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    Home»विशेष»अति-आत्मविश्वास ने भाजपा को बहुमत से दूर कराया
    विशेष

    अति-आत्मविश्वास ने भाजपा को बहुमत से दूर कराया

    adminBy adminJune 6, 2024Updated:June 6, 2024No Comments16 Mins Read
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    विशेष
    मोदी-मोदी कहते-कहते भाजपा के नेता और कार्यकर्ता खुद को मोदी समझने लगे
    उम्मीदवार केवल हाथ जोड़ कर मोदी-मोदी कहते रह गये, कार्यकर्ता रह गये मौन
    बड़बोले उम्मीदवारों की बयानबाजी और चुनावी कुप्रबंधन भी महंगा पड़ा
    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।

    देश में 18वां आम चुनाव संपन्न हो चुका है और अब नयी सरकार के गठन के लिए राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं। इस चुनाव परिणाम ने देश को कई संदेश भी दिये हैं और राजनीतिक दलों को सबक भी सिखाया है। मतदाताओं ने 18वीं लोकसभा के लिए अपने 543 प्रतिनिधियों का चुनाव कर लिया है। भाजपा को 2019 के मुकाबले इस बार नुकसान उठाना पड़ा है और वह स्पष्ट बहुमत हासिल करने से चूक गयी, हालांकि अपने गठबंधन के सहयोगियों के सहारे वह सरकार बनाने में कामयाब होती दिख रही है। भाजपा को यह नुकसान क्यों हुआ और इसकी जिम्मेवारी किस पर है, यह तो कभी पब्लिक डोमेन पर नहीं आयेगा, कारण सफलता का श्रेय तो लेने की परंपरा रही है, लेकिन हार का ठीकरा कोई भी अपने सिर नहीं फोड़ना चाहता। लेकिन चुनाव परिणाम पर नजर दौड़ाने से एक बात साफ हो जाती है कि भाजपा ने जिस तरह से यह चुनाव लड़ा, उसमें इससे अच्छे परिणाम की उम्मीद करना बेमानी होता। जिन सीटों पर भाजपा ने प्रत्याशी दिया था, वहां कहीं भी चुनाव प्रबंधन का कोई नामो-निशान नहीं था। पार्टी के कतिपय पदधारियों और समर्पित कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया जाये, तो हर कोई केवल मोदी के भरोसे था। उम्मीदवारों और पार्टी नेताओं को लगा कि मोदी का नाम और काम ही उनकी राह आसान बना देगा। यहां तक कि उम्मीदवार भी केवल हाथ जोड़ कर मोदी-मोदी कहने तक ही सीमित रहे। यह जानते हुए कि कई सीटों पर स्थानीय मुद्दे हावी हैं, भाजपा को मुश्किल हो सकती है, फिर भी न तो संगठन ने कोई ठोस कदम उठाया और न ही उम्मीदवारों ने इसकी चिंता की। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। आखिर कैसे अति-आत्मविश्वास ने देश भर में भाजपा को नुकसान पहुंचाया, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    देश में लोकसभा चुनाव की जैसे ही घोषणा हुई, भाजपा ने ‘400 पार’ का नारा दे डाला। इस नारे ने एक तरफ भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह के साथ-साथ जोश तो भरा, लेकिन इसी नारे ने जोश में होश खोने वाली कहावत को सिद्ध कर डाला। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही थोड़े कहा है कि जोश में होश नहीं खोना चाहिए। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से लेकर आम कार्यकर्ता तक इसी का शिकार हो गये। एक तरफ तो भाजपा नेताओं को यकीन हो गया था कि वे इस लोकसभा चुनाव में अपने बल पर प्रचंड बहुमत हासिल कर तीसरी बार सत्ता हासिल कर लेंगे और इसी यकीन ने उन्हें और उनके कार्यकर्ताओं को बेपरवाह भी बना दिया। प्रत्याशी और कार्यकर्ता आश्वस्त हो गये कि मोदी के नाम पर वे जीत जायेंगे। सो बैठे रहो, क्या दिक्कत है। बस चेहरा चमकाने के लिए कुछ सभा कर लो, हाथ जोड़ लो और मोदी-मोदी करते रहो। खुद क्या करेंगे, खुद का क्या मुद्दा है, वह पता नहीं। सिर्फ मोदी जी ने ये किया, मोदी जी ने वो किया। मोदी-मोदी करते-करते यह चुनाव ‘मोदी बनाम एंटी मोदी’ हो गया। खुद की साख गायब। जनता को भी लग गया कि वोट या तो मोदी को देना है या मोदी को नहीं देना है। प्रत्याशी कौन है, उससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहा। पीएम मोदी ने भी खुद लोकसभा चुनाव का भार अपने कंधे पर ले लिया। हर तरफ मोदी ही मोदी सुनाई देने लगा। प्रत्याशियों का रोल सिर्फ हाथ जोड़ दरवाजे-दरवाजे जाने का ही रहा। अब कहां-कहां गये, नहीं गये या सो गये, यह वे ही जानें।

