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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»तो इसलिए विपक्ष के लिए इतना अहम है 2024 का आम चुनाव
    स्पेशल रिपोर्ट

    तो इसलिए विपक्ष के लिए इतना अहम है 2024 का आम चुनाव

    adminBy adminMay 30, 2023No Comments9 Mins Read
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    विशेष
    -2026 में परिसीमन के बाद लगभग अजेय हो जायेगी भाजपा
    -नये संसद भवन की जरूरत भी परिसीमन के बाद के परिदृश्य के कारण थी

    राजनीति में बहुत से ऐसे मुद्दे होते हैं, जो एक-दूसरे से इतनी बारीकी से जुड़े होते हैं कि आसानी से किसी को नजर नहीं आते। नये संसद भवन की जरूरत, परिसीमन और 2024 का आम चुनाव भी ऐसे ही तीन मुद्दे हैं। एक दिन पहले नये संसद भवन का लोकार्पण हुआ। राजनीतिक और सामाजिक हलकों में नये संसद भवन की जरूरत के औचित्य पर सवाल उठाये गये थे, लेकिन इस दौरान किसी ने इन तीनों मुद्दों के बारीकी से जुड़े होने की तरफ ध्यान नहीं दिया। ये तीनों मुद्दे एक-दूसरे से इस तरह जुड़े हैं कि इन्हें अलग-अलग करना लगभग असंभव है। नये संसद भवन का उद्घाटन हो चुका है, लेकिन इसका 2024 के आम चुनाव और 2026 के परिसीमन से क्या रिश्ता है, यह समझना जरूरी हो जाता है। अनुमान किया जा रहा है कि परिसीमन के बाद लोकसभा सदस्यों की संख्या लगभग ढाई गुना बढ़ कर आठ सौ से अधिक हो जायेगी। सीटों की यह वृद्धि हिंदी पट्टी के राज्यों में होगी, जहां भाजपा का जबरदस्त प्रभाव है। 2024 का आम चुनाव इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि उस समय बननेवाली सरकार की देखरेख में परिसीमन का काम पूरा होगा। बीते दिनों राज्यसभा में आबादी आधारित परिसीमन और इससे दक्षिण भारत को होने वाले नुकसान का मुद्दा उठाया गया था। इसके बाद से लोकसभा सीटों को लेकर देशभर में होने वाले परिसीमन को लेकर चर्चा तेज हो गयी। पिछली बार लोकसभा सीटों संख्या में संशोधन 1977 में हुआ था। इसका आधार साल 1971 में हुई जनगणना थी। उसके बाद से अब तक देश की जनसंख्या दोगुनी से भी अधिक हो चुकी है। इसलिए अब परिसीमन अपरिहार्य हो गया है। दूसरी तरफ इसकी पृष्ठभूमि 2024 के चुनाव के बाद तैयार होने लगेगी, इसलिए हरेक दल के लिए यह चुनाव इतना महत्वपूर्ण हो गया है। कहा जा रहा है कि परिसीमन के बाद भाजपा लगभग अजेय स्थिति में पहुंच जायेगी, इसलिए विपक्ष किसी भी हालत में उसे सत्ता में आने से रोकना चाहता है। इन तीनों मुद्दों के आपस में जुड़े होने के कारणों के साथ परिसीमन के विभिन्न पहलुओं के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    नये संसद भवन का रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूजा-पाठ के साथ विधिवत उद्घाटन किया। इस नये भवन में क्या-क्या खास है, इस पर भी लोग जानने को उत्सुक हैं। वहीं नये संसद भवन की लोकसभा में 888 सीटें हैं, यानी इतने सांसद इसमें बैठ सकेंगे। इसमें सीटें बढ़ायी क्यों गयी हैं, इसको लेकर भी चर्चाएं होने लगी हैं। दरअसल 2026 में परिसीमन होना है। इससे लोकसभा की सीटें बढ़ेंगी और शायद इसी को ध्यान में रखते हुए नयी लोकसभा में पुरानी लोकसभा से अधिक सीटें बनायी गयी हैं। लोकसभा की सीटें परिसीमन के बाद बढ़ेंगी, यह तय है। इस बात ने दक्षिण के राज्यों को चिंता में डाल दिया है। इन राज्यों को डर है कि अगर 46 साल से रुका हुआ परिसीमन जनसंख्या को आधार मानकर हुआ, तो लोकसभा में हिंदी भाषी राज्यों के मुकाबले उनकी सीटें लगभग आधी हो जायेंगी।

