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    Home»विशेष»जब अपनों की लड़ाई में बागियों के कब्जे में चली गयी पार्टी
    विशेष

    जब अपनों की लड़ाई में बागियों के कब्जे में चली गयी पार्टी

    azad sipahiBy azad sipahiJune 27, 2022No Comments9 Mins Read
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    सियासत: भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के भीतर बगावत के मशहूर किस्से

    इन दिनों महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट पर पूरे देश की निगाहें जमी हुई हैं, लोगों के मन में सबसे बड़ा सवाल यह कौंध रहा है कि क्या बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना अब उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के कब्जे से बाहर हो जायेगी और एकनाथ शिंदे इसके नये नायक होंगे। हालांकि यह पहली बार नहीं है कि शिवसेना में बगावत का स्वर बुलंद हुआ है, लेकिन कभी बाल ठाकरे के बिना इस संगठन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की गयी। बाला साहेब के दुलरूवा रहे राज ठाकरे ने भी उद्धव ठाकरे को दरकिनार कर शिवसेना पर कब्जे की कोशिश की थी, लेकिन कामयाब नहीं हो सके। लेकिन यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि शिवसेना अकेला ऐसा राजनीतिक संगठन नहीं है, जिसमें बगावत हुई या हो रही है। भारत के राजनीतिक दलों का इतिहास बताता है कि कांग्रेस और दूसरे दल भी ऐसी बगावतों का सामना कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश बगावतों का नतीजा या तो पार्टी में विभाजन के रूप में सामने आया या फिर पार्टी परिवार से बाहर चली गयी। पारिवारिक और वंशवादी राजनीति का यह एक दिलचस्प पहलू हो सकता है और इन बगावतों की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। ऐसे पांच बगावतों की कहानी बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    महाराष्ट्र में सियासी घमासान जारी है। संकट सरकार पर तो है ही, शिवसेना के अस्तित्व पर भी है। इस बगावत से इस बात के भी कयास लगाये जा रहे हैं कि क्या शिवसेना अब ठाकरे परिवार के साये से बाहर निकल जायेगी? जिस शिवसेना को उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब ठाकरे ने बनाया, अपने खून-पसीने से सींचा और जिसके लिए उन्होंने सत्ता तक को जूते की नोंक पर रखा, जिस शिवसेना में पहले बाला साहेब और फिर उद्धव ठाकरे ही पार्टी प्रधान रहे, क्या अब कोई गैर-ठाकरे इसका प्रमुख बनेगा? इन सभी सवालों के जवाब आनेवाले कुछ दिनों में मिल जायेंगे। लेकिन भारत का राजनीतिक इतिहास बताता है कि किसी पार्टी में इस तरह की बगावत पहली बार नहीं हो रही है। पहले भी कई पार्टियों पर कब्जे को लेकर बगावतें हो चुकी हैं। यहां तक कि एक राज्य में तो पार्टी बनाने वाले नेता को मुख्यमंत्री रहते हुए अपने ही लोगों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। मुख्यमंत्री पद के साथ ही जो पार्टी उन्होंने बनायी, वह भी उनके हाथ से चली गयी। भारत का राजनीतिक इतिहास इस तरह के किस्सों से भरा हुआ है। लेकिन सबसे मशहूर पांच किस्से हैं।

    1. कांग्रेस: इंदिरा गांधी की सिंडिकेट से बगावत की कहानी
    पंडित जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कई दिग्गज नेता हार गये थे। कांग्रेस साधारण बहुमत के साथ सत्ता में आयी। सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी अपने लोगों को संगठन में शामिल करना चाहती थीं, लेकिन पार्टी के पुराने दिग्गज उनकी कोशिशों को सफल नहीं होने दे रहे थे। इनमें पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा, पूर्व अध्यक्ष के कामराज, मोरारजी देसाई, अतुल्य घोष, सदोबा पाटिल, नीलम संजीव रेड्डी जैसे कांग्रेसी शामिल थे। 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस की कलह खुल कर सामने आ गयी। इंदिरा की बगावत की वजह से राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार को हार का मुंह देखना पड़ा और वीवी गिरि राष्ट्रपति चुने गये। कांग्रेस के भीतर संघर्ष बढ़ा, तो पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बर्खास्त कर दिया।
    महज दो साल में ही इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गयी। इंदिरा ने वाम दलों के समर्थन से अल्पमत सरकार चलायी। इस दौरान उन्होंने कांग्रेस को ही दो टुकड़ों में बांट दिया। फिर 1971 के चुनाव में पुराने बुजुर्ग नेताओं की कांग्रेस (ओ) और इंदिरा की कांग्रेस (आर) चुनाव में आमने-सामने थी। कांग्रेस (ओ) में ज्यादातर वही लोग थे, जो नेहरू के करीबी हुआ करते थे और इंदिरा जिनके लिए बेटी जैसी थीं। इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली पार्टी का चुनाव चिह्न ‘गाय का दूध पीता बछड़ा’ था। यह पहली बार था, जब कांग्रेस गाय-बछड़े के चुनाव चिह्न पर लोकसभा चुनाव लड़ रही थी। इंदिरा की कांग्रेस को न सिर्फ जीत मिली, बल्कि पार्टी पर पूरी तरह से उनका कब्जा हो गया।

