आजकल युवाओं पर केन्द्रित जो भी फिल्में बन रही हैं, उनमें लगभग एक जैसी बात ही देखी जा रही है, एक प्रकार का दोहराव देखा जा रहा है। यारी-दोस्ती, करियर वगैराह तक तो ठीक है, लेकिन जिम्मेदारी से भागने और शादी से कतराने सरीखी बातें इन फिल्मों में प्रमुखता से दिखाई जा रही हैं। बीते एक डेढ़ साल में ऐसी कई फिल्में आई हैं, जिनमें या तो हीरो शादी नहीं करना चाहता या हीरोइन शादी तो करना चाहती है, लेकिन घर नहीं बसाना चाहती। या फिर दोनों ही शादी नहीं करना चाहते।

फिल्में हमारे समाज का आईना हैं और अगर लिव-इन रिलेशनशिप इस जिम्मेदारी या कहिये ‘झंझट’ से निजात पाने की नया तरीका है तो ये फिल्में युवाओं को पसंद आनी चाहिए।

लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। इसका मतलब फिल्मकार युवाओं की नब्ज ठीक से नहीं पकड़ पा रहे हैं। मोटे तौर पर कहें तो आदित्य चोपड़ा की ‘बेफिक्रे’ का देसी वर्जन है ‘ओके जानू’। ये फिल्म मणि रत्नम की साल 2015 में आई तमिल फिल्म ‘ओ कादल कनमनि’ का हिन्दी रीमेक है, जिसे बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के साथ-साथ भरपूर सराहना भी मिली थी, जिसे शाद अली ने लगभग मणि के स्टाइल में बनाने की कोशिश की है।

ये कहानी है मुंबई में काम करने आए एक युवक आदित्य (आदित्य राय कपूर) की, जिसे तारा (श्रद्धा कपूर) पहली ही नजर में भा जाती है। पहली मुलाकात रेलवे प्लेटफार्म पर होती है और दूसरी चर्च में। तीसरी और चौथी मुलाकात में ये साफ हो जाता है कि दोनों को शादी से सख्त एलर्जी है। अब सही में एलर्जी है या नहीं, लेकिन दोनों का सीधा-सा फंडा है कि पहले करियर बनाएंगे, फिर सोचेंगे।

आदित्य, एक वरिष्ठ जज गोपी श्रीवास्तव (नसीरुद्दीन शाह) के यहां रहता है, जिसकी पत्नी चारूलता (लीला सैमसन) को अल्जाइमर है। जज साहब सख्त मिजाज इंसान हैं। घर में उनके अपने नियम-कायदे हैं। लेकिन इन नियम-कायदों का चारू पर कोई असर नहीं है। कहिये कि जज साहब अपनी पत्नी को इतना प्यार करते हैं कि उसके सामने भीगी बिल्ली-सी बने रहते हैं। आदित्य को ये दोनों बहुत भाते हैं, इसलिए जब तारा को इसी घर में साथ रखने की बात आती है तो एक बार को चारू तो मान जाती है, लेकिन जज साहब नहीं मानते। अब चूंकि कुछ समय बाद तारा को पेरिस और आदित्य को अमेरिका, अपने-अपने काम के लिए जाना है तो दोनों लिव-इन में कुछ महीने साथ रहना चाहते हैं, इसलिए कठोर जज साहब पिघल जाते हैं और तारा को घर में रहने की इजाजत दे देते हैं।

करियर के अलावा शादी न करने के तारा के अपने कुछ कारण हैं, जिन्हें आदित्य समझता तो है, लेकिन बहुत ज्यादा समझना नहीं चाहता, क्योंकि सैटल होने से वो भी कतराता है। लिव-इन में रह कर दोनों एक-दूजे के और करीब आने लगते हैं और घर में गोपी-चारू का आपसी प्यार देख कर उनमें भी प्यार का अहसास थोड़ा बढ़ने लगता है। लेकिन एक दिन जब चारू को पता चलता है कि आदित्य दस दिनों बाद अमेरिका जाने वाला है तो वह थोड़ी गुमसुम हो जाती है। दोनों फैसला करते हैं किये दस दिन वे सिर्फ एन्जाय करेंगे और सारा समय साथ बिताएंगे।