    क्या हो सकता है परिसीमन में
    जब 2026 में परिसीमन होगा, तो उसके बाद दक्षिण भारत के पांच राज्यों में 42 प्रतिशत सीटें बढ़ेंगी, तो वहीं हिंदीभाषी आठ राज्यों की सीटें करीब 84 प्रतिशत बढ़ जायेंगी। यानी दक्षिण के राज्यों के मुकाबले दोगुनी सीटें बढ़ेंगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन्हीं आठ राज्यों से भाजपा को 60 प्रतिशत सीटें मिली थीं। 1976 में देश में आखिरी बार परिसीमन किया गया था, जो 1971 की जनगणना को आधार मानकर किया गया। उस समय हमारे देश की जनसंख्या 54 करोड़ थी और हर 10 लाख की आबादी पर एक लोकसभा सीट का फॉर्मूला अपनाया गया था। इस तरह लोकसभा की कुल 543 सीटें तय की गयीं। वहीं 2011 में हमारे देश की आबादी करीब 121 करोड़ थी। उसके बाद से जनगणना नहीं हुई है। अगर 2011 की जनगणना को आधार मानकर ही 2026 में परिसीमन किया जाता है और प्रति 10 लाख की आबादी पर एक सीट का ही फॉर्मूला अपनाया जाता है, तो लोकसभा की कुल 1210 सीटें होंगी। चूंकि नयी संसद की लोकसभा में अधिकतम 888 सांसद ही बैठ सकेंगे। अगर इसे परिसीमन का आधार मानकर 1210 सीटों के साथ एडजस्ट करें, तो उत्तर प्रदेश कोे 147 और कर्नाटक को 45 सीटें मिलेंगी। वहीं बाकी राज्यों में भी यही फॉर्मूला लागू होगा।

    शुरू हो चुकी है परिसीमन की सुगबुगाहट
    देश में इस समय परिसीमन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। 1971 के बाद भारत में पांच बार जनगणना हो चुकी है, लेकिन 2021 वाली जनगणना अभी बाकी है। जब 2011 में आखिरी बार जनगणना हुई थी, तब देश की आबादी करीब 121 करोड़ थी। यानी 1971 के जनगणना के मुकाबले 2.25 गुना अधिक, लेकिन लोकसभा की सीटें नहीं बढ़ीं। ऐसे में यहां यह सवाल उठता है कि आखिर हम 46 साल बाद भी उसी फॉर्मूले पर क्यों टिके हुए हैं।

    2019 में प्रणब मुखर्जी ने एक हजार सीटें करने की मांग की थी
    पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2019 में लोकसभा में एक हजार सीटें करने की मांग की थी। वहीं रविवार को नये संसद भवन के उद्घाटन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि आने वाले समय में लोकसभा की सीटें बढ़ेंगी। परिसीमन का जिक्र राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश और भाजपा के राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने भी किया। ऐसे में यह संभावना जतायी जा रही है कि 2026 में परिसीमन किया जा सकता है।

    इसलिए दक्षिण के राज्य चिंता में हैं
    दरअसल 60-70 के दशक में सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण पर जोर लगा रखा था और इस मामले में दक्षिण भारत के राज्य उत्तर के राज्यों, खासतौर पर हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले काफी आगे थे, लेकिन उनकी इस उपलब्धि के पीछे एक कड़वा सच भी था। वह यह कि उनकी जनसंख्या घटी, तो लोकसभा में उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले उनकी सीटें भी कम हो जायेंगी।

    इंदिरा सरकार ने लगा दी थी रोक
    वहीं दक्षिण के राज्यों की इस शिकायत को दूर करने के लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान संविधान में संशोधन करके नये परिसीमन पर 50 साल तक, यानी 2026 तक रोक लगा दी। सरकार का यह मानना था कि 2026 तक सभी राज्यों में जनसंख्या बढ़ने की दर एक जैसी हो जायेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।
    2011 की जनगणना के अनुसार दक्षिण से काफी आगे निकल गये
    2011 की जनगणना के अनुसार दक्षिण भारत के राज्यों की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 12.1 प्रतिशत है, जबकि वहीं हिंदीभाषी राज्यों की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 21.6 प्रतिशत है, यानी हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले करीब 9.5 प्रतिशत कम है। इसलिए दक्षिण के राज्यों को लगता है कि अगर प्रति 10 लाख आबादी वाला फॉर्मूला अपनाया गया, तो लोकसभा में उनकी मौजूदगी उत्तर भारत के राज्यों के मुकाबले घट जायेगी।