    भाजपा अपने बल पर अगर बहुमत हासिल नहीं कर पायी, तो इसका एक कारण नहीं है। अनेकों कारण है। लेकिन एक जो महत्वपूर्ण कारण है, वह है अति आत्मविश्वास। इसका शिकार खुद राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह भी हो गये। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसी मुगालते में रह गये कि वह अकेले दम पर भाजपा को बहुमत का आंकड़ा 272 पार करा लेंगे। मोदी का यह आत्मविश्वास गलत भी नहीं था। भाजपा को जो भी सीटें आयी हैं, उसमें पीएम मोदी का सबसे बड़ा रोल है। या यूं कहें कि अगर भाजपा ने जो 240 सीटें हासिल की हैं, वह सिर्फ और सिर्फ मोदी के दम पर ही हासिल की हैं। मोदी ने अकेले ही इंडी गठबंधन को सीटों के आंकड़ों में परास्त कर दिया। एक फूल ने अकेले ही हसुआ, तीर-धनुष, साइकिल, पंजा, लालटेन, झाड़ू, घास-फूस आदि को बेदम कर दिया। फिर भी इंडी को लग रहा है कि यह उसकी जीत है। तीन चुनाव के बाद भी कांग्रेस 99 पर ही सिमट कर रह गयी, लेकिन तेवर ऐसा, मानो उसने बहुमत हासिल कर लिया हो। लेकिन यह भी सच है कि मोदी की गारंटी के अलावा प्रत्याशी भी अपनी कुछ जिम्मेदारी निभा लेते, तो आंकड़ा कुछ और होता। हालत तो यह थी कि कुछ प्रत्याशी पार्टी की ओर से दिये गये फंड का भी पूरी तरह चुनाव में इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने एक झंडा खरीद कर भी नहीं लगाया।

    शुरूआत ही हो गयी गड़बड़
    खैर मोदी-शाह का आत्मविश्वास कब अति-आत्मविश्वास में तब्दील हो गया, यह उन्हें भी पता नहीं चल पाया। चूंकि उन्हें लगा कि जिस प्रकार से मोदी सरकार ने अपने किये गये वादों को निभाया है, डिलीवरी दी है, उससे जनता में उनके प्रति भरोसा और बढ़ा है और यहीं से जन्म हुआ मोदी की गारंटी का। मोदी की गारंटी में कोई खोट नहीं है। गारंटी तो उनकी पक्की है, लेकिन अपने ही सिपाहियों को कमजोर करके भला कौन सा राजा युद्ध जीत पाया है। जिस हिसाब से इस लोकसभा चुनाव में टिकट का बंटवारा हुआ, उससे मोदी के कई सच्चे सिपाही कमजोर पड़ गये। वे मैदान में उतर ही नहीं पाये। उनके मैदान में उतरने से पहले ही उनके अस्त्र-शस्त्र रखवा लिये गये। जो बरसों से पार्टी के लिए अपनी सेवा दे रहे थे, उनका टिकट कटना कार्यकर्ताओं को निराश कर गया। भाजपा में मोदी के बराबर तो नहीं, लेकिन राज्य स्तर पर लोकप्रियता में जो जनता के बीच अहम स्थान रखते हैं और उनके प्रिय हैं, उन्हें भी इस लोकसभा चुनाव के दौरान कमजोर किया गया। उन्हें उनके हिसाब से खेलने नहीं दिया गया। स्टेडियम तो खचाखच भरा पड़ा था। पिच भी पाटा था, लेकिन अति आत्मविश्वास के कारण उस मैच के कप्तान को टीम प्रबंधन ने मन मुताबिक बल्लेबाज नहीं दिया और नतीजा यह हुआ कि दिल्ली की सत्ता का द्वार खोलने वाला मुख्य मार्ग ही दरक गया।

