विशेष
-कुर्सी का ऐसा बंटवारा बहुमत वाली पार्टी में आज से पहले कभी नहीं हुआ था
-सत्ता के इस प्रहसन में धुंधली पड़ गयी ग्रैंड ओल्ड पार्टी की चमक
-मजबूरी और बेबसी में लिया गया फैसला कभी मुकाम नहीं पाता
कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद को लेकर सस्पेंस खत्म हो गया है। सिद्धारमैया 20 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे, जबकि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार को डिप्टी सीएम पद के अलावा महत्वपूर्ण विभाग भी सौंपें जायेंगे। इसमें चौंकानेवाली बात यह है कि मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धारमैया कोई भी फैसला खुद नहीं ले पायेंगे, उनको डीके शिवकुमार से हर फैसले में सहमति लेनी होगी। यही नहीं, डीके शिवकुमार की नाराजगी दूर करने के लिए आलाकमान ने उन्हें अहम मंत्रालय देने का भी वादा किया है। इसके अलावा उन्हें भरोसा दिया गया है कि ढाई साल बाद सिद्धारमैया उन्हें कुर्सी सौंप देंगे। यह भी कहा गया है कि उनके गुट के विधायकों को मंत्रिपद में बराबर की हिस्सेदारी मिलेगी। उनके विधायक जो भी विभाग चाहेंगे, उन्हें दिया जायेगा। ‘रोटेशनल सीएम’ का यह फॉर्मूला भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार सामने नहीं आया है, लेकिन किसी बहुमत प्राप्त दल के लिए यह पहला मौका है। कर्नाटक में सीएम तय कर कांग्रेस ने सत्ता संघर्ष पर तत्काल विराम तो लगा दिया है, लेकिन इस प्रहसन ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उसकी शानदार जीत की चमक को धुंधला कर दिया है। वास्तव में कांग्रेस ने सीएम की कुर्सी का बंटवारा कर कर्नाटक में भी ‘एकनाथ शिंदे’ के जन्म लेने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। डीके शिवकुमार के भाई सासंद सुरेश तो अभी से कह रहे हैं कि वे इस फैसले से खुश नहीं हैं। कांग्रेस ने इसी गुटबाजी से बचने के लिए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया था। इसलिए उसने ‘रोटेशनल सीएम’ जैसे फॉर्मूले को अपनाया है, लेकिन इसके दूरगामी नुकसान का उसे तनिक भी अंदाजा नहीं है। कर्नाटक में शासन किसका होगा और कौन किस पर भारी पड़ेगा, इस बात का अभी फैसला होना बाकी है। इस बात में कोई शक नहीं कि सिद्धारमैया अनुभव के मामले में डीके शिवकुमार पर भारी पड़ते हैं, लेकिन सांगठनिक और संसाधन के मामले में शिवकुमार के आगे कोई ठहर भी नहीं सकता। इसलिए कांग्रेस के भीतर यदि अभी से असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे हैं, तो इसमें बहुत आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। कर्नाटक में कांग्रेस की इस पूरी कवायद का राजनीतिक विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करनेवाली कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए चल रही जद्दोजहद खत्म कर दी है। मुख्यमंत्री पद के लिए छिड़े घमासान में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच सत्ता का बंटवारा कर ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने भारतीय राजनीति में नये प्रयोग की शुरूआत की है। आज से पहले राजनीतिक गठबंधनों में सत्ता के बंटवारे का फॉर्मूला सामने आया था, लेकिन किसी राज्य में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किसी एक दल के दो नेताओं के बीच सत्ता का इस तरह बंटवारा नहीं हुआ था। कर्नाटक में जो फॉर्मूला तय किया गया है, उसके अनुसार अगले ढाई साल तक सिद्धारमैया मुख्यमंत्री तो रहेंगे, लेकिन वह कोई भी फैसला खुद नहीं लेंगे, डीके शिवकुमार से अनुमति लेनी जरूरी कर दिया है। डीके शिवकुमार को डिप्टी सीएम के पद पर राजी करने में कांग्रेस आलाकमान के पसीने छूट गये। वह तब माने, जब उन्हें सोनिया गांधी ने यह आश्वासन दिया कि ढाई साल बाद सिद्धारमैया स्वेच्छा से पद छोड़ देंगे और तब शिवकुमार को सत्ता दे दी जायेगी। सोनिया गांधी को डीके शिवकुमार को मनाने के लिए यहां तक आश्वासन देना पड़ेगा कि मुख्यमंत्री होते हुए भी सिद्धारमैया खुद से कोई फैसला नहीं लेंगे, वह डीके से सहमति प्राप्त करेंगे। यही नहीं, डीके शिवकुमार के जो विश्वनीय विधायक हैं, उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा जायेगा। यानी डीके शिवकुमार गुट को सत्ता में बराबर की हिस्सेदारी मिलेगी। यानी जितने मंत्री सिद्धारमैया के, उतने मंत्री डीके शिवकुमार के। सत्ता में दोनों के बीच सत्ता की हिस्सेदारी में सबसे विकट समस्या अधिकारियों के समक्ष आयेगी। उनके मन में यह बात हमेशा ताजा रहेगी कि ढाई साल बात डीके आनेवाले हैं। इससे उन्हें निर्णय लेने में भी कठिनाई होगी। बता दें कि 2018 में राजस्थान में लगभग यही फॉर्मूला कांग्रेस ने अपनाया था। उसमें रोटेशनल सीएम की बात तो नहीं थी, लेकिन सचिन पायलट को सरकार में पर्याप्त जगह देने की गारंटी दी गयी थी, लेकिन वहां आलम यह है कि दोनों के बीच आज तकरार राजस्थान का मौजूदा सियासी ड्रामा बना हुआ है।
