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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»रामनवमी पर विशेष: लोकतंत्र के आधार भी हैं राम
    स्पेशल रिपोर्ट

    रामनवमी पर विशेष: लोकतंत्र के आधार भी हैं राम

    adminBy adminMarch 29, 2023Updated:April 1, 2023No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    -तुलसी ने अयोध्या में शासन के इस गुण का खूब किया है बखान
    -मानस की चौपाइयों में है प्रजा पर मर्यादा पुरुषोत्तम के विश्वास का कारण

    हाल के दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों में कुत्सित राजनीति को लेकर भगवान राम और रामचरित मानस के बारे में बहुत सारे विवाद खड़े किये गये। यह पहली बार नहीं हुआ है। भारत ही नहीं, दुनिया के तीन चौथाई हिस्से में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पहचाने जानेवाले प्रभु श्रीराम और दुनिया की लगभग हर भाषा में अनुदित हो चुके रामचरित मानस की लोकप्रियता इन विवादों से कम नहीं हुई। इन विवादों की पृष्ठभूमि में भगवान राम की शासन प्रणाली और उनके पूरे जीवन को देखने से कई ऐसी बातें सामने आती हैं, जो भगवान राम और रामचरित मानस पर उठनेवाले हर विवाद को समूल नष्ट कर देती हैं। उदाहरण के लिए, इन विवादों के दौरान कहा जाता है कि भगवान राम को लोकतंत्र में भरोसा नहीं था और रामराज में लोकतंत्र की अवधारणा कहीं नेपथ्य में नजर आती है। लेकिन हकीकत यह नहीं है। मानस की चौपाइयों में भगवान राम के शासन ही नहीं, पूरे जीवन चरित में कई बार लोकतंत्र के प्रति उनका भरोसा सामने आता है। इसलिए तुलसी का मानस भगवान राम को लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला तो मानता ही है, रामराज्य की अवधारणा के पीछे भी लोकतंत्र के प्रति उनके इसी भरोसे को मानते हैं। तुलसीदास बताते हैं कि अयोध्या में राम के जन्म से लेकर लंका विजय के बाद उनके अयोध्या के सिंहासन पर आसीन होने और सीता को त्यागने तक के पीछे उन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनका अटूट विश्वास था, जिसके बल पर उनके शासन को रामराज्य की संज्ञा दी जाती थी। रामनवमी के पवित्र अवसर पर लोकतंत्र के प्रति भगवान राम के इसी भरोसे को सामने ला रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम। भारत ही नहीं, करीब तीन चौथाई दुनिया के घर-घर में किसी न किसी रूप में विराजनेवाले इस विलक्षण व्यक्तित्व के बारे में जितना कहा और सुना गया है, उतना शायद दूसरे किसी आराध्य के बारे में नहीं कहा-सुना गया है। लेकिन यह विडंबना ही है कि भारत के इस सर्वप्रिय आराध्य और लोकभाषा में लोगों से उनका परिचय करानेवाले महाकाव्य रामचरित मानस पर हाल के दिनों में खूब विवाद भी हुए हैं। ये विवाद हालांकि तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए पैदा किये गये, लेकिन इसका एक लाभ हुआ है कि लोग अब भगवान राम के बारे में अधिक जानने के लिए उत्सुक हो रहे हैं।
    वास्तव में तुलसी का साहित्य, लोकतंत्र, लोकमंगल और आदर्श राज्य व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। उनका रामचरित मानस लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला है। उन्होंने ‘रामराज्य’ नाम की जिस वैचारिकी का सूत्रपात किया, दुनिया के लगभग हर लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य वही है। लोकतंत्र के सारे सूत्र इसी रामराज्य से निकलते हैं। तुलसी का रामराज्य समतामूलक है। रामचरित मानस में राज्य की अनीति के प्रति क्रोध है। राजतंत्र के उत्कर्ष का अस्वीकार है। जनतंत्र की नयी अवधारणाएं हैं और लोकतंत्र के चरम आदर्शों की कल्पना है। वे लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं। तुलसी ने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुनर्स्थापित नहीं किया। उनका राम 16वीं-17वीं सदी के भारत की विषमताओं को तोड़ता एक लोकतांत्रिक नायक है।
