करीब 135 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के हाथों से मध्यप्रदेश का शासन फिसल गया है। महज 16 महीने पहले देश भर के कांग्रेसियों में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी जीत ने जो जोश भरा था, वह खत्म होता नजर आ रहा है। भारतीय राजनीति की इस ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने अपने 135 साल पुराने इतिहास में कई झटके खाये हैं और विभाजन का दर्द भी झेला है, लेकिन पिछले छह साल से यह पार्टी संभवत: अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। 2014 के आम आम चुनावों में करारी हार के बाद जब 2018 में तीन राज्यों की सत्ता इसके हाथों में आयी, तो लगा कि पार्टी पटरी पर लौट रही है। लेकिन 2019 के आम चुनाव में एक और करारी हार झेलने के बाद इसका हौसला पस्त सा हो गया। पार्टी पुराने ढर्रे पर लौट गयी। हालांकि महाराष्ट्र और फिर झारखंड में इसने गठबंधन में जुड़कर सत्ता हासिल तो कर ली, लेकिन दूसरे राज्यों में इसकी पकड़ ढीली पड़ने लगी। मध्यप्रदेश की सत्ता से बेदखल होने के बाद एक बार यह सवाल फिर से खड़ा हो गया है कि आखिर कांग्रेस को हो क्या गया है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने से लेकर साढ़े छह दशक तक देश पर शासन करनेवाली इस पार्टी को काठ क्यों मार गया है। मध्यप्रदेश के सियासी घटनाक्रम ने कांग्रेस को अपनी रणनीति पर नये सिरे से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। मध्यप्रदेश का एक संदेश यह भी है कि यदि पार्टी ने स्थानीय नेताओं की उपेक्षा जारी रखी, तो अभी उसे और झटके लगेंगे। कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति, मध्यप्रदेश संकट और इससे पार्टी को मिले सबक का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
आज से 135 साल पहले 28 दिसंबर 1885 को मुंबई में जब एलेन आॅक्टेवियन ह्यूम, दादाभाई नौरोजी और दिनशॉ एडुलजी वाचा ने कांग्रेस की नींव रखी थी, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह पार्टी अगले 125 सालों बाद भी भारतीय राजनीति के केंद्र में रहेगी। इन तीन महान राष्ट्रवादियों ने कांग्रेस की स्थापना किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं की थी, बल्कि उनका लक्ष्य भारत की आजादी था। बाद में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस संगठन को अपने खून-पसीने से सींचा। जिस उद्देश्य को लेकर कांग्रेस की स्थापना की गयी थी, वह 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के साथ ही पूरा हो गया। तब कांग्रेस ने खुद को देश के नवनिर्माण में लगा दिया और बीच के कुछ सालों को छोड़ कर 2014 तक इसने देश पर शासन किया। पार्टी ने इस दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे, झटके खाये, लेकिन वह अपने रास्ते पर चलती रही। यहां तक कि 2014 के आम चुनाव में अब तक की सबसे करारी पराजय झेलने के बावजूद पार्टी ने अपनी पुरानी लीक नहीं छोड़ी। उसके नेतृत्व पर, नीतियों पर और रणनीति पर लगातार सवाल उठते रहे, लेकिन पार्टी के भीतर कुछ नहीं बदला।
साल 2018 के अंत में कांग्रेस को नया जीवन मिला। हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह सत्ता में वापस आयी। तब लगा कि कांग्रेस के पुराने दिन लौट रहे हैं। लेकिन पांच महीने बाद ही 2019 के आम चुनाव में पार्टी को एक बार फिर करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। तब तक पार्टी में बहुत कुछ बदलने का दौर शुरू हुआ था, लेकिन लगातार दो आम चुनावों में हार से कांग्रेस के भीतर खलबली मच गयी। पार्टी के पुराने नेताओं ने इस हार के लिए नयी परिपाटी को जिम्मेदार ठहराया। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि पार्टी नेताओं की नयी पौध मुरझाने लगी। पुराने और बुजुर्ग कांग्रेसी एक बार फिर नेतृत्व की भूमिका में आ गये। इसी संक्रमण ने कांग्रेस का बड़ा नुकसान किया। कांग्रेस की परंपरा रही है कि यह दिल्ली से चलती है और दिल्ली से ही रुकती है। कांग्रेस की नयी पौध ने इसे बदलने का बीड़ा उठाया था, लेकिन यह प्रभावी नहीं हुआ। पार्टी के पुराने लोग भूल गये कि सूचना क्रांति और तकनीकी के इस दौर में पार्टी पुरानी परिपाटी से नहीं चल सकती है। आक्रामक राजनीति के युग में ‘केवल मैं’ से पार्टी का बेड़ा पार नहीं लगाया जा सकता। कांग्रेस आलाकमान द्वारा स्थानीय नेताओं की उपेक्षा की कीमत चुकाने का सिलसिला मध्यप्रदेश से शुरू हुआ है। 17 दिसंबर, 2018 को सत्ता में आये कमलनाथ कांग्रेस के कुनबे को संभाल नहीं सके और उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी।
कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश का सबक जरूरी था। यदि मध्यप्रदेश नहीं हुआ होता, तो कांग्रेस के पुराने नेताओं को पार्टी की नयी पौध के महत्व का अंदाजा नहीं मिल सकता था। ये बुजुर्ग नेता न तो प्रतिभा को समझ सके और न ही नये तौर-तरीकों को। उनके लिए पार्टी का मतलब परिवार और महत्वाकांक्षा है। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि पार्टी का बड़ा तबका, जो नये दौर की राजनीति में विश्वास करता है, अपनी ही पार्टी में बेगाना सा हो गया। मध्यप्रदेश का सियासी घटनाक्रम इसी का एक नतीजा है।
यदि कांग्रेस अब भी नहीं चेतती है, तो उसे और बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। राजस्थान के बाद छत्तीसगढ़ के रास्ते यह संकट दूसरे राज्यों में भी पांव पसार सकता है। झारखंड में हालांकि निकट भविष्य में ऐसा कोई संकट दिखाई नहीं देता, लेकिन राजनीति में कोई ठोस भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं होता। वैसे राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवार उतार कर पार्टी ने अपने घर में ही एक नाराज वर्ग को पैर जमाने का मौका दे दिया है।
कांग्रेस के लिए यह आत्ममंथन का दौर है। पार्टी नेतृत्व को नयी पौध और प्रतिभा को पहचान कर उसे अनुकूल स्थान देना ही होगा। राजनीति का नया दौर परिवार और खानदान से नहीं, काम से चल रहा है। इसमें युवाओं जैसी चपलता, फुर्ती और आक्रामकता जरूरी है। इस नये तौर-तरीकों को कांग्रेस जितनी जल्दी आत्मसात कर लेगी, उसके लंबे जीवन के लिए उतना ही लाभकारी होगा। अन्यथा उसका अस्तित्व धीरे-धीरे इसी तरह सिमटता जायेगा और भारत की यह ग्रैंड ओल्ड पार्टी इतिहास के पन्नों में समा जायेगी।