विशेष
कभी खाट, कभी ठेला, कभी बहंगी, तो कभी खुद ही उठाकर मरीजों को अस्पताल ले जाने को मजबूर हैं ग्रामीण
एक महिला प्रसव पीड़ा के दौरान, बहंगी पर अस्पताल जाते दिखती है, तो सवाल उठता है, क्या झारखंड सच में सिल्वर जुबली मनाने वाला है
क्या विकास के लिए 25 साल कम होते हैं, 25 वर्षों का विकास ‘युवा’ तो नहीं लगता, अभी भी ‘नाबालिग’ सा लगता है
गुमला क्षेत्र की एक महिला, सात बार गर्भवती हुई और सातों बार वह अस्पताल बहंगी पर ही गयी, इस व्यवस्था को क्या नाम दें
ऐसा नहीं है कि पूर्व की सरकारों या वर्तमान सरकार ने बेहतर काम नहीं किया है, लेकिन कहीं तो चूक हुई है, जिस पर विचार करना जरूरी है
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में आये दिन ऐसी तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं, जो सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या सच में झारखंड राज्य बने 25 वर्ष हो चुके हैं। क्या 25 वर्ष कोई भी राज्य के विकास के लिए काफी नहीं हैं। क्या 25 वर्ष होने के बाद भी कोई राज्य, महज बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस सकता है। मुद्दे तो कई हैं, लेकिन हाल के दिनों में ऐसी कई तस्वीरें देखने को मिल रही हैं, जो झारखंडवासियों को सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या प्रसव के लिए भी अस्पताल जाना किसी के लिए चुनौती हो सकती है। क्या महज एक प्रसव के लिए एबुलेंस मिलना इतना कठिन हो सकता है। आखिर कभी खाट, कभी ठेला, कभी बहंगी, कभी टांग कर, तो कभी खुद ही उठाकर मरीजों को अस्पताल ले जाने को क्यों मजबूर हैं ग्रामीण। इस सवाल का जवाब तो तलाशना ही पड़ेगा। अगर कहीं समस्या है, तो उसका हल भी होगा। लेकिन हल निकालने के लिए नीयत का होना जरूरी है। झारखंड बने 25 वर्ष होने को हैं। 15 नवंबर को झारखंड 25 वर्ष होने पर सिल्वर जुबली मनायेगा। लेकिन क्या इन 25 वर्षों में विकास के 25 वर्ष हुए हैं। 25 वर्षों का विकास ‘युवा’ तो नहीं लगता। वह अभी भी ‘नाबालिग’ सा लगता है। आये दिन कभी पलामू, कभी गुमला, कभी हजारीबाग, तो कभी सिमडेगा के गांवों, पूर्व से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण झारखंड के कई गांवों से ऐसी तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं, जो झारखंड की स्वास्थ व्यवस्था की पोल खोलती हैं। इन गांवों में स्वास्थ व्यवस्था ग्रामीणों के कंधों के सहारे ही टिकी है। व्यवस्था कभी खाट पर विराजती है, तो कभी ठेले पर, तो कभी बहंगी पर। नसीब अच्छा हुआ तो एंबुलेंस के दर्शन हो जाते हैं। तर्क तो कई दिये जाते रहे हैं कि फलाना गांव में जाने के लिए सड़क नहीं है। पठारी क्षेत्र होने के कारण भी एंबुलेंस नहीं पहुंच पाती। लेकिन क्या इन 25 वर्षों में एक कच्ची सड़क का भी निर्माण नहीं किया जा सकता था। अगर पठारी क्षेत्र है, तो क्या गर्भवती को प्रसव पीड़ा के बाद सही समय पर अस्पताल पहुंचने का हक नहीं है। आखिर क्यों नहीं उन क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था बन पायी है, जिन पर ग्रामीण भरोसा करें, पास के स्वास्थ केंद्रों पर ही उनकी समस्या का निवारण हो पाये। आखिर उन गांवों के केंद्र में तो ऐसी व्यवस्था हो ही सकती है, जहां