रांची। तारीख सात जनवरी। दुमका में जेएमएम की संथालपरगना प्रमंडलीय बैठक थी। इसमें हेमंत सोरेन ने प्रतिक्रिया जाहिर की थी कि कांग्रेस में गठबंधन पर बात कोई करता है, सीटों पर कोई और। यह बैठक पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन की अगुवाई में हो रही थी, और इसमें संथालपरगना से जेएमएम के सभी विधायक और बड़े नेता भी मौजूद थे। हेमंत सोरेन की इस प्रतिक्रिया के मायने हैं और विपक्षी दलों के नेता इससे वाकिफ भी हैं। इस बीच हेमंत सोरेन ने 17 जनवरी को विपक्षी दलों की बैठक बुलायी है। इसमें कुछ खास है, तो यह कि हेमंत ने वाम दलों तथा अन्य छोटे दलों को भी बुलावा भेजा है। लेकिन इस बुलावे के तत्काल बाद भुवनेश्वर मेहता ने कहा था कि हजारीबाग सीट भाकपा को दी जायेगी, तो पार्टी विपक्ष के किसी फार्मूले पर चलने को तैयार होगी।

इधर कोलेबिरा उपचुनाव में कांग्रेस को मिली जीत और उससे पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद पार्टी के रणनीतिकारों का रुख अचानक से बदल गया है। कांग्रेस अब जेएमएम की शर्तों पर चलने के लिए तैयार नहीं दिखती। कोलेबिरा में हेमंत ने झापा उम्मीदवार मेनन एक्का का साथ दिया था, जिनकी करारी हार हुई है।

विपक्ष के प्रस्तावित महागठबंधन के पैमाने पर बस ऊपर के इन तारों को जोड़ने की कोशिश करें, तो एक बात तेजी से उभरती नजर आयेगी कि साढ़े चार साल से अधिक समय में बीजेपी और उसकी सरकारों के खिलाफ मुखर रहने, जमीन अधिग्रहण, पुलिस फायरिंग, महंगाई, मॉब लिंचिंग, विस्थापन जैसे सवालों को लेकर सड़कों पर साथ आंदोलन करने, चुनावों में एकजुट रहकर बीजेपी को चित्त करने और निजी स्वार्थ- विवाद से परे रहने के जो कसमे वादे, आपसी प्यार और दोस्ती की बातें थीं, वो फकत कुछ ही दिनों में बहुत पुरानी सी लगने लगी है। अब कुछ बाकी है, तो खरमास के बाद शुरू होनेवाली नयी कहानी, और शायद इस कहानी को लिखे जाने में पुरानी पटकथा का इस्तेमाल नहीं किया जाये।

लोकसभा चुनाव को लेकर अब तक विपक्ष में जो तानाबाना बुना जा रहा था, उसमें छोटे या वाम दलों की कहीं गुंजाइश नहीं थी। सीटों की शेयरिंग को लेकर जेएमएम, कांग्रेस, जेवीएम और आरजेडी के हिस्से ही बातें होती रहीं। और उनमें भी जिच ढेर सारी थी। दरअसल, सीट चौदह हैं। दल चार, और दावे हजार। हालांकि वक्त के साथ विपक्ष के इस तानेबाने से वाम समेत दूसरी छोटी पार्टियां इस हकीकत से वाकिफ होती रही हैं कि अगर उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ना है, तो अपने दम पर।

जबकि अलग राज्य गठन के बाद 2014 में पहली बार इस तरह की तस्वीर उभरी कि विपक्ष की मुहिम और सड़कों पर विरोध में कई जन संगठन और छोटी पार्टियां भी अगली कतार में रह कर झंडाबरदार बनती रहीं। इस गोलबंदी के केंद्र में एक ही बात होती रही कि बीजेपी को सत्ता से हटाना है, तो साथ चलना ही होगा। अब एक बार फिर हेमंत सोरेन ने छोटे दलों से नजदीकी बढ़ाने और हमदर्दी जताने की जो कोशिशें की हैं, उसे कांग्रेस पर परोक्ष तौर पर दबाव बढ़ाने के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले कोलेबिरा चुनाव में भी जेएमएम ने मेनन एक्का को समर्थन कांग्रेस पर दबाव बढ़ाने के मकसद से ही दिया था।