कोई भी नहीं छोड़ना चाहता सीएम का पद
किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री का पद बहुत महत्वपूर्ण होता है। मुख्यमंत्री सरकार की ओर से कोई भी फैसला ले सकता है। विकास योजनाओं पर उसकी मुहर के बिना काम नहीं पूरा हो पाता। राज्य के सभी विभागों पर इसका नियंत्रण होता है। थोड़े समय के लिए इन सभी शक्तियों का अनुभव करने और महसूस करने के बाद पद छोड़ने का विचार किसी को भी अच्छा नहीं लगता होगा। इतना ही नहीं, शासन चलाने के लिए भी यह फॉर्मूला सही नहीं हो सकता। सत्ता का इतना स्पष्ट बंटवारा नौकरशाही को लापरवाह बना सकता है। सत्ता के बीच व्याप्त असंतुलन को साधने के चक्कर में नौकरशाही रास्ते से भटक सकती है या बेलगाम हो सकती है। ऐसे में बदनामी का दाग तो राजनीतिक नेतृत्व पर ही लगेगा और कांग्रेस के लिए यह किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगा।
विफल रहा सीएम सीट के बंटवारे का प्रयोग
दो नेताओं के इतर दो पार्टियों के बीच सत्ताओं का हस्तांतरण काफी टेढ़ी खीर साबित होती है। एक बार उत्तरप्रदेश में भाजपा और बसपा ने बारी-बारी से मुख्यमंत्री पद साझा करने का फैसला किया था। तय हुआ था कि हर छह महीने में बसपा और भाजपा के बीच मुख्यमंत्री का पद दिया और लिया जाये। मायावती को मुख्यमंत्री पद संभाले छह महीने बीत चुके थे। बाद में इस समझौते के अनुसार मुख्यमंत्री का पद भाजपा नेता को दिया जाना चाहिए था, लेकिन 1997 में मायावती ने मुख्यमंत्री का पद भाजपा को सौंपने की बजाय भाजपा से समर्थन वापस ले लिया। भाजपा ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी और बसपा में फूट पैदा कर दी। उसने कांग्रेस सहित छोटे दलों को विभाजित कर समर्थन जुटा लिया। कल्याण सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। इसके अलावा झारखंड में भी एक बार यह व्यवस्था लागू करने की कोशिश हुई, लेकिन वह भी विफल हो गयी।
कांग्रेस ने तैयार कर ली है बगावत की जमीन
कर्नाटक में ‘रोटेशनल सीएम’ की व्यवस्था से ठीक पहले महाराष्ट्र में जारी सत्ता संग्राम पर ध्यान देना जरूरी है। वहां चुनाव से पहले भाजपा और शिवसेना में इसी तरह का फॉर्मूला तय किया गया था, लेकिन चुनाव के बाद शिवसेना उससे मुकर गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि गठबंधन टूट गया और शिवसेना ने राकांपा और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली। इस राजनीतिक प्रयोग का परिणाम शिवसेना के विभाजन के रूप में सामने आया और एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना ली। इतना ही नहीं, शिवसेना पर से उद्धव ठाकरे का नियंत्रण भी खत्म हो गया।
कर्नाटक में कांग्रेस की इस व्यवस्था से भी यही खतरा पैदा हो गया है कि कहीं वहां भी कोई एकनाथ शिंदे न पैदा हो जाये। अभी शिवकुमार के समर्थक कई विधायकों और खुद उनके भाई सांसद सुरेश ने इस व्यवस्था का विरोध किया है। ऐसे में यह आशंका तो हमेशा बनी रहेगी कि पार्टी विधायक दल में कहीं कोई बागी न पैदा हो जाये। वास्तव में कांग्रेस ने बगावत की इसी आशंका को सुगम बना दिया है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सिद्धारमैया कांग्रेस के कर्नाटक में सबसे बड़े नेताओं में से एक हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा के हिंदुत्व कार्ड का मुकाबला करने के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था। राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान जाति आधारित जनगणना की वकालत और ‘जितनी आबादी, उतना हक’ की मांग उठा कर ‘ओबीसी और दलित कार्ड’ खेला था। सिद्धारमैया भी कुरुबा समुदाय (ओबीसी) से आते हैं। राज्य में इस जाति की आबादी लगभग ग्यारह प्रतिशत है। वह राज्य में सबसे बड़े ओबीसी नेता माने जाते हैं। ऐसे में 2024 चुनाव में ओबीसी वोट को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस के पास सिद्धारमैया से अच्छा कोई चेहरा नहीं था। लेकिन शिवकुमार ने जिस तरह अकेले दम पर पार्टी के चुनाव अभियान का संचालन किया और उसे जीत के दरवाजे पर लेकर आये, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। ऐसे में कर्नाटक में सीएम की कुर्सी के लिए कांग्रेस के भीतर मचे इस घमासान से यदि किसी का नुकसान हुआ है, तो वह पार्टी है और इस पूरी कवायद में सबसे कमजोर पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे साबित हुए हैं। इतना ही नहीं, कर्नाटक के इस नाटक ने कांग्रेस आलाकमान के शक्तिहीन होने की आशंका पर मुहर भी लगा दी है।