    2. अन्नाद्रमुक: जब विधानसभा में हुआ था लाठीचार्ज
    बात 1987 की है। उस वक्त तमिलनाडु में आॅल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम सत्ता में थी। एमजी रामचंद्रन मुख्यमंत्री थे। 24 दिसंबर 1987 को रामचंद्रन का निधन हो गया। उनके निधन के साथ अन्नाद्रमुक के दो गुटों में पार्टी पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हो गया। एक गुट का नेतृत्व एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन कर रही थीं। वहीं, दूसरे गुट की नेता पार्टी की सचिव जयललिता थीं। पार्टी के धड़े ने जानकी को पार्टी महासचिव चुन लिया, तो जयललिता धड़े ने कार्यकारी मुख्यमंत्री नेदुनचेरियन को पार्टी का महासचिव चुन लिया। दोनों गुटों की ओर से एक-दूसरे पर पुलिस केस तक हुए। दोनों धड़ों ने राज्यपाल के सामने अपने-अपने दावे पेश किये। राज्यपाल ने जानकी रामचंद्रन को सरकार बनाने का न्योता दिया। जयललिता ने आरोप लगाया कि पूरे प्रदेश में उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया है। जयललिता समर्थक 30 विधायक इंदौर के होटल में शिफ्ट कर दिये गये। यहां से इन विधायकों को मुंबई में शिवसेना के एक नेता के होटल में शिफ्ट किया गया। यह ड्रामा इतना चला कि जयललिता ने अपनी हत्या की साजिश रचने का आरोप तक लगाया।
    शिकायत लेकर वह तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण और प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक भी गयीं। 28 जनवरी 1988 को जब जानकी सरकार को सदन में बहुमत साबित करना था, उस दिन विधानसभा में जम कर हिंसा हुई। पुलिस ने सदन के अंदर लाठीचार्ज तक किया। नतीजा यह रहा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। तीन हफ्ते पुरानी जानकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। राज्य में नये सिरे से चुनाव हुए, तो जयललिता गुट को 27 सीटें मिलीं। राज्य में एम करुणानिधि की द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) की सरकार बनी और जयललिता नेता प्रतिपक्ष बनीं। फरवरी 1989 में दोनों धड़ों का विलय हो गया और जयललिता पार्टी की नेता बनीं। पार्टी का चुनाव चिह्न भी उनके पास आया। इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को राज्य की 40 में से 39 सीटों पर जीत मिली थी। जयललिता के निधन के बाद भी इसी तरह का संघर्ष पार्टी में देखा गया।

