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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»क्या पटना में विपक्षी नेताओं के जुटान से खुलेगा विपक्षी एकजुटता का रास्ता?
    स्पेशल रिपोर्ट

    क्या पटना में विपक्षी नेताओं के जुटान से खुलेगा विपक्षी एकजुटता का रास्ता?

    adminBy adminJune 22, 2023No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    आज होगी नीतीश कुमार की अग्निपरीक्षा
    बड़ा सवाल: क्या पटना में विपक्षी नेताओं के जुटान से खुलेगा विपक्षी एकजुटता का रास्ता
    बैठक से पहले ही दिखने लगा सभी दलों का अपना-अपना स्वार्थ, लगायी शर्तें

    बिहार की राजधानी पटना में शुक्रवार को होनेवाली विपक्षी बैठक देश की सियासत का रुख बदल देगी, ऐसा विपक्ष के लोगों का दावा है। इस बैठक पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। बैठक में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी की भूमिका में रहेगी, जिस पर इस बात का दबाव रहेगा कि वह क्षेत्रीय पार्टियों को लेकर क्या रुख दिखाती है। देश के कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों ने जिस तरह से बैठक के पहले कांग्रेस को लेकर बयान दिया है, उससे कांग्रेस के लिए बैठक में सब कुछ सहज नहीं रहनेवाला है। यह बैठक कांग्रेस के अलावा नीतीश कुमार के लिए अग्निपरीक्षा साबित होगी, क्योंकि वह इसके आयोजक हैं। यदि क्षेत्रीय पार्टियां इस बात पर अड़ी रहीं कि वे जहां मजबूत हैं, वहां कांग्रेस ज्यादा हाथ पैर ना मारे, तो कांग्रेस की मुश्किल बढ़ जायेगी और इसका सीधा असर बैठक के फलाफल पर पड़ेगा। ऐसे में आयोजक होने के नाते बैठक में सबसे बड़ी भूमिका नीतीश कुमार की रहनेवाली है। कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच तालमेल बिठाने में उनकी अहम भूमिका रहनेवाली है। नीतीश कुमार को भी पता है कि इतने बड़े नेताओं को दोबारा एक साथ बैठाना और वह भी पटना में आसान नहीं होगा। ऐसे में अगर इस बैठक में कुछ बात नहीं बनी, तो आगे का रास्ता बेहद कठिन हो जायेगा। नीतीश कुमार भी इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं कि इस बैठक से बहुत अधिक सकारात्मक परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है, फिर भी वह अपनी पहल की सफलता को लेकर उत्साहित तो हैं ही। वैसे मायावती ने भी इस बैठक को लेकर तंज कसा है, ट्वीट कर लिखा है दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए, मुंह में राम बगल में छुरी आखिर कब तक चलेगा। क्या हो सकता है पटना की इस बैठक में, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    ऐसा देश में पहली बार हो रहा है कि केंद्र सरकार के खिलाफ अलग-अलग मोर्चे पर लड़ रही पार्टियां एक जगह जुट रही हैं। बिहार इस ऐतिहासिक मौके का गवाह बन रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार को उखाड़ फेंकने का सामूहिक निर्णय लेने के लिए 23 जून को पटना में यह बैठक हो रही है। पहले यह बैठक 12 जून को होनेवाली थी, लेकिन कांग्रेस के कदम पीछे खींच लेने के कारण मामला फंस गया था। अब शुक्रवार को बैठक में भी कांग्रेस के साथ किसी का गतिरोध नहीं हो, इसके लिए एजेंडा तैयार हो गया है। बैठक में उसी रोडमैप पर बात होगी। ऐसी बात कि गतिरोध लोकसभा चुनाव 2024 तक टल जाये। यह बैठक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के राजनीतिक वजूद के लिए भी बेहद अहम है, क्योंकि इस आयोजन के शिल्पकार वही हैं।
    जदयू की तरफ से पटना में हो रही बैठक का एजेंडा साफ कर दिया गया है। जदयू की मानें, तो भाजपा इस बैठक से डरी हुई है। उसे तनिक भी उम्मीद नहीं थी कि विपक्षी दल इस तरह से एकजुट होंगे। इस एकजुटता के डर के कारण ही भाजपा वाले यह सवाल बार-बार ला रहे हैं कि प्रधानमंत्री का चेहरा कौन होगा। कहा गया है कि बैठक का पहला एजेंडा यही है कि भाजपा का सामना करने के लिए किसी भी तरह एकजुट होना है। इसमें कोई संशय नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री के चेहरे को लेकर इस बैठक में कोई निर्णय नहीं होगा। एकजुटता प्राथमिक एजेंडा होगा। सभी नेता आ रहे हैं, इससे यह संदेश जायेगा कि विपक्षी दल साथ-साथ हैं और एजेंडे की सफलता यही है। पीएम के चेहरे पर आगे निर्णय लिया जायेगा, इस बैठक में नहीं। जो भी चेहरा होगा, नरेंद्र मोदी से बेहतर होगा।

