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    Home»दुनिया»नोटबंदी के समर्थन में कई जिनकी किताब का हवाला देते हैं वे खुद इसे लेकर क्या सोचते हैं?
    दुनिया

    नोटबंदी के समर्थन में कई जिनकी किताब का हवाला देते हैं वे खुद इसे लेकर क्या सोचते हैं?

    sonu kumarBy sonu kumarDecember 3, 2020No Comments8 Mins Read
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    अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के मुख्य अर्थशास्त्री रह चुके और इन दिनों हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे प्रोफेसर केन रोगॉफ को अर्थनीति के सबसे बड़े विचारकों में गिना जाता है. उनकी किताब ‘द कर्स ऑफ कैश’ (नकदी का शाप) के प्रकाशित होने के कुछ ही समय बाद मोदी सरकार ने नोटबंदी का ऐलान कर दिया था. इसका समर्थन करने वाले कई लोगों ने ‘द कर्स ऑफ कैश’ का भी हवाला दिया. केन रोगॉफ ने इसके बाद अपनी किताब में भारत को लेकर कुछ और अंश जोड़े. आइए जानते हैं इनमें उनकी नोटबंदी को लेकर क्या राय थी.

     

    आठ नवंबर, 2016. अमेरिकी जनता डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति पद पर चुन रही थी. उसी दिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय चैनलों पर आए और एक चौंकाने वाली घोषणा कर दी : आज मध्य रात्रि से भारत के दो सबसे अधिक मूल्य – 500 और 1000 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे, यानी अमान्य हो जाएंगे; आपके पास 50 दिन का समय है, इतने में आप पुराने नोटों को बैंकों में जमा कर सकते हैं या इनके बदले नए नोट ले सकते हैं.

    उस वक्त भारत में कुल लेन-देन का तकरीबन 90 फीसदी हिस्सा नकदी में ही चल रहा था और इस नकदी का करीब 86 प्रतिशत हिस्सा 500 और 1000 के नोटों में था. तेज गति से आगे बढ़ रहे 1.30 अरब लोगों के इस देश में मोदी की यह नोटबंदी बेहद नाटकीय और ऐसी आर्थिक घटना थी जिसका दूर-दूर तक असर पहुंचा.

    इस नाटकीयता को और बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की जानकारी देने से पहले अपनी कैबिनेट के सभी सदस्यों के फोन जमा करवा लिए थे. इस कदम का मकसद जनता को आश्वस्त करना था कि मंत्रियों के पास भी इस फैसले के जरिए कोई फायदा उठाने का मौका नहीं था.

    काला धन टैक्स चोरी, अपराध, आतंकवाद और भ्रष्टाचार में इस्तेमाल होता है और इसी काले धन से लड़ाई नरेंद्र मोदी की नोटबंदी का घोषित लक्ष्य था. आत्मविश्वास और साहस से भरा यह कदम उस अर्थव्यवस्था से जुड़ी मानसिकता को क्रांतिकारी तरीके से बदलने के इरादे से उठाया गया जहां 90 फीसदी लेन-देन नकद होता है, दो प्रतिशत से भी कम लोग टैक्स देते हैं और प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार महामारी की तरह फैला है.

    यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने नकदी से जुड़ी उन समस्याओं को तो गिनवाया था जिनका जिक्र ‘कर्स ऑफ कैश’ में है. लेकिन किताब में इससे निपटने की व्यवस्था और रणनीति लागू करने का तरीका काफी अलग है.

    ‘द कर्स ऑफ कैश’ के दूसरे संस्करण में दलील दी गई थी कि उभरते हुए बाजारों को कम नकदी वाली अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ाते समय सावधानी बरतने की जरूरत होती है क्योंकि इनमें बुनियादी वित्तीय ढांचा पूरी तरह से तैयार नहीं होता. इसके अलावा इरादतन और धीरे-धीरे ही इस दिशा में बढ़ने के और भी कारण हैं : धीरे-धीरे आगे बढ़ना एक हद से ज्यादा अफरा-तफरी की स्थिति टालने में मदद करता है और यह संस्थानों के साथ-साथ लोगों को बदलाव के साथ तालमेल बिठाने का वक्त देता है. इस बीच अगर कोई दिक्कत पैदा होती है तो संस्थान इस हालत में रहते हैं कि आसानी से जरूरी सुधार कर सकें.

    दूसरा एक बड़ा अंतर यह था कि भारत में प्रचलित सबसे बड़े मूल्य के नोट अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से ज्यादा मूल्य के नोट नहीं कहे जा सकते. डॉलर में बात करें तो एक साल पहले (2016 में) 1000 के नोट की कीमत 15 डॉलर से भी कम थी. इस लिहाज से 500 रुपये के नोट को बंद करना आम लोगों के लिए बेहद असुविधाजनक साबित हुआ क्योंकि यह नोट बड़ी आबादी के बीच प्रचलित था. इसके मुकाबले अगर अमेरिका में 20 डॉलर के नोट को रद्द किया जाए तो लोगों को उतनी दिक्कत नहीं होगी.

    वहीं भारत में इन नोटों के बदले 2000 का नोट जारी किया गया. जबकि यह काले धन के लेन-देन में पुराने नोटों के मुकाबले ज्यादा सुविधाजनक होगा. भारत में मौजूद काले धन को पकड़ना नोटबंदी का सीधा मकसद था लेकिन हमने ऊपर उन कारणों पर बात की है जिनकी बदौलत व्यावहारिक रूप से यह मुमकिन नहीं है. इसके लिए ज्यादा व्यावहारिक योजना उन तरीकों की खोज करना है जिससे टैक्स से बचने की जुगत भिड़ाने वाले और भ्रष्टाचार या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों के लेन-देन पर लागत बढ़ जाए.