    उत्तर-पूर्व के राज्यों पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं
    अगर परिसीमन के बाद लोकसभा की सीटें बढ़ती हैं, तो उत्तर-पूर्व के राज्यों पर इसका कोई बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। यहां आठ राज्यों को मिलाकर कुल नौ सीटों की ही वृद्धि हो रही है। दिलचस्प बात यह है कि यह बढ़ोत्तरी असम में ही हो रही है, जहां भाजपा मजबूत है। 2019 के लोकसभा में चुनाव में भाजपा को असम में नौ सीटें मिली थीं।

    तो आठ राज्यों से भाजपा को 60 प्रतिशत सीटें
    एक ओर परिसीमन को लेकर जहां सुगबुगाहट तेज हो रही है, तो वहीं दक्षिण भारत की पार्टियां और विपक्ष परिसीमन के पक्ष में नहीं है। उनका मानना है कि अगर 2026 में परिसीमन हुआ, तो भाजपा को फायदा होगा। पूरा खेल यहीं है। इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। परिसीमन के बाद लोकसभा में 888 सीटें होगीं। मतलब बहुमत के लिए 445 सीटें चाहिए। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुल 303 सीटें मिली थीं और इनमें 168 सीटें केवल हिंदीभाषी राज्यों से थीं। यानी करीब 55 प्रतिशत सीटें। अगर मान लिया जाये कि परिसीमन के बाद भाजपा 2019 का ही अपना प्रदर्शन दोहराती है, तो उसे हिंदीभाषी राज्य में ही 309 सीटें मिल जायेंगी, यानी बहुमत के लिए जरूरी सीटों में से भाजपा करीब 70 प्रतिशत सीटें केवल इन आठ राज्यों से ही हासिल कर लेगी। 2019 में भाजपा ने गैर-हिंदी राज्यों, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में जोरदार प्रदर्शन किया था। अगर वही प्रदर्शन भाजपा परिसीमन के बाद भी दोहराती है, तो गुजरात में 44, पश्चिम बंगाल में 28, कर्नाटक में 40 और महाराष्ट्र में 39 सीटें उसे मिलेंगी और इस तरह से भाजपा इन 12 राज्यों से ही बहुमत का आंकड़ा पार कर लेगी।

    क्या 2026 या उससे पहले हो पायेगा परिसीमन
    अब बात परिसीमन की करते हैं। अभी भारत में 2021 की जनगणना नहीं हुई है। सरकार परिसीमन से पहले जनगणना कराना चाहेगी। अगर 2021 की जनगणना नहीं होती है, तो सरकार 2011 की जनगणना को ही आधार मानकर परिसीमन करा सकती है, लेकिन इसमें भी पेंच है। दरअसल हमारे संविधान में आर्टिकल-81 में कहा गया है कि सदन में 550 से अधिक निर्वाचित सदस्य नहीं होंगे। ऐसे में जब सीटों की संख्या बढ़ती है, तो संविधान में संशोधन की जरूरत पड़ सकती है। इतना तो तय है कि परिसीमन 2026 या उससे पहले हो सकता है। परिसीमन में दक्षिण के राज्यों के मुकाबले हिंदीभाषी राज्यों में सीटें भी बढ़नी तय है। ऐसे में लोकसभा में हिंदीभाषी राज्यों का काफी दबदबा हो जायेगा और दक्षिण के राज्य इनके मुकाबले काफी पीछे रह जायेंगे। ऐसे में दक्षिण के राज्यों की यह चिंता स्वभाविक है।
    इस तरह समझा जा सकता है कि 2024 का आम चुनाव प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए ‘करो या मरो’ की लड़ाई क्यों है और नये संसद भवन की जरूरत क्यों पड़ी। इसलिए कहा जाता है कि राजनीति इन तमाम परिस्थितियों से जुड़े रहनेवाले समीकरणों का ही नाम है।

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