    आरएसएस की उपेक्षा भी भारी पड़ी
    भाजपा के लिए हर कदम पर ऑक्सीजन का काम करनेवाला आरएसएस भी इस चुनाव के दौरान नदारद ही दिखा। भाजपा ने आरएसएस की उपेक्षा की, जो उसे भारी पड़ गयी। कहते हैं कि आरएसएस चुपचाप काम करता है, लेकिन क्या इस बार आरएसएस सही मायने में साइलेंट तो नहीं रह गया। क्या पार्टी के भीतर का असंतोष ही कहीं भाजपा के जी का जंजाल तो नहीं बन गया।

    ऐसे हुई आरएसएस की उपेक्षा की शुरूआत
    बात तब की है, जब लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था। एक तरफ कांग्रेस अपने तमाम मोदी या भाजपा विरोधी ताकतों को एक मंच पर लाने का प्रयास कर रही थी। कांग्रेस को अंधेरे में एक रोशनी दिखाई पड़ रही थी। उसी रोशनी के सहारे कांग्रेस ने अपना मार्ग प्रशस्त करना शुरू किया। हालांकि यह मार्ग नीतीश कुमार ने दिखाया था, लेकिन वह इसे बीच रास्ते में छोड़ भाजपा के संग हो लिये। फिर भी राहुल गांधी ने हार नहीं मानी और इस रोशनी के सहारे चल दिये एक नया गठबंधन बनाने, जो मोदी या भाजपा का विरोधी था। कई राज्यों में गठबंधन के नेताओं की शर्तों पर कांग्रेस ने समझौता किया। उन्हें बस गठबंधन को जोड़े रखना था। वह इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। वहीं दूसरी तरफ भाजपा अपने आत्मविश्वास के कारण इतनी मुग्ध हो गयी कि उसने अपनी सबसे मजबूत कड़ी या यूं कहें ताकत आरएसएस को न सिर्फ नजरअंदाज किया, बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यहां तक कह डाला कि भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल कर लेगी। उसे आरएसएस की जरूरत नहीं है। आरएसएस वही संगठन है, जिसने भाजपा को दो से 80 तक पहुंचाने और फिर सत्ता का सिरमौर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। एक तरफ तो राहुल गठबंधन को मजबूत कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ भाजपा अपनी जमीन को खुद खोद रही थी। आरएसएस अपने सिद्धांतों पर चलता है और राष्ट्रहित में कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहता है। यह समझ से परे है कि आखिर भाजपा ने किस वोट बैंक की लालच में आरएसएस को अपने से अलग-थलग कर दिया। इसी अति आत्मविश्वास ने भाजपा को कमजोर किया और ‘फील गुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ वाले नतीजों से भाजपा बाल-बाल बची।

