विशेष
-तेजस्वी यादव और मायावती के बयान बहुत कुछ कहते हैं
-तेजस्वी कह रहे हैं, कांग्रेस उन राज्यों में कमान क्षेत्रीय दलों को सौंप दे, जहां वह कमजोर है
-मायावती के इस सवाल का भी गहरा अर्थ है कि 1975 में कांग्रेस ने क्या किया था
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि के एक मामले में सजा सुनाये हुए तीन दिन और लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने के दो दिन बीत चुके हैं, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इस प्रकरण में विपक्ष का स्टैंड अब तक साफ नहीं हो सका है। इस ‘स्टैंड’ का आशय राहुल को सजा सुनाये जाने या संसद सदस्यता से बर्खास्तगी का विरोध करना नहीं, बल्कि आगे की, खास कर 2024 के आम चुनाव की रणनीति से है। ऐसा लगता है कि राहुल प्रकरण में तमाम विपक्षी दल या तो सकते की स्थिति में हैं या फिर वे फिर अपने हिसाब से स्थिति के अनुकूल बनने का इंतजार कर रहे हैं। यहां तक कि कांग्रेस के भीतर भी शायद सन्निपात का माहौल है, क्योंकि उसके लिए यह घटना महज एक सत्याग्रह से अधिक की उम्मीद रखती है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को छोड़ कर विपक्ष के किसी भी नेता ने अब तक 2024 में विपक्षी एकता की बात नहीं कही है, जबकि तेजस्वी यादव इस मौके को अपने लिए अवसर के रूप में लेना चाहते हैं। उनका यह कहना कि कांग्रेस बड़ी पार्टी तो है, लेकिन उसे उन राज्यों में कमान क्षेत्रीय दलों के हाथ में सौंप देनी चाहिए, जहां वह कमजोर है। विपक्षी दल के साथ-साथ कांग्रेस का हर नेता राहुल को दी गयी सजा या लोकसभा से उनकी बर्खास्तगी की निंदा तो कर रहा है, लेकिन किसी के पास सशक्त प्लान नहीं है कि सत्याग्रह या प्रदर्शन के आगे क्या किया जाये। यह कितनी अजीब बात है कि विपक्षी एकता के लिए सबसे मुफीद इस अवसर को भी भुनाने में विपक्षी दल दोराहे पर नजर आ रहे हैं। मायावती का एक बयान इसकी पुष्टि कर रहा है। उन्होंने राजीव गांधी की सदस्यता समाप्त करने को गलत तो माना है, लेकिन साथ में यह भी कहा है कि कांग्रेस आत्ममंथन करे कि उसने 1975 में क्या किया था। इससे ऐसा लगता है कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी प्रकरण को अपने लिए अवसर की तरह देख रहे हैं और इसलिए ‘वेट एंड वाच’ की स्थिति में बने हुए हैं। राहुल प्रकरण की पृष्ठभूमि में विपक्षी दलों की इसी दुविधा का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
भारतीय राजनीति आज राहुल गांधी प्रकरण पर आकर ठहर गयी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 18वें आम चुनाव से ठीक पहले का यह कानूनी-सह-सियासी घटनाक्रम भारत को किस तरफ ले जायेगा, इस बारे में अभी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती, लेकिन इतना जरूर है कि इस घटनाक्रम से भाजपा को कुछ विशेष परेशानी नहीं हो रही है। कैसे, यह सवाल स्वाभाविक है और इसका जवाब भी बहुत कठिन नहीं है। भारतीय राजनीति का यह विरोधाभास है कि मजबूत राहुल गांधी भाजपा के लिए अच्छी खबर हैं और विपक्ष के लिए खराब खबर। अच्छी खबर इसलिए, क्योंकि 2024 के चुनाव के ‘मोदी बनाम राहुल’ बनने की संभावना थी और भाजपा को पूरा यकीन था कि इसका लाभ मोदी को होगा। चार हजार किलोमीटर की पदयात्रा ने राहुल का राजनीतिक कद बढ़ाया था और यह उनकी अपनी उपलब्धि है, जिसमें परिवार के नाम का कोई योगदान नहीं है। इसीलिए उन्हें मोदी के मुख्य विरोधी की तरह देखा जाने लगा और वह विपक्ष का चेहरा बनते भी दिखे, फिर चाहे विपक्षी दल उन्हें इस रूप में स्वीकार करें या न करें। इसी बीच हालात कुछ ऐसे बदले कि राहुल अब 2024 के परिदृश्य से बाहर होते दिख रहे हैं। यही हालात अब भाजपा के लिए अनुकूल होते जा रहे हैं, जबकि विपक्ष के पास एकता के लिए अब तक बहुत सशक्त प्लान दिखाई नहीं दे रहा।
इतना तय है कि विपक्ष की ओर से नेता कौन होगा, इसका फैसला अब 2024 के चुनावों के बाद ही होगा और यह स्थिति भी तब आयेगी, जब विपक्ष सरकार बनाने की स्थिति में हो, पर अभी तो ऐसा नहीं लग रहा है। लिहाजा, राहुल के सीन से बाहर होने के बाद ‘मोदी बनाम विपक्ष से कौन’, यह बहस भाजपा के कथानक को मदद करती है, न कि विपक्ष के एजेंडा को।
