चुनाव से पहले लगभग हरेक पार्टी के लिए टिकट का बंटवारा विकट परिस्थितियां उत्पन्न करता है। ऐसे नेता, जो पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों से इतर सिर्फ टिकट की आस में पार्टी में रहते हैं, टिकट के बंटवारे की घोषणा होते ही अपना नाम इस सूची से गायब देखकर पाला बदल लेते हैं और दूसरी पार्टियों की नैया में सवार हो जाते हैं। पर जो नेता अवसरवादी नहीं होते वे पार्टी के निर्णय को सर्वोपरि मानकर पार्टी में रह जाते हैं। आसन्न विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने अपने 10 विधायकों, शिवशंकर उरांव, विमला प्रधान, राधाकृष्ण किशोर, हरेकृष्ण सिंह, फूलचंद मंडल, जयप्रकाश सिंह भोक्ता, ताला मरांडी, गणेश गंझू, लक्ष्मण टुडू और गंगोत्री कुजूर का टिकट काट दिया है। इसके बाद तीन विधायक राधाकृष्ण किशोर, फूलचंद मंडल और ताला मरांडी बागी रुख अख्तियार कर चुके हैं और उन्होंने दूसरे दलों से चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर दी है। उनके अलावा दो विधायकों, कांके के डॉ जीतू चरण राम का टिकट पार्टी ने अब तक रोक रखा है। इसके कारण सरयू राय बगावत पर उतर आये हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री रघुवर दास और जमशेदपुर पश्चिमी से निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। कई अन्य नेता, जो टिकट की आस में पार्टी में थे, वे इसकी संभावना खत्म होते देख दूसरे दलों में जा चुके हैं। ऐसी स्थिति ने भाजपा के समक्ष आत्ममंथन का अवसर पैदा किया है। यह पार्टी के केंद्रीय और राज्य नेतृत्व के लिए सबक है। यह चेतावनी है कि वह जब भी किसी नेता को पार्टी में शामिल कराये, तो वह अवसरवादी है कि नहीं और उसकी निष्ठा पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों के प्रति है कि नहीं, इसका ध्यान रखे। भाजपा में बागी नेताओं की सियासत के बहाने पार्टी के लिए आत्ममंथन की जरूरत और भविष्य में ठोक-बजाकर दूसरे दलों से आये नेताओं को पार्टी में शामिल कराने की अहमियत पर बल देती दयानंद राय की रिपोर्ट।