विशेष
जिला मुख्यालय से लेकर प्रखंडों तक में यही है हाल
कहीं वाहन की कमी, तो कहीं चालक की तैनाती नहीं
वाहन हैं, भी तो रख-रखाव के अभाव में बेकार पड़े हैं
नियमावली के मकड़जाल में उलझ कर बेकार हो जाता है गंभीर मरीजों का ‘गोल्डन आवर’
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
दो दिन पहले गुमला की एक महिला की एंबुलेंस नहीं मिलने के कारण मौत की खबर प्रकाशित होने के बाद से ही जिले की एंबुलेंस व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गयी है। प्रशासनिक तौर पर एंबुलेंस संचालक एजेंसी के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी कर मामले की लीपा-पोती की कोशिश तो की गयी है, लेकिन यह कोशिश जिले की एंबुलेंस व्यवस्था की बदहाल अवस्था को दुनिया की नजरों से बचा पाने में असफल साबित हुई है। किसी भी स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ मानी जानेवाली एंबुलेंस सेवा की स्थिति वैसे तो पूरे झारखंड में लगभग एक जैसी है, लेकिन गुमला जिले में यह व्यवस्था आइसीयू में ही नहीं, वेंटिलेटर पर पहुंच गयी है। चाहे वह सरकारी 108 एंबुलेंस सेवा हो या फिर अस्पताल प्रबंध समिति की व्यवस्था, आम लोगों को हर जगह से अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। गुमला जिला मुख्यालय से लेकर प्रखंडों तक में एंबुलेंस व्यवस्था की लगभग यही स्थिति है। क्या है गुमला जिले की एंबुलेंस व्यवस्था और क्या हो रहा है इसका परिणाम, बता रहे हैं आजाद सिपाही के गुमला ब्यूरो प्रमुख आफताब अंजुम।
किसी भी स्वास्थ्य सेवा में जहां डॉक्टरों और पारा मेडिकल कर्मियों की अहम भूमिका होती है, वहीं मरीजों को उन तक पहुंचाने के लिए एंबुलेंस भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मरीजों को तत्काल चिकित्सकीय सुविधा प्रदान करने के लिए सबसे सुदृढ़ व्यवस्था एंबुलेंस की मानी जाती है, लेकिन अक्सर इसके महत्व को नजरअंदाज कर दिया जाता है। गुमला जिले में तो एंबुलेंस की सरकारी व्यवस्था बीमार ही नहीं, वेंटिलेटर पर है। ऐसे में मरीजों का जीवन बचाना तो दूर, जीवन बचाने की कल्पना भी बेमानी है। यूं तो झारखंड के सभी जिलों में एंबुलेंस सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है, लेकिन गुमला जिले की एंबुलेंस सेवा पूरी तरह बेपटरी हो चुकी है।
जिला मुख्यालय और 12 प्रखंडों में 17 एंबुलेंस
गुमला के सिविल सर्जन की रिपोर्ट बताती है कि 12 प्रखंडों और जिला मुख्यालय को मिलाकर मात्र 17 एंबुलेंस सिविल सर्जन की देखरेख में संचालित हैं। 108 एंबुलेंस सेवा को संचालित करने का जिम्मा सम्मान फाउंडेशन नामक एजेंसी को दिया गया है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इन 17 में भी दो एंबुलेंस कार्यशील नहीं हैं। यानी 108 कॉल सेंटर से मात्र 15 एंबुलेंस को नियंत्रित किया जा रहा है। इन 15 एंबुलेंस को भी सही ढंग से संचालित करने में यह एजेंसी पूरी तरह फेल साबित हो रही है।
सदर अस्पताल में 10 सरकारी और नौ निजी एंबुलेंस
जिला मुख्यालय में सरकारी चिकित्सकीय सुविधा के नाम पर सदर अस्पताल एकमात्र सहारा है। अस्पताल उपाधीक्षक के अनुसार अस्पताल संचालन समिति के पास कुल 15 एंबुलेंस हैं, जिनमें छह सरकारी और नौ निजी हैं। साथ ही चार एंबुलेंस 108 भी हैं। इन चार में से दो को घाघरा भेजा गया है।
रायडीह में दो में से एक एंबुलेंस ही है चालू
जिला मुख्यालय के सबसे निकटतम प्रखंड रायडीह में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। यहां दो एंबुलेंस तैनात हैं, लेकिन एक ही चालू हालत में है। दूसरा वाहन खराब पड़ा है। चिकित्सा प्रभारी के अनुसार दीपावली तक खराब एंबुलेंस को ठीक करा लिये जाने की उम्मीद है।
पालकोट में राम भरोसे है एंबुलेंस व्यवस्था
पालकोट के सामुदायिक स्वस्थ केंद्र में एंबुलेंस व्यवस्था राम भरोसे चल रही है। स्वास्थ्य केंद्र में दो एंबुलेंस उपलब्ध थी। इनमें एक 108 सेवा की और दूसरी अस्पताल संचालन समिति की है। एक माह पूर्व अंबेराडीह में हुई सड़क दुर्घटना में एक एंबुलेंस शामिल थी, जिसे पालकोट थाना में जब्त कर लिया गया है। बाकी एकमात्र एंबुलेंस की हालत बेहद जर्जर है। यह वाहन लगभग 22 वर्ष पुराना है। इसलिए पालकोट से यदि किसी मरीज को दूसरी जगह रेफर किया जाता है, तो परिजनों को निजी व्यवस्था करनी होती है।