    3. तेलुगू देशम पार्टी: अपने ही परिवार की बगावत में हारा सुपरस्टार
    1982 में तेलुगू सुपरस्टार एनटी रामाराव ने तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) का गठन किया। पार्टी में कलह और गुटबाजी की शुरूआत 1993 में हुई, जब एनटीआर ने लक्ष्मी पार्वती से शादी की। कहा जाता है कि एनटीआर पर्वती को टीडीपी का नेतृत्व संभालने के लिए तैयार कर रहे थे। एनटीआर के इस फैसले का पार्टी में विरोध शुरू हो गया। 1994 में हुए चुनाव के बाद टीडीपी ने वामदलों के साथ गठबंधन सरकार बनायी। उस वक्त तक गुटबाजी बहुत बढ़ चुकी थी। 1995 में एनटीआर को अपने दामाद और पार्टी के कद्दावर नेता एन चंद्रबाबू नायडू का विद्रोह झेलना पड़ा। टीडीपी के ज्यादातर सदस्य नायडू के साथ थे। इनमें एनटीआर के बेटे भी शामिल थे। सितंबर आते-आते एनटीआर के हाथ से सत्ता और पार्टी दोनों निकल गयी। 1 सितंबर 1995 को चंद्रबाबू नायडू पार्टी के नेता बने। उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। वहीं, एनटीआर के धड़े को टीडीपी (एनटीआर) के नाम से जाना गया। 1996 में एनटीआर का निधन हो गया। एनटीआर की दूसरी पत्नी पार्वती टीडीपी (एनटीआर) की नेता बनीं। धीरे-धीरे इस पार्टी का अस्तित्व समाप्त हो गया और पार्वती कांग्रेस में शामिल हो गयीं। इस वक्त पार्वती वाइएसआर कांग्रेस की नेता हैं। दूसरी ओर टीडीपी को 1999 के विधानसभा चुनाव में फिर से जीत मिली। चंद्रबाबू नायडू लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।

    4. समाजवादी पार्टी: अखिलेश की बगावत और पार्टी पर कब्जे की कहानी
    बात 2016 की है। उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव को चंद महीने बचे थे। राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार में मंत्री और चाचा शिवपाल यादव ने अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। विवाद बढ़ा गायत्री प्रजापति को मंत्री पद से हटाये जाने के बाद। प्रजापति को हटाने का अखिलेश का फैसला मुलायम और शिवपाल को नागवार गुजरा। मुलायम ने प्रजापति को फिर से मंत्री बनाने के लिए कहा, लेकिन अखिलेश ने ऐसा करने से मना कर दिया। अखिलेश के फैसले के बाद मुलायम ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर शिवपाल को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। इससे सत्ता और संगठन के बीच विवाद और बढ़ गया और अखिलेश ने शिवपाल को अपने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया। जवाब में अखिलेश के कई करीबियों को पार्टी से बाहर कर दिया गया। यहां तक कि पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी भी पार्टी से बाहर कर दिये गये। इस कार्रवाई से भड़के अखिलेश ने इस पूरी कलह के पीछे अमर सिंह का हाथ बताया। विवाद इतना बढ़ा कि मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव और अपने बेटे अखिलेश यादव को पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव ने पार्टी का अधिवेशन बुलाया, जिसमें पार्टी के अधिकतर दिग्गज आये। विद्रोही गुट के इस अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव की जगह अखिलेश यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिये गये। शिवपाल की जगह नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा। अखिलेश के पक्ष में पार्टी के ज्यादातर प्रतिनिधि थे। शिवपाल खेमे में सिर्फ दर्जन भर नेता ही रह गये। चुनाव आयोग ने समाजवादी पार्टी पर हक का फैसला अखिलेश के पक्ष में किया। इसके बाद शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनायी।

    5. लोजपा: जब चाचा की बगावत ने भतीजे के हाथ से पार्टी छीनी
    रामविलास पासवान ने राजद और जदयू से अलग होकर अपनी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) बनायी। पासवान खुद केंद्र की राजनीति में सक्रिय थे, जबकि उनके छोटे भाई पशुपति पारस बिहार प्रदेश अध्यक्ष थे। रामविलास बीमार पड़े, तो उनके पुत्र चिराग ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली। चिराग ने चाचा पशुपति पारस के हाथ से बिहार की बागडोर छीन ली। इसी के बाद दोनों के बीच की खाई बढ़ने लगी। राम विलास के निधन के बाद वर्चस्व की जंग तेज हो गयी। बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में चिराग ने अकेले उतरने का फैसला किया। पशुपति पारस ने इसका विरोध किया। चुनाव में चिराग बुरी तरह से असफल रहे। इसके बाद यह बगावत और बढ़ गयी। जून 2021 आते-आते पशुपति पारस ने पार्टी के छह में से पांच सांसदों को अपने साथ मिला कर चिराग से संसदीय दल के नेता का पद और पार्टी की कमान दोनों ही छीन ली। पशुपति पारस अब केंद्र में मंत्री हैं। लोजपा का नाम पशुपति पारस गुट को मिला। वहीं, चिराग अब लोजपा (रामविलास) के नेता हैं।

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