इमरजेंसी में लोग भरोसा कर पायें कि उनका इलाज पास के ही स्वास्थ केंद्र में सही से हो पायेगा। कम से कम प्रसव की उत्तम व्यवस्था ही स्थापित हो जाती। लेकिन जब एक महिला को प्रसव पीड़ा शुरू होते ही बिना किसी साधन के उसे अस्पताल तक का सफर तय करना पड़ता है, तो सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या सच में झारखंड के 25 वर्ष हो चुके हैं। झारखंड की इसी समस्या के कारण और निदान पर रोशनी डाल रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।
नये-नये नेता वर्ग विशेष का मसीहा बनने को बेचैन
आज झारखंड में कई समस्याएं हैं, लेकिन लोग खुद में लड़ने में व्यस्त हैं। नये-नये नेताओं की उत्पत्ति हो रही है। नये-नये मुद्दे तलाशे जा रहे हैं। सभी किसी न किसी वर्ग विशेष का मसीहा बनना चाहते हैं। अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। पिसती है तो आम जनता, जो इनके बहकावे में आती है। जनता भूल जाती है कि उसकी खुद की समस्याएं कई हैं, उसे ही पहले सुलझा ले।
बहंगी पर गर्भवती महिला
वैसे मामले तो कई हैं, लेकिन हालिया एक मामले का जिक्र करना चाहूंगा, जहां व्यवस्था बहंगी पर सवार होती दिखी। एक महिला है, जो सात बार गर्भवती हुई और सातों बार वह अस्पताल बहंगी पर ही गयी। यह घटना है रायडीह प्रखंड के लाल माटी गांव की। इस गांव की निवासी हैं मुनीता देवी, जिनकी उम्र 30 वर्ष है। उनके पति का नाम करमु कोरबा है। गर्भवती मुनीता देवी को जब प्रसव पीड़ा हुई, तो उसके परिजन बहंगी में ढोकर उसे अस्पताल ले गये। अस्पताल ले जाने के क्रम में महिला को जंगल, पहाड़, पगडंडी और उबड़-खाबड़ रास्ते से होकर जाना पड़ा। घंटों के सफर के बाद परिजन बहंगी लेकर ऊपर खटंगा गांव पहुंचे। इसके बाद उस महिला को एंबुलेंस नसीब हुई। उसे एंबुलेंस से सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र रायडीह लाया गया। वहां महिला ने मंगलवार की रात एक स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया। महिला ने सातवीं कन्या शिशु को जन्म दिया। बुधवार सुबह चार बजे जानकारी देते हुए उस महिला के पति करमु कोरबा ने बताया कि जब पत्नी के पेट में दर्द शुरू हुआ, तो उसने एंबुलेंस को फोन किया। एंबुलेंस ऊपर खटंगा गांव तक ही पहुंच पायी। आगे रास्ता नहीं होने के कारण वहीं रुक गयी। इसके बाद गांव के लोगों के सहयोग से महिला को बहंगी में ढोकर ऊपर खटंगा गांव तक लाया गया। इसके बाद एंबुलेंस से अस्पताल ले जाय गया। पति करमु ने बताया कि पूर्व के उपायुक्त सुशांत गौरव और कर्ण सत्यार्थी लाल माटी गांव पहुंचे थे। वहां मूलभूत सुविधा बहाल करने की बात कही गयी थी। दोनों के स्थानांतरण के बाद मामला लटक गया। सड़क नहीं होने से ग्रामीणों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें पैदल ही ऊपर खटंगा गांव तक जाना पड़ता है। इसके बाद वाहन की व्यवस्था होती है। ग्रामीणों ने कई बार प्रशासन से सड़क की मांग की, लेकिन आज तक सड़क नहीं बन पायी। सड़क नहीं होने से गांव में कई अन्य सुविधा भी नहीं पहुंच पाती है। गांव में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है। गंभीर रूप से बीमार मरीजों को बहंगी से ढोकर ही अस्पताल ले जाना ही एकमात्र विकल्प है। वहीं गांव में सड़क न होने से वहां का विकास कार्य ठप है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या इस समस्या का हल इतना जटिल है कि 25 वर्षों में भी इसका निवारण नहीं हो पाया।