    सदियों से आदर्श राज्य व्यवस्था के लिए रामराज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है। महात्मा गांधी ने भी जिस रामराज्य की कल्पना की थी, उसमें आदर्श लोकतंत्र के सभी गुण मौजूद हैं। हालांकि लोकतंत्र की आधुनिक परिभाषा के अनुसार रामराज्य को लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है। वह मर्यादित राजतंत्र था। लेकिन वह एक ऐसा राजतंत्र था, जिसमें श्रेष्ठ लोकतंत्र और कुलीन तंत्र की सभी विशेषताओं को सम्मिलित कर लिया गया था। रामराज्य में राजा राम राज्य के कानून और समाज की मर्यादाओं का पालन करते हैं। राज्य द्वारा बनाये गये कानून और विधान केवल जनता के लिए नहीं हैं, राजा के लिए भी हैं। राम का आचरण इसका प्रमाण माना गया है। राम के अनुसार राजा का आचरण जिस प्रकार का होता है, प्रजा का आचरण भी उसी प्रकार का होता है। इसलिए अपनी प्रजा को कोई बात कहने से पहले वह स्वयं उस पर आचरण करते थे।
    गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में राम राज्य में जनता की खुशहाली पर प्रकाश डाला है। उस समय पुरवासी और जनपदवासी अत्यंत खुशहाल थे। डाकुओं और चोरों का तो राज्य में कहीं कोई ठिकाना ही नहीं था। सभी अपने-अपने कार्य से संतुष्ट थे। रामराज्य में प्रजा छल-प्रपंच से दूर रहती थी और लोग धर्म परायण थे। हर व्यक्ति की बात सुनी जाती थी। शुक्र नीति के अनुसार राजा ही काल का कारण होता है। सत और असत गुणों का प्रवर्तक राजा ही होता है। राजा ही प्रजा को धर्म में प्रतिष्ठित करता है। रामराज्य इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। वास्तव में नीति, प्रीति, परमार्थ एवं स्वार्थ के परम रहस्य को राम ही जानते थे।
    लोकतंत्रात्मक शासन में शासन की संपूर्ण गतिविधि जनसमूह की इच्छा का अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। उसमें अपने या भाई-भतीजों के स्वार्थवश शासन कभी जनसामान्य की इच्छा को नहीं ठुकरा सकता। धर्मनियंत्रित राजतंत्र में भी लोकतंत्र के ये गुण बहुत उत्कृष्ट रूप में व्यक्त होते हैं। राम ने अपनी प्रतिज्ञा में इन्हीं भावों को व्यक्त किया था। स्नेह, दया, सुख यहां तक कि अपनी हृदयेश्वरी जनक नंदिनी को भी त्यागना पड़ा, तो उन्हें संकोच नहीं हुआ। आदर्श लोकतंत्र के सभी गुण राम की राज्य व्यवस्था में दिखाई देते हैं।
    रामराज्य में समाज के कमजोर से भी कमजोर व्यक्ति की सुनवाई होती है। रामचरित मानस के अनुसार राजतंत्र होते हुए भी रघुवंशियों के राज्य काल में लोकतंत्र अक्षुण्ण था। इसलिए महाराज दशरथ को भी राम को युवराज बनाने के लिए जन स्वीकृति लेनी पड़ी थी। उस समय भी मंत्री वही होते थे, जो पौरों और जनपदों के विश्वासपात्र होते थे। राजा की सभा में सभी जातियों के मुख्य लोग सभासद होते थे। राम जाति, धर्म, देश, श्रेणी धर्म तथा कुल धर्मों को जानते और उसका पालन करते थे। भारतीय नीति एवं राजधर्म में राजा का आचरण ही आदर्श राज्य का आधार होता है।
