प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह एक दिन का तूफानी गुजरात दौरा कर ताबड़तोड़ परियोजनाओं का उद्घाटन किया, उससे एक बार फिर जाहिर हुआ कि भाजपा में अपना गढ़ बचाने की बेचैनी बढ़ गई है। पिछले बीस दिनों में यह प्रधानमंत्री का तीसरा दौरा था। गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित होने वाली हैं। कायदे से हिमाचल प्रदेश चुनावों के साथ ही वहां की भी तारीखें घोषित हो जानी चाहिए थीं, पर ऐसा नहीं हुआ। कयास लगाए जा रहे हैं कि निर्वाचन आयोग पर दबाव बना कर सरकार ने गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें टलवाईं, क्योंकि आचार संहिता लागू हो जाने के बाद परियोजनाओं के उद्घाटन आदि पर विराम लग जाता। रविवार को प्रधानमंत्री ने जिस तरह एक के बाद एक कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया, उससे इस कयास को बल ही मिला। हालांकि इसका लाभ भाजपा को गुजरात चुनावों में कितना मिलेगा, देखने की बात है।
गुजरात में पिछले बीस वर्षों से भाजपा सत्ता में है। मगर इस बार कई वजहों से वहां बदलाव की सुगबुगाहट नजर आने लगी है। स्वाभाविक ही इसके चलते भाजपा में बेचैनी बढ़ी है। भाजपा अभी तक विकासवाद के नारे के साथ गुजरात में अपना जनाधार मजबूत बनाए रखने में कामयाब रही है। पर इस बार स्थितियां कुछ अलग हैं। पाटीदार, दलित और अन्य पिछड़े समुदाय के लोगों में भाजपा से नाराजगी दिखने लगी है। इसलिए इस बार का गुजरात चुनाव विकास के बजाय जातीय समीकरणों पर काफी कुछ निर्भर रहने वाला है। जीएसटी लागू होने के बाद सबसे अधिक विरोध का स्वर सूरत के व्यापारियों की तरफ से उभरा था, इसलिए भाजपा का जनाधार माने जाने वाले व्यापारी वर्ग में भी सेंध लगने की आशंका है। उधर कांग्रेस के प्रति लोगों में सकारात्मक रुझान दिखने लगा है। जिस राहुल गांधी को सबसे कमजोर नेता माना जा रहा था, उनकी रैलियों और भाषणों में लोग दिलचस्पी लेने लगे हैं। इस बीच पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर के कांग्रेस से जुड़ने की खबरों से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया है। हार्दिक पटेल के कांग्रेस के साथ आने की उम्मीद है। जिग्नेश मेवाणी ने भाजपा के विरोध का एलान पहले ही कर रखा है।गुजरात में अब तक के चुनावों का समीकरण यही बताता है कि जिधर पटेल, दलित और अन्य पिछड़ी जातियों का झुकाव होता है, चुनाव में जीत उसी पार्टी की होती है। हालांकि कांग्रेस के साथ जिन युवा नेताओं के जुड़ने के संकेत मिले हैं, उनका विधानसभा चुनाव में अपने समुदाय के लोगों पर कितना प्रभाव पड़ेगा, कहना मुश्किल है, पर इससे भाजपा के माथे पर बल तो पड़े ही हैं। पटेल न सिर्फ आरक्षण के मसले पर भाजपा के खिलाफ नजर आए, बल्कि आनंदीबेन पटेल के बाद उनके समुदाय के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री न बनाए जाने की वजह से अधिक नाराज हैं। दलितों में नाराजगी गोरक्षकों की ज्यादतियों और सरकारी योजनाओं में उपेक्षा के चलते है। इसी तरह अन्य पिछड़ी जातियों में यह भावना घर कर गई है कि भाजपा सिर्फ व्यापारियों-व्यवसायियों के हितों की सोचती है, गरीबों की चिंता उसे नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री फेरी सेवा जैसी योजनाओं-परियोजनाओं-सेवाओं का उद्घाटन और विकास के सपने दिखा कर आम गुजरातियों का मन बदलने में शायद ही कामयाब हो पाएं। इसके लिए भाजपा को जमीनी स्तर पर उतर कर लोगों का भरोसा जीतना होगा, पर इसके लिए उसके पास समय अब बहुत कम है।