    स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर गये प्रत्याशी
    यह सच्चाई है कि कोई भी दल अपने कार्यकर्ता, नेता को टिकट इसी आधार पर देता है कि उसे स्थानीय मुद्दों की समझ है, सामाजिक कार्यों में उसकी सहभागिता है और पार्टी के प्रति उसकी निष्ठा है। टिकट देते समय प्रत्याशी को योग्यता और व्यवहार के पैमाने पर भी आंका जाता है। लेकिन इस लोकसभा चुनाव में तीन दर्जन ऐसी सीटें थीं, जहां भाजपा ने उन लोगों को टिकट दे दिया, जिन्हें भाजपा की नीतियों और सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं था। भाजपा आलाकमान को लगा कि उसका इतना अंडर-करंट है कि वह जिसे भी टिकट दे देगा, वह मैदान मार लेगा। और भाजपा की यही सोच उसे महंगी पड़ गयी। इसका उल्टा असर यह हुआ कि जिन्होंने भाजप में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी, उन्हें उपेक्षित कर दिया गया और उनके ऊपर उन लोगों को तरजीह दी गयी, जो दूसरे दलों से सिर्फ सांसद बनने के लिए भाजपा में आये थे। इस बार यह भी देखा गया कि लगभग भाजपा के सभी प्रत्याशी स्थानीय मुद्दों को तरजीह नहीं दे रहे थे। उनके लिए स्थानीय मुद्दा कोई था ही नहीं। वे सिर्फ मोदी का नाम लेने में व्यस्त थे। अगर उनसे सवाल किया जाता कि आपके क्या मुद्दे हैं, तो सभी एक सुर में मोदी-मोदी और मोदी ही कहते। उन्हें खुद पर कोई भरोसा नहीं था, लेकिन मोदी के नाम के सहारे जीतने का भरोसा जरूर था। उदाहरण के लिए झारखंड के गोड्डा से सांसद हैं निशिकांत दुबे। उन्होंने तो अपने प्रतिदंद्वी के खिलाफ प्रचार करने से भी इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि ये प्रत्याशी हैं, तो अब तो प्रचार करने की जरूरत भी नहीं है। हालांकि वह चुनाव जीत गये, लेकिन यही अति आत्मविश्वास कइयों को ले डूबा।

    योगी को भी कमजोर करने की कोशिश
    जिस उत्तरप्रदेश के भरोसे भाजपा अपनी सफलता का एक तिहाई रास्ता तय कर लेती थी, उस यूपी में भी उसने बहुत खेल किया। शुरू में ही भाजपा के कुछ नेता यह नहीं चाहते थे कि योगी के हाथ में यूपी की कमान सौंपी जाये। यह तो आरएसएस और विहिप के प्रयास का ही प्रतिफल था कि योगी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बन पाये। उन्होंने यूपी को सुधार भी दिया। विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत ले आये। यूपी भाजपा के लिए अभेद्य किला के रूप में स्थापित भी हो गया। उसके बाद भी उनके पर कतरने की पूरी कोशिश होती रही। एक बार तो उन्हें रीप्लेस करने के लिए दिल्ली से एक नेता को भी भेज दिया गया था। अगर उस दौरान भाजपा के कार्यकर्ता एकजुट नहीं होते, तो योगी को यूपी से दिल्ली बुला लिया गया होता। 2019 के चुनाव में भी भाजपा ने यूपी में योगी की पसंद को दरकिनार करते हुए उम्मीदवार थोपे थे। उस बार तो भाजपा सफल हो गयी, लेकिन 2024 के चुनाव में भाजपा के कुछ बड़े नेताओं ने अपनी पसंद और इच्छाएं यूपी में थोप दीं। बात तो यहां तक फैलायी गयी कि लोकसभा चुनाव के बाद योगी को उसी तरह निपटा दिया जायेगा, जिस तरह मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया को निपटाया गया। यूपी की जनता में इसका बहुत ही गहरा असर देखा गया और परिणाम आज सामने है। भाजपा के हाथ से इस बार पूर्वांचल लगभग साफ है। इसका प्रमुख कारण तपे-तपाये कार्यकर्ताओं की जगह स्वनामधन्य नेताओं को टिकट देना रहा। पहले चरण के उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही असंतोष दिखने लगा था, जो अंतिम चरण तक बना रहा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह सच स्वीकार करना होगा कि यूपी में योगी की पकड़ मजबूत है। यही नहीं, सिर्फ यूपी की जनता ही नहीं, देश की जनता उनका सम्मान करती है। मोदी के बाद देश में कोई दूसरा नाम लेता है, तो वह नाम योगी का है। लेकिन इंटरनल पॉलिटिक्स के चलते भाजपा ने अपने सबसे ताकतवर हथियार की धार को कुंद कर देने की कोशिश की। भाजपा को समझ लेना चाहिए कि योगी का रिप्लेसमेंट खुद योगी हैं और कोई नहीं। यकीन नहीं हो, तो एक बार यूपी क्या, देश के कोने-कोने में सर्वे करवा लेना चाहिए।