    राजा चाहे व्यक्ति हो या दल, वह अपने व्यवहार से समाज का उन्नायक होता है। इसलिए राम ने अपने आचरण द्वारा प्रजा तथा समाज को आदर्श रूप में ढाला था। राम का वैयक्तिक जीवन भी समाज के लिए ही था। तभी तो वह लोकाराधन के लिए वैयक्तिक स्नेह, दया, सुख तथा जानकी तक को त्यागने को तैयार थे। रामराज्य में कर के रूप में उचित धन लिया जाता था। यज्ञ-याज्ञों में धन दान दिया जाता था। तुलसी के अनुसार ‘श्रुतिपालक धर्मधुरंधर’ राम ने विधान नहीं बनाया, किंतु आदर्श आचरण उपस्थित किया। तुलसी के राम ने राजधर्म का सर्वस्व यही कहा था कि प्रजा के विभिन्न वर्गों का उनकी स्थिति, क्षमता और संस्कार के अनुसार पालन-पोषण करना राजा का कर्तव्य है, परंतु विवेक के साथ। मुख द्वारा भक्षित अन्न, रस रूप से हस्त, पाद, नेत्र, श्रोत, हृदय, मन, बुद्धि आदि सबको प्रभावित करता है, परंतु सबकी योग्यता तथा आवश्यकता एक सी नहीं है। ‘हाथी को मन भर, चींटी को कण भर’ की कहावत प्रसिद्ध ही है। धर्म नियंत्रित विवेकी राजा ही विभिन्न परिस्थितियों, व्यक्तियों और श्रेणियों के साथ गुणोचित कुशलता के साथ व्यवहार कर सकता है।
    भारतीय राजा उतना शासक नहीं होता था, जितना प्रजा के हित का परामर्शदाता। प्रभु श्रीराम प्रजा को आत्मीयता की दृष्टि से उपदेश करते हैं, राजा के रुआब में नहीं। ऐसा राजा ही प्रजा के हृदय सिंहासन का अधीश्वर होता है। इसलिए राम राज्य में भौतिक आदि ताप किसी को नहीं व्यापते थे। उच्च धर्मनिष्ठा एवं ब्रह्मद्दनिष्ठा का ही परिणाम था कि किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। सभी निरोग होते थे। कोई दुखी, दरिद्र नहीं होता था। कोई मूर्ख एवं दुर्लक्षण वाला भी नहीं होता था। रामचरित मानस के अनुसार राम का मंत्रिमंडल था, जिसमें विनय, शील, कार्यकुशल, जितेंद्रिय,अस्त्र-शस्त्र कुशल, पराक्रमी मंत्री थे।
    वास्तव में तुलसी को ‘राजाराम’ प्रिय नहीं हैं। वह लगातार राम के ‘लोकनायकत्व’ को निखारते हैं। वह राम को राजा की जगह ‘लोकनायक’ बनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए वह राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं। 14 वर्ष राम सपत्नीक जनता के बीच रहते हैं। घास पर सोते हैं। पैदल चलते हैं। झोपड़ी में रहते हैं। निषाद को मित्र बनाते हैं। वनवासियों को गले लगाते हैं। कंद-मूल खाते हैं। इस अभियान में जनसामान्य, ऋषि-मुनियों और बौद्धिक वर्ग से उनके नेतृत्व को स्वीकृति मिलती है। तुलसी शासक और जनता के आपसी रिश्ते को परिभाषित करते हैं। राज्य और जनता के बीच संपर्क सेतु राम हैं। इसी आधार पर लोकतांत्रिक समाज बनता है।
    राजस्व और कर का प्रबंधन कैसा हो, यह तुलसी के लोकतंत्र का वह मूल्य है, जिस पर आज की अर्थव्यवस्था चलती है। ‘मणि माणिक महंगे किये, सहजे तृण, जल, नाज। तुलसी सोइ जानिये राम गरीब नवाजे’, अर्थात मणि, माणिक महंगा और तृण, जल, अनाज सस्ता। यही तो लोकतंत्र में ‘कर प्रबंधन’ का मूल है। तुलसी ने राजनीति पर कोई 20 दोहे लिखे हैं। इनमें अधिकांश कर प्रणाली पर हैं। कुराज से समाज को उबारने की कल्पना ही ‘रामराज्य’ है। इतना ही नहीं, ग्रामीण विकास से लेकर विदेश नीति और शासन की दूसरी व्यवस्थाओं की कल्पना जिस तरह राम के जरिये तुलसीदास अपने रामचरित मानस में करते हैं, वह इस महाकाव्य को अधिक सारगर्भित और समयानुकूल बनाता है।
    इस तरह यह साफ हो जाता है कि प्रभु श्रीराम एक राजा नहीं, बल्कि लोकतंत्र के आधार भी थे और उनका हरेक कृत्य उन्हें ‘राजा’ नहीं, ‘लोकनायक’ साबित करता है, जिसे लोकतांत्रिक मूल्यों में अटूट भरोसा है।

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