गुमला जिले के गांवों का हाल
गुमला जिला मुख्यालय का सबसे निकटतम प्रखंड है रायडीह। जिला मुख्यालय से रायडीह प्रखंड मुख्यालय की दूरी महज 15 किमी है। जिला मुख्यालय के इतने करीब होने के बावजूद भी यह प्रखंड विकास से कोसों दूर है। आजादी के 78 वर्षों और झारखंड राज्य निर्माण के 25 वर्षों के बाद भी क्षेत्र के ऐसे दर्जनों गांव हैं, जहां के लोग एक कच्ची सड़क से भी महरूम हैं। रायडीह की पीबो पंचायत के लसड़ा बरटोली से फींकपानी और आसरा बेवरा गांव तक आज भी सड़क नहीं है। ये दोनों गांव लसड़ा बरटोली से तीन किलोमीटर की दूरी पर हैं। ग्रामीणों का बरसात में चलना दूभर हो जाता है। इसी पंचायत के लौकी से झटनीटोली की दूरी दो किलोमीटर है, लौकी से गजराकोना की दूरी तीन किलोमीटर, लौकी से केउंदडांड़ की दूरी दो किलोमीटर है। ये सुनने में तो ज्यादा दूर नहीं लगते, लेकिन यहां से होकर बहनेवाली जमगाई नदी इन गांवों को बरसात में टापू बना देती है। यहां के लोग वर्षों से सड़क और एक पुलिया के लिए भी सरकारी योजना की बाट जोह रहे हैं। पीबो पंचायत का ही एक गांव है जमगाई। इस गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर बसा है अंबापानी गांव। यह गांव आज भी पक्की सड़क से जुड़ नहीं सका है। इसी तरह जमगाई से गोंसाई कोना और बिरहोर कॉलोनी भी सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस बिरहोर कॉलोनी में आदिम जनजाति परिवार के लोग निवास करते हैं, जिनके लिए राज्य और केंद्र सरकार के द्वारा अनेकों कल्याणकारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है। करोड़ों रुपये की लागत वाली योजनाएं मिलने के बावजूद अगर ये पीटीवीजी गांव एक पक्की सड़क के लिए भी तरस रहा है, तो यह प्रशासनिक उदासीनता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
इन गावों का हाल देख प्रतीत होता है, मानो जीवन यहीं आकर थम गया हो
इसी प्रकार प्रखंड के सूदूरवर्ती क्षेत्र सुरसांग पंचायत में थाना तो बना दिया गया, लेकिन ठीक थाना के पीछे से एक रास्ता गुजरता है। यूं कहें तो पगडंडी गुजरती है, जो गड़गड़लोंगरा गांव तक जाती है। यह क्षेत्र भी सड़क के लिए तरस रहा है। मंगराटोली से कारीकोना की दूरी है दो किलोमीटर, करंजकुर से तिलैइडांड़ की दूरी तीन किलोमीटर, गीदखोता से सिलंगा की दूरी तीन किलोमीटर, पुरनापानी से बुकागाढ़ा की दूरी दो किलोमीटर, करमटोली से केराडार, करंजकुर से पोढ़ोटोली आदि गांवों में आज तक सड़क नहीं पहुंच पायी है। सिलंगा, बुकागाढ़ा, केराडार आदि गांवों से पालामाढ़ा नदी होकर गुजरती है। ये गांव भी बरसात के मौसम में टापू ही बन जाते हैं। अगर कोई बीमार पड़ जाये, तो उसका भगवान ही मालिक है। अस्पताल पहुंचना तो दूर, इन गांव को पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नसीब नहीं है। इन गावों का हाल देख प्रतीत होता है, मानो जीवन यहीं आकर थम गया हो। रेंगोला गांव में नल-जल की एक बड़ी योजना तो चल रही है, जिस योजना के तहत पांच पंचायत में स्वच्छ जल पहुंचाने का लक्ष्य है। यहां पर करोड़ों रुपये की लागत से पानी सप्लाई के लिए जल मीनार तो तैयार किया जा रहा है, मगर पक्की सड़क नहीं होने से इस योजना को धरातल पर उतारने में कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। मुख्य सड़क से मात्र दो किमी की दूरी पर बसे इस गांव में बरसात का मौसम कठिनाइयों को और बढ़ाता है।
