झारखंड की राजनीति के ‘फीनिक्स’ हैं दिशोम गुरु शिबू सोरेन
रांची। जिस तरह देश में पहला राजनीतिक परिवार नेहरू-गांधी को कहा जाता है और बिहार में लालू यादव के परिवार को राज्य का पहला राजनीतिक परिवार कहा जाता है, उसी तरह झारखंड का पहला राजनीतिक परिवार होने का श्रेय शिबू सोरेन परिवार को जाता है। इस परिवार के मुखिया के रूप में शिबू सोरेन निस्संदेह झारखंड की राजनीति के शिखर पुरुष के रूप में माने जा सकते हैं। राजनीति के जानकार शिबू सोरेन को राज्य की राजनीति का ‘फीनिक्स’ कहते हैं। राज्य के बहुसंख्यक आदिवासियों का एक तबका उन्हें दिशोम गुरु मानता है। झारखंड के इस कद्दावर नेता शिबू सोरेन के संघर्ष की कहानी बहुत लंबी है।
सुदूर जंगली गांव से तीर-धनुष लेकर भीषण संघर्ष करते हुए संसद में अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने वाले इस शख्सियत को आज की तारीख में भी कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता।
गुरुजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन ने करीब पांच दशक के अपने राजनीतिक कैरियर में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। कुछ साल पहले अपने बड़े पुत्र दुर्गा सोरेन की असामयिक मौत का सदमा झेलने वाले राजनीति के इस धुरंधर शख्स को राजनीति में लाचार और बूढा खिलाड़ी मानते हुए उनके हाल पर छोड़ना ही कुछ दलों ने जरूरी समझा था, लेकिन बाद में उन्होंने इसका करारा जवाब दिया और आज भी झारखंड की राजनीति के केंद्र में बने हैं।
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ। उनकी स्कूली शिक्षा गांव में ही हुई। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद ही उनका विवाह हो गया और उन्होंने पिता को खेती के काम में मदद करने का निर्णय लिया। पढ़ाई के दौरान उनके पिता की हत्या हो गयी। इसके बाद अपने परिवार की मदद करने के लिए उन्होंने लकड़ी बेचना शुरू किया। उनकी शादी रूपी किस्कू से हुई थी। इनके कुल चार बेटे-बेटी थे, जिसमें सबसे बड़े दुर्गा सोरेन थे। बाद में हेमंत सोरेन और बसंत सोरेन का जन्म हुआ। उनकी एक बेटी अंजली सोरेन भी हैं।
शिबू सोरेन के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1970 में हुई और 1977 में उन्होंने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा। सांसद बनने का उनका यह सपना 1986 में पूरा हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 1986, 1989, 1991, 1996 में भी चुनाव जीत गये। 2002 में वह भाजपा की सहायता से राज्यसभा के लिए चुने गये। 2004 में वह दुमका से लोकसभा के लिए चुने गये और राज्यसभा की सीट से त्यागपत्र दे दिया। 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में वह कोयला मंत्री बने, लेकिन चिरूडीह कांड के सिलसिले में गिरफ्तारी का वारंट जारी होने के बाद उन्हें 24 जुलाई 2004 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था।
दो मार्च, 2005 को शिबू सोरेन को पहली बार झारखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन उनका यह कार्यकाल महज 11 दिन का ही रहा। 12 मार्च, 2005 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 2008 में वह दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने लेकिन कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। शुरुआत में शिबू सोरेन का मानना था कि झारखंड का निर्माण दिकू (बाहरी) के खिलाफ आंदोलन के चलते हुआ। अविभाजित बिहार के दौर में उन्हें छोटा (सिख ट्रांसपोर्टर जिन्होंने इस क्षेत्र को उपनिवेश बनाने की कोशिश की), सोटा (पूर्वी उत्तर प्रदेश के वैसे ताकतवर लोग जो झारखंड में इस विश्वास से आये थे कि आदिवासियों की निरक्षर जनता पर वे राज कर सकते हैं) और लोटा (मारवाड़ी व्यापारी) तीनों से सख्त नफरत थी।
सोरेन अपने शुरुआती दिनों में जनजातियों के बीच स्कार्लेट पिंपरनल की तरह थे। यही वजह है कि आदिवासियों को इससे कोई मतलब न रहा और न है कि उनकी हरकतें कैसी हैं। तमाम आरोपों के बावजूद शिबू सोरेन अपने इलाके के निर्विवाद नेता हैं। उनके समर्थक उन्हें बेकसूर मानते हैं। शिबू सोरेन संथाली हैं और शहरीकरण की वजह से जनजातीय समाज द्वारा मैदानी इलाकों की सामाजिकताओं को अपनाने के खिलाफ रहे हैं। उन्होंने दहेज और शराब दोनों के खिलाफ सामाजिक आंदोलन भी किया। यही वजह है कि वह गुरुजी के नाम से जाने जाते हैं।