आज विपक्ष दो खेमों में बंटा हुआ है और उनके मतभेद इस मुद्दे के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं कि विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा। कुछ ऐसी पार्टियां हैं, जिनका अपने राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन है और वे कांग्रेस को नेतृत्व की भूमिका देने पर राजी हो सकती हैं। इनमें द्रमुक (तमिलनाडु), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झारखंड), राजद और जदयू (बिहार), एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना (महाराष्ट्र) शामिल हैं। हाल ही में त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने वाली लेफ्ट पार्टियां गैर-भाजपा गठबंधन का समर्थन करेंगी, फिर कांग्रेस उसका नेतृत्व करे या न करे। इन दलों के अलावा ऐसी पार्टियां और नेता भी हैं, जो अपनी सरकार चलाने के लिए कांग्रेस पर निर्भर नहीं हैं, जिनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (पश्चिम बंगाल), अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (दिल्ली और पंजाब), के चंद्रशेखर राव की बीआरएस (तेलंगाना) शामिल हैं। ये पार्टियां राहुल का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकती थीं, लेकिन बदले हालात में भी उनके स्टैंड साफ नहीं हो सके हैं। यहां तक कि समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी स्पष्ट कर दिया है कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी और 2024 में गांधी-नेहरू परिवार का गढ़ माने जानेवाले रायबरेली और अमेठी से भी अपने उम्मीदवार खड़े करेगी। ये वे सीटें हैं, जहां सपा ने अपने उम्मीदवार खड़े नहीं कर अतीत में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को चुनाव जीतने में मदद की है।
असल दुविधा यहीं है। राहुल के संसद के परिदृश्य से बाहर होने के बाद अब केसीआर से लेकर नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल से लेकर शरद पवार तक खुद को रेस में शामिल मान रहे हैं। हालांकि उन्होंने सामने आकर ऐसा कुछ नहीं कहा है, लेकिन राहुल गांधी की सांसदी जाने से कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति का आभास उन्हें होने लगा है। राहुल के खिलाफ हुई कार्रवाई के तीन दिन बाद तक कांग्रेस की तरफ से जो प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी, वैसी अब तक नहीं हुई है। हां, कांग्रेस ने राजनीति के इस आक्रामक दौर में सत्याग्रह का रास्ता अख्तियार किया है।
वैसे भी 23 मार्च से पहले की स्थिति पर गौर करने से पूरा परिदृश्य साफ हो जाता है। ममता बनर्जी ने गौतम अडाणी की प्रधानमंत्री मोदी से कथित करीबी की जेपीसी जांच की कांग्रेस की मांग से प्रत्यक्ष रूप से खुद को दूर रखा था। आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति, जो कि कांग्रेस की ‘बड़े भाई’ की भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं थीं, कुछ अन्य पार्टियों की तरह कांग्रेस की कीमत पर ही आगे बढ़ी थीं। ये पार्टियां जानती हैं कि कांग्रेस के पुनर्जीवन की कीमत उन्हें चुकानी पड़ सकती है। इसलिए यह सिर्फ अहंकार का मामला नहीं है। उनका मानना है कि कांग्रेस का संकट उनके अस्तित्व के लिए भी खतरा बन सकता है।
ऐसे में विपक्ष में गतिरोध टूटने का एक ही तरीका हो सकता है। वह यह कि कांग्रेस अब सीधे पहल करे और क्षेत्रीय दलों के साथ मिल कर विपक्षी एकता का मार्ग प्रशस्त करे। लेकिन ऐसा कहना आसान है, करना कठिन। यह कांग्रेस के नये जुड़े समर्थकों को हताश करने जैसा होगा, जिन्होंने भले ही अभी यह तय न किया हो कि वे किसे वोट देंगे, लेकिन राहुल को नयी उम्मीद के रूप में देख रहे थे। उनकी उम्मीद अब टूट गयी है और वे बिखरने के लिए तैयार हैं।
अभी यह सवाल अहम है कि क्या राहुल को सजा सुनाये जाने और फिर लोकसभा सदस्यता जाने के बाद कांग्रेस यह पहल करेगी। राजनीतिक मोर्चे पर अभी क्या कुछ होगा, नहीं कहा जा सकता, लेकिन क्या इससे राहुल गांधी के प्रति जनता में सहानुभूति पैदा हो सकती है, भले ही भाजपा इस मुद्दे को हवा दे रही हो। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या राहुल पीड़ित के रूप में क्षेत्रीय दलों की एकता में उत्प्रेरक का काम कर सकते हैं।
विपक्षी दल विपक्षी नेताओं के खिलाफ इडी और सीबीआइ जैसी एजेंसियों के दुरुपयोग की भर्त्सना कर रहे हैं, इसके बावजूद उनके मतभेद भी कायम हैं। हालांकि उनके भीतर से यह स्वर भी उठ रहे हैं कि जब भाजपा के दूसरे कार्यकाल में उन्हें मुकदमों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, तो फिर मोदी के तीसरे कार्यकाल में क्या होगा। क्या राहुल की दोषसिद्धि विपक्षी राजनीति में निर्णायक बिंदु बन सकती है या इसका फायदा भाजपा को होता रहेगा। इन सवालों के जवाब आनेवाले दिनों में विपक्षी दलों को ही देने होंगे। जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिलते, विपक्षी एकता की परिकल्पना चौराहे पर शोभा की वस्तु बन कर ही रहेगी।