एकमात्र सहारा बहंगी
उपर खटंगा पंचायत का लालमाटी गांव, जहां सरकार के द्वारा कई योजना संचालित हैं, लेकिन वहां भी सड़क नसीब नहीं है। इन क्षेत्रों में सबसे अधिक परेशानी गर्भवती महिलाओं और मरीजों को होती है। जब गर्भवती महिलाओं को तत्काल इलाज की जरूरत पड़ती है या कोई मरीज जब चलने फिरने के काबिल नहीं रह जाता, या किसी वृद्ध को अपने किसी निजी अथवा सरकारी कार्य हेतु प्रखंड मुख्यालय तक आना-जाना पड़ता है, तो उनका एकमात्र सहारा बहंगी है। लोग बांस में रस्सी लगाकर बहंगी बनाते हैं और उसमें गर्भवती या मरीज को बैठा दिया जाता है। फिर उसे अपने कंधों पर ढोकर पक्की सड़क तक लाया जाता है। तब कहीं जाकर पक्की सड़क पर इंतजार कर रही एंबुलेंस या ग्रामीण सड़कों तक चलने वाले वाहन की सुविधा उन्हें नसीब होती है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि बहंगी में लाने के कारण अधिक समय लग जाता है और गंभीर मरीज की स्थिति नाजुक होती जाती है।
अधिकारी दफ्तर पहुंचते भूल जाते हैं ग्रामीणों की समस्या
जब कोई अधिकारी इन गांव का भ्रमण करने आते हैं, तो उन्हें भी इन उबड़-खाबड़ रास्तों में पैदल चलना पड़ता है। बावजूद इसके, जब ये अधिकारी अपनी एसी गाड़ियों में बैठ कर अपने दफ्तरों को लौटते हैं, तो वहां जाते ही ग्रामीणों की तकलीफें भूल जाते हैं या फिर नजरअंदाज कर देते हैं। विकास योजनाओं को लेकर टेंडर लेने वाले संवेदकों को भी काफी परेशानी होती है, क्योंकि विकास कार्य में लगने वाली सामग्री मुख्य सड़क से दो से पांच किलोमीटर तक पहुंचाना एक बड़ी चुनौती होती है। इसके लिए उन्हें काफी संख्या में मजदूर लगाने पड़ते हैं, जिस कारण उन्हें समय और लागत, दोनों को बढ़ाना पड़ता है। कई बड़ी मशीनों वाली गाड़ियां तो कार्यस्थल तक पहुंच भी नहीं पातीं, जिसके कारण कार्य की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। सड़क नहीं होने से सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी कठिनाई का सामने करना पड़ता है। जिन शिक्षकों की ड्यूटी इन गांव में होती है, उन्हें अपने घर से दो घंटे अतिरिक्त समय लेकर चलना पड़ता है। समझा जा सकता है कि शिक्षक पहुंचेंगे कब और पढ़ायेंगे क्या। कई स्थानों पर तो शिक्षक समय पर स्कूल तक नहीं खोल पाते।
जन प्रतिनिधि इन गांवों में जाने का सोचते भी नहीं
रही बात राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों की, तो उन्हें ऐसे गांव में पहुंचने की कभी जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि ये लोग इस तरह के गांव की अगुवाई करने वाले दो-चार युवकों को अपनी टोली में रखते हैं। चुनाव के समय थोड़ी-थोड़ी राशि देकर इन युवकों को अपने पक्ष में वोट देने और दिलाने का ठेका दे दिया जाता है। गांव के ये युवा ग्रामीणों को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा कर अपने पक्ष वाले नेता जी के समर्थन में वोट डलवा देते हैं।
