विष्णु खरे: ओम पुरी मार्मिक और भावनापूर्ण भूमिकाएं खूब निभा लेते थे लेकिन उन्हें कोई भी सिर्फ एक ट्रैजिक अभिनेता नहीं मानता था, वह खुद भी नहीं। इसलिए यह एक भारी विडंबना और विरोधाभास है कि उनकी असामयिक और विवाद तथा उलझन-भरी मृत्यु के बाद उनके निजी जीवन के बारे में जो कहा-लिखा जा रहा है, उससे एक त्रासद कहानी उभर कर आ रही है। दो महिलाएं उनकी जिंदगी में पत्नियां बन कर आयीं, पहली पत्नी सीमा कपूर के साथ उनका विवाह कुछ महीने (1990-91) ही निभ पाया, दूसरी, पेशे से पत्रकार, नंदिता पुरी (1993-2013) के साथ भी शायद उनके संबंध कभी सहज नहीं रहे, जिसका एंटी-क्लाइमेक्स नंदिता पुरी द्वारा अंग्रेजी में लिखित उनकी जीवनी अन्लाइकली हीरो : द स्टोरी आॅफ ओम पुरी (2009) के प्रकाशन के बाद आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले में घरेलू हिंसा (डोमेस्टिक वायलेंस) के अदालती इल्जामों तक पहुंचकर 2013 में कानूनी अलगाव (जुडिशल सेपरेशन) में हुआ। नंदिता पुरी से ओम पुरी का एक 19 वर्षीय बेटा ईशान भी है, जो किसी असामान्य कठिन रोग से पीड़ित बताया जाता है।
ओम पुरी की मृत्यु फिर यह शाश्वत प्रश्न उठाती है कि कलाकार की सार्वजनिक कला और उसके निजी मनोविज्ञान और जीवन के बीच के जटिल संबंधों को कैसे समझा जाए। ओम पुरी का कद दरमियाना था, सादा लेकिन चेचकरू चेहरा, जिसे भारी मेक-अप के नीचे छिपाने या प्लास्टिक सर्जरी करवाने की कोई कोशिश नहीं। अलबत्ता भावनाओं को शक्ल-ओ-सूरत की एक-एक लकीर और सिलवट से अभिव्यक्ति देने की प्रतिभा, बदन की हर हरकत पर नियंत्रण, साथ ही शिथिल छोड़ देने की क्षमता और इस सब के साथ एक ऐसी आरी-जैसी तीखी, गहरी, गूंजती बैरिटोन आवाज जो अमरीश पुरी, रजा मुराद और अमिताभ बच्चन को चुनौती दे। ओम पुरी पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट और नैशनल स्कूल आॅफ ड्रामा, दिल्ली, की दुहरी भट्ठी में तपे-ढले हुए भारतीय प्रणाली-शैली, मेथड स्कूल के फौलादी ऐक्टर थे। उनका प्रारंभिक जीवन भी बहुत कठिनाइयों में बीता था।
वह अपनी निजी सच्चाइयां जानते थे और अपनी जन्मस्थली अम्बाला से हीरो नहीं, बड़े, सार्थक अभिनेता बनने निकले थे। 1970 के उस दशक में सिर्फ हिंदी में ही नहीं, दूसरी भारतीय जुबानों में भी नये सोच, रुझान और सर्जनात्मक सूझ-बूझ वाले अभिनेता-अभिनेत्री, लेखक-नाटककार और निमार्ता-निर्देशक नाटक, टेलिविजन और सिनेमा में सक्रिय हो रहे थे। वह भारतीय फिल्मों में एक ऐतिहासिक बदलाव का समय था, जिसमें ओम पुरी जैसे अनायक (एंटि-हीरो) की बहुत दरकार, गुंजाइश और कद्र थी। ओम पुरी की प्रतिभा को 1976 में ही राष्ट्रीय स्तर पर असाधारण ढंग से तब पहचाना गया जब उन जैसे अभिनेता को, जिसकी भाषा हिंदी भी नहीं थी, मराठी के शीर्षस्थ नाटककार विजय तेंदुलकर के मूल कालजयी नाटक पर आधारित फिल्म घाशीराम कोतवाल के कुख्यात नायक की जोखिम-भरी भूमिका दे दी गयी।
