विशेष
-भाजपा के सामने दक्षिण का दुर्ग बचाने की चुनौती
-राहुल गांधी प्रकरण के नफा-नुकसान तौलेगी कांग्रेस
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा कर दी गयी है। राज्य की 224 विधानसभा सीटों के लिए 10 मई को वोट डाले जायेंगे और नतीजे 13 मई को घोषित होंगे। यह चुनाव इस साल होनेवाले विधानसभा चुनावों की शृंखला की दूसरी कड़ी है। पहली कड़ी में तीन पूर्वोत्तर राज्यों में चुनाव हुए थे, जहां भाजपा ने अपना परचम लहराया था। इस साल के विधानसभा चुनाव की अंतिम कड़ी मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में साल के अंत में होनेवाले चुनाव होंगे। फिलहाल कर्नाटक में होनेवाला चुनाव भाजपा और कांग्रेस, दोनों के लिए अग्निपरीक्षा है। एक तरफ भाजपा दक्षिण भारत के अपने इकलौते दुर्ग को बचाने की चुनौती का सामना कर रही है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और उन पर हुई कानूनी कार्रवाई के नफा-नुकसान को तौलने का मौका मिलेगा। इसलिए कर्नाटक विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइल माना जा रहा है। दक्षिण भारत में पैर पसारने के भाजपा के प्रयासों को बल कर्नाटक से ही मिलता है, क्योंकि दक्षिण में केवल इसी राज्य में भाजपा सत्ता में है। इस बार यदि यह राज्य उसके हाथ से फिसला, तो फिर पार्टी के लिए न केवल हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में मुश्किल खड़ी हो जायेगी, बल्कि 2024 के आम चुनाव में उसके हैट्रिक की संभावनाओं पर सवालिया निशान लग जायेगा। दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए वापसी के चैलेंज के साथ बाद के चुनावों के लिए खुद को खड़ा करने का सवाल भी है। चूंकि कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का गृह राज्य भी है, इसलिए यह उनके अनुभवों की भी परीक्षा होगी। क्या है कर्नाटक का चुनावी परिदृश्य और क्या हो सकते हैं मुद्दे, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
कर्नाटक की 224 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव की घोषणा हो गयी है। यहां 10 मई को मतदान होगा और 13 मई को मतगणना होगी। उम्मीदवारों के नामाकंन दाखिल करने की आखिरी तारीख 20 अप्रैल होगी। कर्नाटक में इस समय भाजपा की सरकार है, जिसका नेतृत्व बासवराज बोम्मई कर रहे हैं। कांग्रेस की कमान सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के हाथों में है, जबकि वहां की सियासत के तीसरे प्रमुख खिलाड़ी जद-एस के एचडी कुमारस्वामी हैं, जो पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के पुत्र हैं। यह चुनाव राजनीतिक रूप से कितना संवेदनशील है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले एक साल में इस प्रदेश के पांच दौरे कर चुके हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का गृहराज्य होने के कारण यहां से उनकी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है।
आंकड़ों के आइने में कर्नाटक
कर्नाटक अलग राज्य के रूप में एक नवंबर 1956 को अस्तित्व में आया, लेकिन तब इसे मैसूर कहा जाता था। वर्ष 1973 में इसे कर्नाटक के नाम से जाना जाने लगा, जो 1.91 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। उत्तर में महाराष्ट्र से लेकर दक्षिण में केरल तक और उसी तरह पूर्व में आंध्र प्रदेश से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक यह राज्य कुल 31 जिलों में फैला हुआ है। गोवा इसके उत्तर-पश्चिम में है, तो तमिलनाडु इस राज्य के दक्षिण पूर्व में स्थित है। इसलिए कर्नाटक को दक्षिण भारत का एक महत्वपूर्ण राज्य माना जाता है। इसे दक्षिण भारत के हृदय के रूप में भी देखा जाता है। कर्नाटक की आबादी लगभग साढ़े छह करोड़ है। यहां विधानसभा की 224 सीटें हैं, जबकि लोकसभा की 28 और राज्यसभा की 12 सीटें हैं। यहां कुल 5.21 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें पुरुषों और महिलाओं के बीच बहुत कम अंतर है। राज्य में कुल पुरुष मतदाताओं की संख्या 2.62 करोड़ है, वही महिला मतदाताओं की संख्या भी 2.59 करोड़ है। इस चुनाव के दौरान पहली बार वोट डालने वाले वोटरों की संख्या 9.17 लाख होगी। इसके अलावा 41 हजार ऐसे मतदाता हैं, जो एक अप्रैल, 2023 को 18 साल के हो जायेंगे और आगामी विधानसभा के चुनावों में उन्हें वोट डालने का अधिकार मिल जायेगा। राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 36 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं, वहीं 15 सीटों को अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित किया गया है। इस बार जिन मतदाताओं पर सबकी नजर रहेगी, वो हैं 80 साल और अधिक