‘युवा’, ‘गुरू’ और ‘रावण’ जैसी फिल्में बनाने के बादूमणि रत्नम के बारे में ये कहा जाने लगा कि उन्हें खुद को फिर से गढ़ना होगा। इसके बाद उन्होंने ‘कादल’ और फिर ‘ओ कादल कनमनि’ बनाई, जिससे उन्हें पहले जैसी प्रशंसा मिलने लगी। बात केवल युवाओं और उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी बातों पर फिल्म बनाने की नहीं थी। जरूरत थी इस विषय को करीब ये जानने और महसूस करने की, इसलिए ‘ओ कादल कनमनि’ अपने मजबूत कंटेंट की वजह से पसंद भी की गई। मणि की उसी कहानी को जब शाद अली ने लगभग उसी स्टाइल से बयां किया है तो बात नहीं दिख रही है, जो ‘ओ कादल कनमनि’ में दिखाई दी थी।

इसकी सबसे बड़ी वजह दिखती है कमजोर पटकथा। फिल्म एक स्टाइल से शुरू होती है। स्क्रीन पर सब अच्छा अच्छा सा दिखता है। पॉजिटिव ढंग से देखा जाए तो फिल्म में आंखों को सुकून देती तमाम चीजें हैं। अच्छा फिल्मांकन है, मजेदार संगीत है, अभिनय है, सितारों की कैमिस्ट्री है वगैराह वगैराह… लेकिन कमीं है तो शब्दों की। कमीं है अहसास की। ऐसी बातों की भी कमीं है जो दिल को छू जाएं।

आदित्य नॉटी है, लेकिन पागल नहीं। तारा समझदार है, लेकिन भावुक नहीं। हां, आदित्य के घर न आने पर उसके इमोशंस अपने चरम पर होते हैं, लेकिन वो उन्हें व्यक्त नहीं कर पाती। इसी तरह आदित्य का शादी से कतराना, करियर की कुर्बानी को न्यायसंगत नहीं कर पाता। इसलिए जब ये दोनों गोपी-चारू का प्यार देखते हैं तो मुंह-सा ताकते रह जाते हैं। कई जगह गोपी-चारू की लाइफ इन दोनों से ज्यादा रोचक लगने लगती है।

शायद शाद अली ने मणि के मन की बात को ऊपरी स्तर से ही समझा। वह तह तक नहीं जा पाए। फिल्म केवल एक बार देखने के लिहाज से ठीक है, लेकिन ये अहसास जगाने वाली नहीं है। दरअसल शादी और करियर में से कब कौन सा निर्णय ठीक है, ये बात शाद असरदार ढंग से कह ही नहीं पाए। उन्होंने ‘ओके जानू’ को सजाने में कोई कमीं नहीं छोड़ी और इसलिए ये फिल्म कुछेक हिस्सों में प्रभावी भी लगती है। इस फिल्म में चर्चा नहीं है, संवाद नहीं है, केवल एक विषय है, जो इसे सुर्खियां देता है, समाधान या सुझाव नहीं।

सितारे : आदित्य राय कपूर, श्रद्धा कपूर, नसीरूद्दीन शाह, लीला सैमसन, किटू गिडवानी, प्रहलाद कक्कड़
निर्देशक : शाद अली
निर्माता : मणि रत्नम, करण जौहर, अपूर्व मेहता, हीरू यश जौहर
संगीत : ए. आर. रहमान
गीत : गुलजार
कहानी-पटकथा : मणि रत्नम
रेटिंग: 2 स्टार

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version