फिल्म और उसमें ओम दोनों सफल रहे और भवनी भवई, सद्गति (प्रेमचंद की कहानी पर आधारित, जिसमें सत्यजित राय ने उन्हें दलित नायक की भूमिका देकर सम्मानित किया), अर्धसत्य, जिसमें पुलिस अफसर की उनकी भूमिका अविस्मरणीय है, साथ में मिर्च मसाला, जो सामंती युग की पृष्ठभूमि पर शायद पहली सामूहिक नारीवादी फिल्म है, जिसमें ओम ने एक बूढ़े किंतु ईमानदार और निर्भीक चौकीदार का अत्यंत यथार्थ चित्रण किया है, आदि के बाद वह सर्वसम्मति से सारे भारत में एक अद्वितीय अभिनेता मान लिए गये। ओम पुरी ने स्वयं को दलित, आदिवासी या विद्रोही पुलिसवाले के एक ढर्रे या सांचे के किरदारों तक सीमित नहीं रखा और न ही उन्होंने केवल कथित समांतर सिनेमा को अपनी शरणस्थली बनाया। वह सिर्फ गोविंद निहालाणी-श्याम बेनेगल की हिंदी न्यू वेव फिल्मशाला के प्रशिक्षु बन कर नहीं रह गये। शायद इसमें उन्होंने अपने से अधिक सफल वरिष्ठ अमरीश पुरी से कोई सबक लिया हो।
माचिस, ह्यनरसिम्हाह्ण, ह्यआस्थाह्ण, ह्यमकबूलह्ण, ह्यचाची 420ह्ण, ह्यहेराफेरीह्ण, ह्यचोर मचाए शोरह्ण, ह्यमालामाल वीकलीह्ण, ह्यदबंगह्ण, ह्यबजरंगी भाईजानह्ण, ह्यसिंग इज किंगह्ण आदि सरीखी बॉक्स-आॅफिस पर ह्यमकबूलह्ण, ह्यमुख्यधाराह्ण फिल्मों में कामयाबी और समर्पण से काम करने से उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया। इससे शायद उन्होंने कथित ह्यगंभीरह्ण और ह्यहिटह्ण फिल्मों के बीच एक पुल बन्ने-बनाने में भी मदद की हो। यह उनके ह्यप्रफेशनलिज्मह्ण का भी सुबूत है। बड़े परदे पर अपने विशिष्ट, ह्यअनगढ़ह्ण चेहरे-मोहरे, नश्तर-जैसी आवाज और अदाकारी की वजह से अनायास ही ह्यसीनह्ण के केंद्र में आ जाते थे। वह केवल गंभीर अदाकारी के कैदी नहीं थेझ्र स्वाभाविक रूप से हास्य-भूमिकाएं भी निभा ले जाते थे। उनकी प्रारंभिक फिल्म ह्यजाने भी दो यारोह्ण इसका सुबूत है। वह नियमित रूप से दोनों किस्म की फिल्मों में दोनों तरह के किरदार निभाते रहे। उन्हें अर्ध-खलनायक, नीम-जरायमपेशा चरित्र भी मिलते रहे। उनका चेहरा सर अलेक गिनेस सरीखा सादा न था लेकिन वह हर अलग पात्र में खुद को इस तरह ढाल लेते थे कि दर्शक एक खास चेहरे और विशिष्ट आवाज वाले ह्यओम पुरीह्ण को भूल जाता था और परदे पर दिखाए जा रहे किरदार में खो जाता था।