उम्र के बुजुर्ग। इनकी संख्या करीब 12.50 लाख है। राज्य में कुल मतदान केंद्रों की संख्या 58 हजार से अधिक है। इस राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उपज होती है, जिसमें जौ, धान और सब्जियों के अलावा फूलों की खेती भी शामिल है। कर्नाटक अपने मसालों और अचार के लिए भी जाना जाता है, जबकि यहां की विश्व प्रसिद्ध मिठाई है मैसूर पाक, जो सत्तू से बनती है। कर्नाटक की 84 प्रतिशत आबादी हिंदू धर्म का पालन करती है। जबकि ऐसे सबूत भी मिले हैं कि इस राज्य में कभी जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या हुआ करती थी। कुल जनसंख्या के 13 प्रतिशत के आसपास मुसलामानों की आबादी है, जबकि दो प्रतिशत इसाइ यहां रहते हैं। पूरे देश की जीडीपी में कर्नाटक का योगदान आठ प्रतिशत का है। वह इसलिए, क्योंकि सूचना तकनीक, ‘सॉफ्टवेयर’, बायोटेक्नोलॉजी, एयरोस्पेस और रक्षा उपकरणों के उद्योगों का हब इसी राज्य में है।
भाजपा का उदय
बात साल 1983 की है, जब भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा की 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसमें से वह 18 जीतने में भी कामयाब हो गयी थी। उसने आठ प्रतिशत का अपना वोट शेयर खड़ा कर लिया था। इन जीते हुए विधायकों में से नौ ऐसे थे, जो तटवर्ती इलाके के रहने वाले थे, जहां जनता दल के रामकृष्ण हेगड़े और उन्हीं के दल के अब्दुल नजीर का खासा प्रभाव हुआ करता था। ऐसे में यह पहला मौका था, जब भाजपा ने हेगड़े या यूं कहें जनता दल के किले में सेंध मार दिया था। भाजपा ने हेगड़े की सरकार को समर्थन भी दिया था। लेकिन बाद के दिनों में कुछ साल भाजपा को अंदरूनी कलह का सामना करना पड़ा था, जब अनंत कुमार और वी धननंजय कुमार जैसे दिग्गज आपस में ही भिड़ पड़े थे। यह बात हो रही है साल 1987-88 की, जब इन दोनों नेताओं के बीच सुलह कराने के लिए बीएस येदियुरप्पा को संगठन ने प्रदेश अध्यक्ष चुना। यहां से कर्नाटक की राजनीति में येदियुरप्पा के राजनीतिक सितारे का उदय होने लगा। वर्ष 1989 में भारतीय जनता पार्टी ने फिर चुनाव लड़ा और उसने 119 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये, लेकिन उसे सिर्फ चार सीटों पर ही जीत मिल सकी थी। वर्ष 1990 से मंडल आयोग की सिफारिशों से उपजे आंदोलन और राम जन्मभूमि के आंदोलन की वजह से भाजपा ने फिर से अपना आधार मजबूत करना शुरू कर दिया। लेकिन वह साल 2004 के विधानसभा चुनाव ही थे, जहां से भाजपा ने खुद को पूरी तरह स्थापित कर लिया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। भाजपा को विधानसभा की 224 सीटों में से 71 सीटों पर विजय हासिल हुई थी। फिर उसी साल भाजपा ने लोकसभा की 18 सीटों को भी जीत लिया था। कहा जाता है कि भाजपा की इस उड़ान का श्रेय यहां के लिंगायत समुदाय को जाता है, जिसने भाजपा का जमकर समर्थन किया। कर्नाटक की कुल आबादी में 16 से 17 प्रतिशत लोग लिंगायत समुदाय के हैं। इसी समुदाय से भाजपा के वरिष्ठ नेता बीएस येदियुरप्पा भी आते हैं। यह समुदाय राजनीतिक रूप से काफी जागरूक है और इनमें से एक वीरेंद्र पाटिल कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। कहते हैं कि इस समुदाय का साथ जिस भी राजनीतिक दल को मिल जायेगा, उसके लिए सत्ता का रास्ता आसान हो जायेगा। इस बार लिंगायत मतदाताओं को रिझाने में जनता दल (सेक्यूलर) और कांग्रेस ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है।
अभी का माहौल
2018 के विधानसभा के चुनावों के बाद राज्य में जनता दल (सेक्यूलर) और कांग्रेस के गठजोड़ की सरकार बनी। लेकिन अगले ही साल बागी विधायकों के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बना ली। बगावत के बाद कांग्रेस के पास विधानसभा में 70 विधायक हैं, जबकि जनता दल (सेक्यूलर) के पास 30। वहीं अब भाजपा के पास 121 विधायक हैं। इस दौरान भाजपा ने दो मुख्यमंत्रियों को बदला। पहले येदियुरप्पा और फिर उनको हटाकर बासवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस बार कांग्रेस भी सत्ता विरोधी लहर को भुनाने की कोशिश में है और उसने पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया है। वहीं जनता दल (सेक्यूलर) के एचडी कुमारस्वामी ने भी इतने सालों तक कांग्रेस और भाजपा से दूरियां ही बना कर रखी हुई हैं। उनकी पार्टी भी किसानों के मुद्दों और कल्याणकारी नीतियों को लेकर मतदाताओं के बीच जाती रही है।
इस पूरे परिदृश्य में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत का सिलिकॉन वैली कहे जानेवाले इस प्रदेश में भाजपा अपना जलवा बरकरार रख पाती है या फिर कांग्रेस की वापसी की कहानी इसी राज्य से शुरू होगी।