सुदर्शन भगत से लेकर भूषण तिर्की तक का दौर भी देखा है ग्रामीणों ने
गुमला विधानसभा अंतर्गत आने वाले इस प्रखंड के कई गांवों को जनप्रतिनिधियों द्वारा नजरअंदाज किया गया है। विधायकों की बात करें, तो झारखंड बनने के साथ ही भाजपा के सुदर्शन भगत गुमला विधानसभा क्षेत्र के विधायक रहे। सुदर्शन भगत को झारखंड बनने के साथ ही राज्य का शिक्षा मंत्री बनने का अवसर भी प्राप्त हुआ। लेकिन इसका फायदा क्षेत्र की जनता को कितना प्राप्त हुआ, यह वहां की जनता ही बेहतर बताती है। उनके कार्यकाल में इस प्रखंड के उपरोक्त गांवों में कितना ध्यान दिया गया है, ये इन गांवों की मौजूदा तस्वीर बताती है। झारखंड राज्य बनने के बाद पहला चुनाव वर्ष 2005 में हुआ। इस बार जनता ने भाजपा के उम्मीदवार को नकार दिया और झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रत्याशी भूषण तिर्की को विधायक बनाया। लेकिन पांच साल के कार्यकाल में भूषण तिर्की ने इन गांव में बसने वाले ग्रामीणों का हाल तक पूछना जरूरी नहीं समझा। राज्य बनने के बाद दूसरा चुनाव वर्ष 2009 में हुआ। इस बार विधायक बने भाजपा उम्मीदवार कमलेश उरांव। कमलेश उरांव का भी रवैया इन गांवों के प्रति उदासीन ही रहा, गांवों की स्थिति जस की तस रही। वर्ष 2014 में जब विस चुनाव हुआ तो भाजपा ने कमलेश उरांव को नजरअंदाज करते हुए शिवशंकर उरांव को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाया। शिवशंकर उरांव को क्षेत्र की जनता ने विजय श्री दिलायी, लेकिन शिवशंकर उरांव भी इस क्षेत्र के लिए किसी काम के नहीं निकले। शिवशंकर उरांव ने अपना कार्यकाल पूरा किया, मगर रायडीह के इन गांवों की सुध तक नहीं ली अलबत्ता हालत वही रही। विकास के लिए तरसते रहे लोग। फिर वर्ष 2019 में विधानसभा चुनाव हुए। जनता ने एक बार फिर झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रत्याशी भूषण तिर्की पर भरोसा जताया और अपना विधायक चुना। लेकिन 2019 से लेकर 2024 तक इन गांव की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। व्यवस्था तब भी बहंगी पर थी, व्यवस्था आज भी बहंगी पर ही है। हालांकि इस दौरान सड़क छोड़कर कुछ योजनाएं ग्रामीणों को मिली। मगर यह अखबारों में खबर छपने का असर या अधिकारियों को ग्रामीणों द्वारा दिये गये आवेदनों का प्रभाव था। वर्ष 2024 में हुए चुनाव में अपने वोटरों को काफी मनाने के बाद एक बार फिर भूषण तिर्की पर लोगों ने विश्वास करते हुए उन्हें अपना विधायक तो चुन लिया, लेकिन इन गांवों की स्थिति जस की तस बानी हुई है। हैरान करने वाली बात यह है कि गुमला जिले के निवासी भाजपा नेता सुदर्शन भगत पिछले 15 वर्षों तक लगातार क्षेत्र के सांसद रहे। इन्हीं 15 वर्षों में पांच वर्ष आदिवासी मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री रहे, मगर इस आदिवासी बहुल क्षेत्र का कोई विकास नहीं हुआ। वर्तमान में कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत सांसद हैं, अब क्षेत्र की जनता उनकी ओर भी उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। आगे क्या होगा वक्त ही बतायेगा।
(साथ में आफताब अंजुम, सुधाकर और वारिश गुमला से)