यह कोई संयोग नहीं है कि उन्होंने दो सौ से अधिक फिल्मों में काम किया। वह कभी बेकार नहीं रहेझ्र मृत्यु की शाम को भी वह एक शूटिंग से लौटे थे। उनकी इस लोकप्रियता के कई निजी और कलात्मक आयाम थे। उन्होंने कई भारतीय भाषाओं की फिल्मों में तो काम किया ही, यह वैश्विक स्तर पर उनकी अभिनय-क्षमता की स्वीकृति का प्रमाण है कि बहुत पहले से उन्हें ह्यगांधीह्ण, ह्यसिटी आॅफ जॉयह्ण, ह्यमाइ सन दि फैनैटिकह्ण, ह्यईस्ट इज ईस्टह्ण, ह्यदि पैरोल आॅफिसरह्ण, ह्यवुल्फह्ण, ह्यदि गोस्ट एंड द डार्कनैसह्ण, ह्यचार्ली विल्संस वॉरह्ण और 2014 की हेलेन मिरेन (ओम पुरी ने पहली बार उनसे मिलने पर मसखरी करते हुए उनके सामने दोजानू होकर ह्ययोर हाइनेस, आइ एम योर स्लेवह्ण कहा था) के साथ की गई सफल फिल्म ह्यए हंड्रेड फुट जर्नीह्ण जैसी ब्रिटिश और हॉलिवुड फिल्मों में हास्य और गंभीर दोनों किस्म की प्रमुख भूमिकाएं मिलीं। ओम पुरी को लगभग नियमित रूप से राष्ट्रीय-विदेशी अभिनय-सम्मान मिलते रहे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ह्यआॅर्डर आॅफ द ब्रिटिश एम्पायरह्ण पदवी से और भारत ने ह्यपद्मश्रीह्ण से सम्मानित किया।
राजनीतिक रूप से उन्हें प्रतिबद्ध और धर्म-निरपेक्ष ही माना जाएगा। हाल ही में उन्होंने पाकिस्तान में अपनी पहली फिल्म ह्यऐक्टर इन लॉह्ण खत्म की थी जो रफाकत मिर्जा द्वारा निर्देशित एक कॉमेडी है, जिसकी अब विश्वव्यापी दक्षिण एशियाई बिरादरी में बहुत उत्सुक प्रतीक्षा रहेगी। महत्वपूर्ण यह है कि ओम पुरी बहुत सफलतापूर्वक टेलिविजन पर भी आते रहे। एक ओर तो उन्होंने मनोहर श्याम जोशी के सीरियल ह्यकक्काजी कहिनह्ण में श्रीलाल शुक्ल के जुगाड़ू कक्काजी को अमर कर दिया तो दूसरी ओर एक हिंदू दलित शरणार्थी के रूप में अपनी संजीदा, त्रासद उपस्थिति से उन्होंने भीष्म साहनी के ऐतिहासिक विभाजन-क्लासिक ह्यतमसह्ण को करोड़ों राष्ट्रीय दर्शकों की चेतना में हमेशा के लिए स्थापित किया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि साहित्य के व्यापक प्रचार-प्रसार, पहचान और स्वीकृति के लिए हमें टीवी, सिनेमा और ओम पुरी जैसे श्रेष्ठ अभिनेता चाहिए।
उन्होंने सिनेमा को बेहतर बनाया। वह ऐक्टिंग की अनूठी पाठ्य-पुस्तक थे। वह निपट अकेले रह रहे थे। अभी उनकी कुछ देशी-विदेशी फिल्मों की शूटिंग चल रही थी, जिनमें शायद उनके रोल पूरे हो गए हों। लेकिन आजकल छासठ वर्ष, विशेषत: फिल्मों में, कोई उम्र नहीं होती। ओम पुरी की जिंदगी की फिल्म का प्रोजेक्शन इस तरह बीच में नहीं टूटना चाहिए था। उनके प्रशंसकों की तिश्नगी अभी मिटी न थी। लेकिन शुक्र है कि दक्षिण एशियाई और विश्व-सिनेमा के पास उनकी इतनी यादगार फिल्में हैं, जो उनकी कालजयी उपस्थिति से बड़े और छोटे परदे को लम्बे अर्से तक जीवंत रखेंगी।