    झारखंड के खूंटी में अर्जुन मुंडा की हार
    एक उदहारण मात्र से भाजपा के अति आत्मविश्वास का पता चलता है और वह है खूंटी में अर्जुन मुंडा की हार। यह कोई सामान्य घटना नहीं है। सिर्फ आलाकमान को छोड़ पूरे झारखंड को पता था कि अर्जुन मुंडा अगर खूंटी से चुनाव लड़ेंगे, तो हारेंगे। झारखंड की यही एक ऐसी सीट थी, जिस पर एक साल पहले यह स्पष्ट हो गया था कि यहां से अर्जुन मुंडा चुनाव नहीं जीतेंगे। बावजूद इसके, भाजपा ने उन्हें मैदान में उतार दिया। अर्जुन मुंडा वह नेता हैं, जो जनता के बीच में नहीं जाने के कारण जाने जाते रहे। चुनाव से पहले भी अर्जुन मुंडा ने कुर्मी-महतो के बारे में यह बयान देकर अपनी राजनितिक मिट्टी पलीद कर ली कि कुर्मी-महतो को एसटी में शामिल ही नहीं किया जा सकता। देखिये, शामिल करना न करना नीतिगत मामला है, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि ऐसा बयान देकर उन्होंने कुर्मियों को ठेस क्यों पहुंचायी। खूंटी में अर्जुन मुंडा ने भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर दिया। चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी उन्होंने जमशेदपुर के कुछ खास लोगों को सौंपी, जिन्हें अड़की, तोरपा, कोलेबिरा जैसे दुरूह क्षेत्रों की जानकारी ही नहीं थी। उन्हीं लोगों के हाथ में चुनावी खर्च का प्रबंधन भी सौंपा गया। उसका नतीजा यह हुआ कि स्थानीय नेता-कार्यकर्ता अलग-थलग हो गये और उन लोगों ने चुनावी खर्च का कुप्रबंधन कर डाला। अर्जुन मुंडा भी अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए एक जमीन की जरूरत होती है। पूरे पांच साल के कार्यकाल के दौरान खूंटी के सुदूर ग्रामीण इलाकों के लोग अर्जुन मुंडा का दर्शन पाने को तरसते रहे, लेकिन उनका सफर बुंडू और तमाड़ तक ही सिमटा रहा। वह इसलिए कि रांची से उन्हें जमशेदपुर जाना होता है और फिर जमशेदपुर से दिल्ली जाने के लिए रांची एयरपोर्ट आना जरूरी होता है। इसी क्रम में वह तमाड़ और बुंडू में कुछ देर के लिए रुक जाते थे। उन्हें लगता था कि खूंटी लोकसभा का मतलब तमाड़ और बुंडू के सड़क किनारे बसे कुछ घर या परिवार ही हैं। अर्जुन मुंडा की हार कोई सामान्य घटना नहीं है।