    लेकिन इस सबसे इतर भारत के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती थी और वह यह थी कि नोटबंदी के बाद जितने नोट चलन से बाहर हुए उनकी भरपाई करने के लिए पर्याप्त नोट नहीं थे. ऐसा लगता है कि सरकार को चिंता थी कि कहीं अगर यह खबर फैल गई कि वह नए नोट छाप रही है तो भ्रष्ट तत्वों को अपना काला धन इधर-उधर करने का वक्त मिल जाएगा. वैसे अनुकूल से अनुकूल हालात में भी नोटों को तुरंत वापस लेने से प्रक्रियागत समस्याएं होतीं ही, लेकिन सबसे कड़ी चोट उन लोगों पर हुई जिन्होंने तात्कालिक जरूरतों के लिए नकद पैसा इकट्ठा कर रखा था. यह खास कर कृषि और ग्रामीण क्षेत्र में हुआ जहां लेन-देन लगभग पूरी तरह नकदी पर चलता है. हालांकि आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि यह चोट इतनी बड़ी नहीं थी जितना कि कुछ लोग शुरुआत में मानकर चल रहे थे (नोटबंदी के बाद भी विकास दर 6.5 फीसदी रही जो इससे पहले की तुलना में एक फीसदी की गिरावट थी). लेकिन यह निश्चित रूप से चीजों को कम करके बताने जैसी बात है. इस गिरावट में सिर्फ संगठित क्षेत्र का आंकड़ा शामिल है. असंगठित क्षेत्र – जिसकी कुछ विकसित देशों में भी जीडीपी में हिस्सेदारी 20 से 25 फीसदी होती है – पर इसकी चोट निश्चित रूप से ज्यादा थी.

    केन रोगोफ ने अपनी किताब में जो बात कही थी उसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि उसके बाद से भारत की विकास दर लगातार कम ही होती गई. अगर पिछले साल का आंकड़ा देखें तो यह 4.2 फीसदी ही था.

    रोगोफ के मुताबिक नोटबंदी के तरीके ने जो उथल-पुथल मचाई उसके चलते भारतीय अधिकारियों के पास इतनी क्षमता ही नहीं थी कि वे इस पर ध्यान लगा सकें कि जो पैसा वापस आ रहा है उसमें से कौन सा काला धन है और कौन सा नहीं. इसके बजाय सरकार और बैंकों को जल्द से जल्द अर्थव्यवस्था में नकदी वापस डालने के काम में लगना पड़ा. इस दौरान कोशिशें की गईं कि विशाल और संदिग्ध रकम पर नजर रखी जाए, लेकिन काम के बोझ से दबे बैंकों के लिए इसकी व्यापक तरीके से जांच करना बहुत मुश्किल था.

    केन रोगॉफ अपनी किताब में आगे कहते हैं कि भारतीय अधिकारियों का दावा है कि वे नोटबंदी के बाद बैंकों में जमा रकम के रिकॉर्ड खंगालेंगे और इससे उन्हें अवैध रकम तक पहुंचने का एक दूसरा मौका मिलेगा. क्या इससे कुछ अहम नतीजे हासिल होंगे, यह अभी देखा जाना बाकी है. रोगोफ के इस लिखे को अब तीन साल से ज्यादा बीत चुके हैं और नोटबंदी को चार. इस दौरान आम आदमी की तरह शायद वे लोग भी नोटबंदी के बारे में भूल चुके हैं जो इससे देश के लिए कुछ सकारात्मक हासिल करने का काम कर सकते थे.

    केन रोगॉफ ने अपनी किताब में यह सवाल भी किया है कि ‘क्या नोटबंदी से भारत को दीर्घकालिक फायदे होंगे? जवाब इस पर निर्भर करता है कि काले धन और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जो नीतियां हैं उन्हें सरकार कैसे अमल में लाती है और वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया में तेजी लाने में वह कितनी सफल होती है. उदाहरण के लिए नया वस्तु और सेवा कर टैक्स की व्यवस्था को कुछ आसान बना सकता है…’

    लेकिन जीएसटी को बरतने वालों के अनुभव बताते हैं कि यह शायद अपने वांछित उद्देश्य में सफल नहीं हो सका है. और इसकी वजह से पिछले कुछ समय से राज्य और केंद्र सरकार में भी घमासान चल रहा है.

    नोटबंदी की वजह बताते हुए केन रोगॉफ लिखते हैं कि ‘अर्थशास्त्री कितनी भी आलोचना करें, लेकिन शायद नोटबंदी को भारत में समर्थन मिला है. यह आश्चर्य की भी बात है. भारत एक ऐसा देश है जहां लोग भ्रष्टाचार की इस महामारी से बहुत परेशान हैं और वे इससे लड़ने की सरकार की कोशशों की सराहना करते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस सद्भावना का फायदा उठाएगी और ऐसी नीतियां लागू करेगी जिनसे समय के साथ भ्रष्टाचार और अपराध पर लगाम लगे.’

    क्या सरकार बीते चार सालों में इस सद्भावना का फायदा उठा सकी है? इसका जवाब क्या होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किससे पूछा जा रहा है. इसका सही जवाब केवल वह व्यक्ति ही दे सकता है जो नरेंद्र मोदी और भाजपा का समर्थक या विरोधी नहीं होगा.

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    sonu kumar

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