झारखंड की राजनीति में अलग स्थान रखते हैं बाबूलाल मरांडी
वर्ष 2000 में 15 नवंबर को नवगठित झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में काम संभालनेवाले बाबूलाल मरांडी की गिनती झारखंड की राजनीति में अगली पंक्ति के नेताओं में होती है। कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे बाबूलाल मरांडी आज की तारीख में झाविमो सुप्रीमो हैं और झारखंड के सबसे सम्मानित और कुशल राजनेता माने जाते हैं।
बाबूलाल मरांडी का जन्म गिरिडीह के पिछड़े इलाके कोदई बांक गांव में 11 जनवरी 1958 को हुआ। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा गांव से प्राप्त करने के बाद गिरिडीह कॉलेज में दाखिला ले लिया। यहां से इन्होंने इंटरमीडिएट तथा स्नातक की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मरांडी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये। आरएसएस से पूरी तरह जुड़ने से पहले मरांडी ने गांव के स्कूल में कुछ सालों तक कार्य किया। इसके बाद वह संघ परिवार से जुड़े। उन्हें झारखंड क्षेत्र के विश्व हिंदू परिषद का संगठन सचिव बनाया गया। 1983 में वह दुमका जाकर संथाल परगना प्रमंडल में कार्य करने लगे। 1989 में इनकी शादी शांति देवी से हुई। एक बेटा भी हुआ अनूप मरांडी, जिनकी 27 अक्टूबर 2007 को गिरिडीह क्षेत्र में हुए नक्सली हमले में मौत हो गयी।
बाबूलाल मरांडी 1991 में भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गये। 1996 में वह फिर शिबू शोरेन से हारे। इसके बाद भाजपा ने 1998 में उन्हें विधानसभा चुनाव के दौरान झारखंड भाजपा का अध्यक्ष बनाया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखंड क्षेत्र की 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर कब्जा किया। 1998 के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन को दुमका से हराकर चुनाव जीता था, जिसके बाद एनडीए की सरकार में वह मंत्री बनाये गये।
वर्ष 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्व में बाबूलाल मरांडी ने राज्य की पहली सरकार बनायी। मरांडी ने नये राज्य को बेहतर तरीके से विकसित करने की शुरुआत की। उन्होंने राज्य की सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों तथा ग्रामीण इलाकों के लिए कई योजनाएं शुरू की। मुख्यमंत्री ग्राम सेतु योजना उनमें से एक है। नयी रांची बसाने का काम भी उनके कार्यकाल में शुरू हुआ। सरकार में अपने सहयोगी दल जदयू की अतिशय महत्वाकांक्षा के कारण मरांडी को पद से इस्तीफा देना पड़ा।
इसके बाद उन्होंने राज्य में एनडीए को विस्तार देने का कार्य किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा सीट से चुनाव जीता। इसके बाद भाजपा नेतृत्व से उनकी दूरियां बढ़ने लगीं। मरांडी ने 2006 में कोडरमा सीट और भाजपा की सदस्यता से इस्तीफा देकर झारखंड विकास मोर्चा नाम से नयी राजनीतिक पार्टी बनायी। भाजपा के पांच विधायक भी इसमें शामिल हो गये। इसके बाद कोडरमा उपचुनाव में वह फिर चुने गये। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से कोडरमा सीट से चुनाव लड़ कर बड़ी जीत हासिल की।
झारखंड की राजनीति में गिरिडीह के गुरुओं ने अपना एक अलग मुकाम बनाया है। व्यवस्था बदलाव और शिखर तक जाने की सोच के साथ शिक्षक की नौकरी त्यागने वाले गुरुओं ने राजनीति में लंबी लकीर खींच डाली है। गिरिडीह जिला इस मायने में काफी भाग्यशाली रहा है। यहां शिक्षक की नौकरी त्याग कर राजनीति में किस्मत आजमाने वाले गुरुओं ने पंचायत के मुखिया से लेकर सांसद तक छलांग लगायी। इनमें तिलकधारी प्रसाद सिंह ने मुखिया, प्रमुख, जिला परिषद अध्यक्ष, विधायक व सांसद का सफर तय किया। वहीं व्याख्याता डॉ रवींद्र राय झारखंड के खनिज व उद्योग मंत्री बने।
फिलहाल वह कोडरमा के सांसद हैं। इसके अलावा ओमीलाल आजाद, बलदेव हाजरा ने भी व्यवस्था परिवर्तन और जनसेवा भावना के संकल्पों के साथ शिक्षक की नौकरी त्याग दी और विधायक बने। बाबूलाल मरांडी जब शिक्षक थे, तब एक बार उन्हें शिक्षा विभाग में काम पड़ गया। जब वह काम कराने विभाग के कार्यालय में गये, तो वहां के बड़ा बाबू ने काम के एवज में उनसे रिश्वत देने की मांग की। इस बात को लेकर दोनों में काफी कहासुनी हुई और इसके बाद गुस्साये बाबूलाल ने शिक्षक की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।