    क्षेत्रीय गतिरोध के लिए निकाला यह फॉमूर्ला
    बैठक के पहले ही बिहार आ रहे नेताओं से स्पष्ट बात की गयी है कि क्षेत्रीय गतिरोध के मुद्दे इस बैठक के एजेंडे में नहीं हों। भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से रोकना सभी के लिए जरूरी है। ऐसे में एक-दूसरे के खिलाफ अपने राज्यों में लड़ने वाले दल अगर भाजपा के खिलाफ एकजुट होना चाहते हैं, तो उन्हें बड़े उद्देश्य के लिए छोटे मुद्दों को किनारे रख कर चलना होगा।

    यहां है विपक्ष की कमजोर कड़ी
    बैठक में वे दल भी शामिल होंगे, जिन्होंने पहले कांग्रेस को लेकर आपत्तियां जतायी थीं। यही विपक्ष का कमजोर बिंदु है। इसके अलावा जिस तरह बैठक की तारीख को 12 जून से बदल कर 23 जून किया गया, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं।
    लेकिन तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। कांग्रेस अब वह ताकत नहीं रही, जो पहले हुआ करती थी। और वही पार्टियां, जो इसके खिलाफ तब एकजुट हुई थीं, आज 2024 में भाजपा के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ने की तैयारी के लिए इससे जुड़ना चाह रही हैं। कांग्रेस के खिलाफ तमाम आपत्तियों के बावजूद कई क्षेत्रीय दल मानते हैं कि कांग्रेस के बिना भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता पूरी नहीं होती है।
    पटना की यह बैठक इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें 21 विपक्षी पार्टियां शामिल हो रही हैं। ऐसा अतीत में भी हुआ है, बल्कि इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस बार इसमें वे लोग भी शामिल होंगे, जिन्होंने पहले कांग्रेस को लेकर आपत्तियां जतायी थीं, हालांकि सभी मतभेदों को सुलझाया नहीं जा सका है। गैर-भाजपा दलों को 2019 में 62 फीसदी वोट मिले थे। विपक्षी नेताओं को मालूम है कि 2024 में जहां तक संभव हो, अधिक से अधिक लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का एक संयुक्त प्रत्याशी खड़ा किया जाये। यही उनका मंत्र, कार्यक्रम और एजेंडा होना चाहिए। वास्तव में और कुछ मायने नहीं रखता। लेकिन अच्छे इरादों के बावजूद ऐसा कहना आसान है, करना मुश्किल। अगर पार्टियों में मतभेद होता है, तब तो यह और भी मुश्किल है। स्पष्ट रूप से, विपक्ष को भाजपा द्वारा अपनायी जा रही रणनीति से अलग रणनीति अपनानी होगी, जो उसे बड़ी जीत दिलायेगी। जाहिर है, विपक्षी दलों को फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। मसलन, भाजपा के पास मोदी के रूप में एक शक्तिशाली और लोकप्रिय नेता है। विपक्ष के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो मोदी को टक्कर दे सके और अधिकांश दलों को स्वीकार्य हो। यही विपक्ष का कमजोर बिंदु है। हालांकि राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा से काफी लोकप्रियता हासिल की है, पर कई क्षेत्रीय दलों को वह स्वीकार्य नहीं होंगे। इसलिए विपक्ष को अपनी कमजोरियों को उजागर करने के बजाय अपनी ताकत का इस्तेमाल करना होगा। यदि उन्हें सरकार बनाने लायक सीटें मिलती हैं, तो चुनाव के बाद नेता चुना जा सकता है। चुनावों के दौरान लोगों की आर्थिक कठिनाइयों को मुद्दा बनाने से फर्क पड़ सकता है, हालांकि भाजपा के पास भी कई चालें होंगी।
    इसके अलावा यह बैठक भविष्य में नीतीश कुमार के राजनीतिक वजूद का भी फैसला करेगी। यह उनके राजनीतिक कौशल पर निर्भर करता है कि कांग्रेस के बारे में ममता बनर्जी, एमके स्टालिन और अरविंद केजरीवाल की आपत्तियों को 2024 तक टालने में वह कितने सफल होते हैं। इतना ही नहीं, के चंद्रशेखर राव की बीआरएस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और बिहार की सत्ता में अपने सहयोगी राजद की मोल-भाव की राजनीतिक ताकत को नीतीश कुमार कितना हद तक झेल पाते हैं, यह भी देखनेवाली बात होगी।

    दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए: मायावती
    इसको लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक के बाद कई ट्वीट किये हैं। मायावती ने ट्वीट के जरिये कहा कि महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ापन, अशिक्षा, जातीय द्वेष, धार्मिक उन्माद और हिंसा से ग्रस्त देश में बहुजन के त्रस्त हालात से स्पष्ट है कि बाबा साहेब के मानवतावादी समतामूलक संविधान को सही से लागू करने की क्षमता कांग्रेस, बीजेपी जैसी पार्टियों के पास नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अब लोकसभा चुनाव के पहले जिन मुद्दों को मिला कर विपक्षी पार्टियां उठा रही हैं, ऐसे में नीतीश कुमार द्वारा 23 जून की विपक्षी नेताओं की पटना बैठक ‘दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए’ की कहावत को ज्यादा चरितार्थ करती है। वहीं मायावती ने अपने अगले ट्वीट में लिखा कि वैसे अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी को ध्यान में रख कर इस प्रकार के प्रयास से पहले अगर ये पार्टियां जनता में उनके प्रति आम विश्वास जगाने की गरज से, अपने गिरेबान में झांक कर अपनी नीयत को थोड़ा पाक-साफ कर लेती तो बेहतर होता। मुंह में राम बगल में छुरी आखिर कब तक चलेगा। उन्होंने आगे लिखा कि यूपी में लोकसभा की 80 सीट चुनावी सफलता की कुंजी कहलाती है, किंतु विपक्षी पार्टियों के रवैये से ऐसा नहीं लगता है कि वे यहां अपने उद्देश्य के प्रति गंभीर और सही मायने में चिंनित हैं। मायावती ने अपने ट्वीट के माध्यम से पूछा कि बिना सही प्राथमिकताओं के साथ यहां लोकसभा चुनाव की तैयारी क्या वाकई जरूरी बदलाव ला पायेगी।

    कुल मिला कर अंतत: सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि विपक्षी पार्टियां आमने-सामने की लड़ाई को कितनी गंभीरता से लेती हैं। इसके लिए एक-एक निर्वाचन क्षेत्र में कठिन परिश्रम की आवश्यकता होगी। इन प्रयासों को शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेताओं के समर्थन की जरूरत होगी, जो अवश्यंभावी गड़बड़ियों को दूर कर सकते हैं। निस्संदेह पटना सम्मेलन में विपक्षी एकता की बेहतरीन तस्वीर सामने आयेगी, लेकिन असली सवाल यह है कि वहां इकट्ठा होने वाले विपक्षी नेता किस हद तक ऐसा तंत्र बनाने में सक्षम होंगे, जो जमीनी स्तर पर एकता को प्रदर्शित करे। अब तक तो ऐसी उम्मीद दिख नहीं रही है।

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