बसिया में तीन में से एक एंबुलेंस खराब
बसिया के रेफरल अस्पताल में कुल तीन एंबुलेंस हैं, जिनमें दो 108 के अंतर्गत संचालित हैं, जबकि एक अन्य अस्पताल संचालन समिति का है। 108 सेवा की एंबुलेंस ठीक है, लेकिन अस्पताल संचालन समिति की एंबुलेंस की हालत जर्जर है।
जारी में नहीं है एक भी एंबुलेंस
जिला मुख्यालय के सबसे दूरस्थ प्रखंडों में से एक अल्बर्ट एक्का जारी प्रखंड में एक भी एंबुलेंस नहीं है। परमवीर अल्बर्ट एक्का के नाम पर बना यह प्रखंड अब भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव झेल रहा है, लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था तो पूरी तरह गायब है।
दिखाने के लिए है कामडारा अस्पताल की एंबुलेंस
कामडारा अस्पताल में दो एंबुलेंस है। इनमें एक 108 सेवा की है और दूसरी अस्पताल प्रबंध समिति की। दोनों एंबुलेंस की स्थिति खराब है। यहां के लोग बताते हैं कि दोनों एंबुलेंस केवल दिखाने के लिए है।
बिशुनपुर में दो एंबुलेंस से नहीं चलता है काम
बिशनपुर में दो एंबुलेंस है। इनमें एक 108 की और एक अस्पताल प्रबंध समिति की। दोनों चालू हालत में हैं, लेकिन इतने बड़े प्रखंड में कम से कम दो और एंबुलेंस की आवश्यकता है। एंबुलेंस नहीं होने के कारण आये दिन मरीजों को निजी वाहनों से सदर अस्पताल तक पहुंचाया जाता है।
घाघरा सीएचसी में एंबुलेंस है, लेकिन चालक नहीं
घाघरा के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की अलग कहानी है। सीएचसी घाघरा में एंबुलेंस तो पांच हैं, लेकिन चालक के अभाव और रख-रखाव की कमी से इनका इस्तेमाल नहीं के बराबर होता है। चिकित्सा प्रभारी डॉ एके एक्का ने बताया कि 108 सेवा के अंतर्गत तीन एंबुलेंस हैं, जो नियमित रूप से मरीजों की सेवा में लगी हुई हैं। शेष पांच की हालत बेहद खराब है। विकास भारती बिशनपुर द्वारा प्रदत्त एंबुलेंस फिलहाल सेवा दे रही है, लेकिन सांसद मद से मिली एंबुलेंस मरम्मत के अभाव में खड़ी है। इसी तरह सरकारी गाड़ी सहित अन्य दो एंबुलेंस भी मरम्मत नहीं होने के कारण बेकार पड़ी हैं। एक और समस्या चालक की कमी है। संस्थाओं से एंबुलेंस तो अस्पताल को मिली हैं, परंतु चालक की व्यवस्था नहीं है। नतीजतन एंबुलेंस होते हुए भी मरीजों को समय पर उसकी सेवा उपलब्ध नहीं हो पाती।
सिसई में आये दिन लगा रहता है एंबुलेंस का टोटा
सिसई के रेफरल अस्पताल में अस्पताल प्रबंध समिति की एक और दो 108 एंबुलेंस हैं। निजी एंबुलेंस एक भी नहीं है। सीएचसी के पास तीन एंबुलेंस होने के बावजूद सिसई वासी बताते हैं कि आये दिन एंबुलेंस का टोटा लगा रहता है।
भरनो में है एक एंबुलेंस 108
भरनो प्रखंड के चक में एक एंबुलेंस 108 मिलने की सूचना है। इसके सहारे मरीजों की सेवा की जाती है।
108 सेवा की नियमावली भी है बड़ी बाधा
एंबुलेंस की 108 सेवा के परिचालन के लिए बनायी गयी नियमावली भी बड़ी बाधा साबित हो रही है। एंबुलेंस 108 के कॉल सेंटर द्वारा बरती गयी लापरवाही अलग मुद्दा है, लेकिन इस एंबुलेंस के संचालन के लिए बनायी गयी नियमावली भी कम नुकसानदेह नहीं है। इस सेवा की नियमावली कहती है कि प्रखंडों से मरीजों को पहले जिला मुख्यालय के सरकारी अस्पताल में ले जाना है। उसके बाद यदि मरीज को रांची रेफर किया जाये, तो जिला मुख्यालय की एंबुलेंस को ही वहां तक जाने का नियम है। कई ऐसे प्रखंड हैं, जहां से जिला मुख्यालय की दूरी रांची की अपेक्षा अधिक है। ऐसे में मरीज को पहले जिला मुख्यालय और फिर रांची तक ले जाने के लिए अतिरिक्त समय लगता है। इसके कारण ईंधन भी अधिक खर्च होता है और अतिरिक्त समय भी लगता है। नियमावली की इस जटिलता के कारण न तो एंबुलेंस चालक कुछ कर पाते हैं और न ही स्वास्थ्य कर्मी। इसका परिणाम यह होता है कि गंभीर अवस्था के मरीज का ‘गोल्डन आवर’ बेकार चला जाता है।