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    Home»लाइफस्टाइल»ब्लॉग»कर्मठ पत्रकार या मोम के पुतले
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    कर्मठ पत्रकार या मोम के पुतले

    आजाद सिपाहीBy आजाद सिपाहीJanuary 17, 2017No Comments3 Mins Read
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    विनय जायसवाल: मुझे वह दिन कभी नहीं भूलता जब इलाहाबाद के हिंदू हॉस्टल में एक दिन हिंदी के एक बड़े अखबार के स्थानीय संपादक अचानक मुझसे मिलने चले आये। पहले तो मुझे समझ में ही नहीं आया, लेकिन जब उन्होंने बताया कि वह करीब दो साल से मेरे संपादक के नाम पत्र पढ़ रहे हैं और मेरा लेखन उन्हें पसंद आ रहा है, तो जैसे लगा कि मैं कोई चमत्कार ही देख रहा हूं। मुझे एकबारगी खुद पर विश्वास नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह मेरे लिए अपने अखबार के साप्ताहिक कैम्पस कॉलम में लिखने का आॅफर लेकर आये थे। मैं विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए भी, वहां की अव्यवस्थाओं, समस्याओं और विद्यार्थी हितों से जुड़े मुद्दों पर लिखता रहा। विश्वविद्यालय ने कभी न तो मेरे खिलाफ कोई नोटिस जारी किया और न ही कभी कोई कार्रवाई करके परेशान किया। इसके बाद जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में पढ़ने आया तो यहां भी खास अनुशासन नहीं दिखा पाया।

    अनेक मौकों पर हम संस्थान के खिलाफ खड़े हुए और सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखी, लेकिन संस्थान ने कभी इसे अनुशासनहीनता नहीं माना। संस्थान के एक शिक्षक के बारे में भी मैंने उस समय अपने ब्लॉग में खुलकर लिखा था, लेकिन वह कभी नाराज नहीं हुए और न ही इसका कोई असर मेरे परीक्षा परिणाम पर पड़ा। ऐसे में जब मैंने यह सुना कि आईआईएमसी के एक विद्यार्थी को सोशल मीडिया में लिखने के चलते न केवल निलंबित कर दिया गया बल्कि संस्थान के परिसर में उसका प्रवेश तक प्रतिबंधित कर दिया गया, तो स्तब्ध रह गया। छात्र पर आरोप है कि उसने संस्थान के एक बर्खास्त किये गये शिक्षक के समर्थन में प्रतिक्रिया दी है और संस्थान के खिलाफ लोगों को उकसाया है।

    कभी खुद पत्रकार रहे संस्थान के शीर्ष अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया कि बर्खास्त शिक्षक का मामला अदालत में विचाराधीन है, कोई छात्र उस पर फैसला कैसे सुना सकता है? क्या वास्तव में यह एशिया के सबसे बड़े पत्रकारिता संस्थान की पत्रकारीय समझ है? किस संविधान, किस आईपीसी और किस कोर्ट की नियमावली लिखी-पढ़ी जा रही है संस्थान में? क्या संस्थान के पास ऐसा कोई आॅर्डर है, जिसमें लिखा हो कि बर्खास्त किये गये शिक्षक के मसले की मीडिया रिपोर्टिंग नहीं की जा सकती है या उस पर सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है? जिस संस्थान पर कर्मठ पत्रकार पैदा करने की जिम्मेदारी हो, वही इस तरह से अभियक्ति की आजादी का गला घोंटने लगे तो फिर लोकतंत्र के कैसे भविष्य की कल्पना की जा सकती है! क्या संस्थान ऐसे पत्रकार पैदा करने की योजना पर कार्य कर रहा है जो व्यवस्था से साठ-गांठ की पत्रकारिता करें?
    एक पत्रकार का बनना एक डिग्री लेने भर का सवाल नहीं है। पत्रकार बनना एक प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया का विकास सही मार्गदर्शन से हो सकता है। लेकिन जब पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थान में ही पत्रकारिता की मौलिक सीख को हतोत्साहित किया जाए तो समझ लेना चाहिए कि पत्रकारिता को स्कूली पाठ्यक्रम में कैद करके बर्बाद करने की साजिशें तेज हो गई हैं। ऐसे में इलाहाबाद में मेरे अंदर पत्रकार ढूंढने वाले संपादक जी जैसे वरिष्ठ पत्रकारों की भूमिका बढ़ जाती है।
    डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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