की है। साथ ही 2013 में नदियों पर आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए एक मेमोरेंडम आॅफ अंडरस्टैडिंग पर भी हस्ताक्षर किए हैं। लेकिन इस संपूर्ण मामले पर चीन का रवैया विश्वासघाती का ही रहा है। मसलन, उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की बेजिंग यात्रा के दौरान चीन ब्रह्मपुत्र के जल संबंधी आंकड़ों को साझा करने के लिए तैयार हुआ, लेकिन अंतत: ऐसा नहीं किया।
चीन बिना किसी अन्य देश के हस्तक्षेप के जल संसाधनों के एक पक्षीय इस्तेमाल के अधिकार को सुरक्षित रखता है, इसीलिए यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि चीन को बहुपक्षीय वार्ता के लिए मनाया जाए। सिर्फ बहुपक्षीय समायोजन चीन पर समझौते को स्वीकार करने का दबाव बना सकता है, जिससे इनमें शामिल सभी देशों को लाभ होगा और इससे पर्यावरण को भी नुकसान होने से बचाया जा सकेगा। चीनी राष्ट्रपति के ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत यात्रा से पूर्व चीन ने तनाव घटाने को लेकर भारत-चीन के बीच जलयुद्ध की संभावनाओं से इनकार किया था। ऐसे में बहुपक्षीय नीतियां को बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय जल संसाधन के गैर-नौवहन उपयोग कानून पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का एक मापदंड की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।
मसलन, अनुच्छेद-11 बताता है कि दोनों देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय जल संसाधनों के इस्तेमाल के संदर्भ में सूचनाओं की साझेदारी आवश्यक है। अनुच्छेद 21 और 23 प्रदूषण की रोकथाम और समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा की व्याख्या करते हैं। इस तरह यह भारत और चीन दोनों के लिए अहम है कि वे जलीय आंकड़े साझा करने के लिए संस्थागत और बहुपक्षीय स्तर पर एक अर्थपूर्ण बातचीत शुरू करें, ताकि इससे जल संसाधनों का स्थायी और परस्पर इस्तेमाल सुनिश्चित हो सके और टकराव की आशंका न्यूनतम हो सके।