    मुद्दों से भटकना और नयापन नहीं
    भाजपा के नेता हों या कार्यकर्ता, सभी खुद को मोदी समझने लगे। ऐसा नहीं है कि विपक्ष अलादीन के चिराग से कोई मुद्दा निकाल कर लाया हो। विपक्ष ने सिर्फ भाजपा के ‘400 पार’ के नारे की काट ढूंढ़ी। उसने बताना शुरू किया कि भाजपा 400 पार इसलिए चाहती है, क्योंकि वह संविधान बदलना चाहती है, आरक्षण छीनना चाहती है। इस जाल में भाजपा फंस गयी। एक समय था, जब विपक्ष के लिए सिर्फ मोदी ही मुद्दा हुआ करते थे, लेकिन इस चुनाव के दौरान वह वक्त भी आया, जब मोदी राहुल द्वारा प्लांट किये गये मुद्दों के बारे में मंच से बोलने लगे। हुआ यह कि राहुल गांधी और विपक्ष द्वारा उठाये गये ये मुद्दे लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बन गये। लोग इस बारे में दबी जुबान से बात करने लगे। ग्रामीण इलाकों में डर समा गया कि भाजपा उनकी जमीन छीन लेगी, उनका आरक्षण रद्द कर देगी, संविधान बदल कर उनका अस्तित्व मिटा देगी। यहीं पर भाजपा के नेता और कार्यकर्ता मात खा गये। वे ग्रामीण इलाकों में लोगों को समझाने में असफल रहे कि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। वे केंद्र सरकार की असली बातों को जनता के जेहन में नहीं डाल पाये। डालते भी कैसे। ग्रामीणों के बीच में गये होते, तब न। उनका दौरा मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों तक ही सीमिति रहा। यहां तो भाजपा का छोटा सा नेता भी खुद को पीएम से कम थोड़े न समझता है। बस दिक्कत यही हो गयी कि भाजपा के नेता हों या कार्यकर्ता, खुद को मोदी समझने लगे। भाजपा के पास तो कई मुद्दे थे, लेकिन किसी नयी कल्याणकारी योजना की चर्चा नहीं हुई। जनता हमेशा इसी आस में रहती है कि नया क्या मिलने वाला है। जो मिल रहा है, वह तो है ही। वहीं इंडी गठबंधन कुछ नया लेकर आया था। एक लाख हर साल गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं को। 25 लाख का मुफ्त इलाज और भी कुछ-कुछ। भले यह जनता को कितना मिलता, यह तो वक्त बताता, लेकिन तीर तो इंडी गठबंधन ने छोड़ दिया ही था। इंडी के इस वायदे ने भाजपा के पिछले वर्ष लागू की गयी कल्याणकारी योजनाओं को धूमिल कर दिया।

    अयोध्या की हार चौंका गयी, लल्लू सिंह के एक बयान ने कांग्रेस को संजीवनी दे डाली
    अगर भाजपा की हार का असली कारण जानना है, तो अयोध्या जाना पड़ेगा। अगर भाजपा अयोध्या हार सकती है, तो हार का मूल बीज भी वहीं छिपा होगा, क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में भाजपा का सबसे बड़ा हथियार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण था। यूपी समेत पूरे देश में ऐसा माना जा रहा था कि इस बार भाजपा पिछली बार की तुलना में और भी शानदार प्रदर्शन करेगी। लेकिन अयोध्या में ही भाजपा हार गयी। यही नहीं मेरठ से रामायण के राम अरुण गोविल भी मुश्किल से चुनाव जीते। किसी को समझ नहीं आया कि भाजपा अयोध्या कैसे हार सकती है। इसके मूल में जाने से पूरा परिदृश्य साफ हो जाता है। अयोध्या से बीजेपी उम्मीदवार लल्लू सिंह का संविधान को लेकर दिया गया बयान भारी पड़ गया। लल्लू सिंह वही नेता हैं, जिन्होंने कहा था कि मोदी सरकार को 400 सीट इसलिए चाहिए, क्योंकि संविधान बदलना है। बस यहीं से कांग्रेस को संजीवनी मिल गयी और इंडी गठबंधन ने संविधान बदलने वाली बात सभाओं में और घर-घर बोलनी शुरू की। फिर क्या था। एक चिंगारी आग में तब्दील हो गयी। लल्लू सिंह के एक बयान का खामियाजा बीजेपी को यूपी समेत पूरे देश में भुगतना पड़ा। भाजपा अगर जीतती, तो कारण सिर्फ एक होता राम मंदिर निर्माण, लेकिन हार के कारण तो कई और गिनाये जा रहे हैं। एक कारण तो यह गिनाया जा रहा है कि राम मंदिर निर्माण के लिए कई घर और दुकान तोड़े गये। अयोध्या में 14 किलोमीटर लंबा रामपथ बनाया गया। इसके अलावा भक्ति पथ और राम जन्मभूमि पथ भी बना। ऐसे में इसकी जद में आने वाले घर और दुकानें टूटीं, लेकिन मुआवजा सभी को नहीं मिल सका। उदाहरण के तौर पर अगर किसी शख्स की 200 साल पुरानी कोई दुकान थी, लेकिन उसके पास कागज नहीं था, तो उसकी दुकान तो तोड़ी गयी, लेकिन मुआवजा नहीं दिया गया। मुआवजा केवल उन्हें मिला, जिनके पास कागज था। ऐसे में लोगों के बीच नाराजगी थी, जिसे उन्होंने वोट न देकर जाहिर किया।

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