भले ही जेएमएम उस फैसले पर यह कह कर परदा डालता रहा कि गुरुजी ने आशीर्वाद दे दिया है, तो कैसे इनकार किया जा सकता है। कांग्रेस यह बखूबी समझने लगी है। सभी दलों को 17 जनवरी की बैठक में बुलाने के सवाल पर जेएमएम के वरिष्ठ नेता विनोद पांडेय कहते हैं कि समान विचारधारा वाले दलों से बातचीत कर बीजेपी को रोकने की रणनीति जरूरी है। वैसे भी गठबंधन को लेकर तस्वीर साफ होने में देर की जा रही है। जेएमएम सशक्त गठबंधन का शुरू से पक्षधर रहा है।

कोलेबिरा चुनाव में जेएमएम का रुख बदलने के साथ ही कांग्रेस ने नये समीकरण की संभावना भी देखनी शुरू कर दी थी। कांग्रेस को ये लगता है कि जेएमएम के बहुत दबाव में रहने से अच्छा होगा कि बाबूलाल मरांडी की जेवीएम से समझौता किया जाये। बाबूलाल को भी यह मसौदा जंचता है। क्योंकि लोकसभा चुनाव से पहले बाबूलाल मरांडी भी नहीं चाहते कि विधानसभा चुनाव के लिए नेता का चेहरा सामने लाया जाये।

जबकि झारखंड में राज्यसभा चुनाव के वक्त ही कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से हेमंत सोरेन ने दो टूक कहा था कि लोकसभा के साथ विधानसभा की सीटों पर भी बात हो जाये। जेएमएम यह भी चाहता है कि बड़े दल होने के नाते हेमंत सोरेन को कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा के तौर पर स्वीकार करते हुए बाकायदा ऐलान भी करे। गठबंधन के मसौदे पर जेएमएम खुद को बार- बार सबसे मजबूत और बड़ा दल होने की दावेदारी इसलिए भी कर रहा है कि 2014 में मोदी लहर में भी दुमका में शिबू सोरेन और राजमहल में विजय हांसदा की जीत हुई थी। जबकि गिरिडीह में जेएमएम ने बीजेपी को कांटे की टक्कर दी थी। विधानसभा चुनाव में जेएमएम को 19 सीटों पर जीत मिली थी। वक्त के साथ बदलते समीकरणों के बीच कांग्रेस अब जेएमएम के लिए खुला मैदान छोड़ना नहीं चाहती।

वैसे गठबंधन हो जाने पर भी कांग्रेस सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी, इसकी तस्वीर भी लगभग साफ है। लेकिन जेएमएम की नजर लोकसभा के साथ विधानसभा चुनावों पर समान है। लिहाजा बातें बिगड़ने पर कांग्रेस और जेएमएम दोनों एक दूसरे को गठबंधन के पैमाने पर अलग- थलग करने की बिसात बिछायेंगे इसकी संभवाना प्रबल है और इस पर माथापच्ची भी जारी है। जेएमएम और कांग्रेस के बीच शह-मात के खेल में सत्तारूढ़ आजसू पार्टी भी विपक्षी दलों की नजरों में अचानक से उभरने लगी है। अलबत्ता विपक्ष के अंदरखाने क्या चल रहा है, उस पर आजसू की भी पैनी नजर लगी है। जेएमएम से खटराग बढ़ने की स्थिति में कांग्रेस और जेवीएम दोनों आजसू की ओर हाथ बढ़ा सकते हैं। इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा रहा। आजसू दो सीटों पर चुनाव लड़ने की जुगत में है। हालांकि पार्टी अभी पत्ता नहीं खोल रही। लेकिन आजसू के सबसे बड़े खेवनहार सुदेश महतो चैन से नहीं बैठे हैं।

झारखंड विकास मोर्चा इन समीकरणों को भांपता रहा है कि बीजेपी को कमजोर करने के लिए आजसू को उसके पाले से निकाला जा सकता है। जबकि आजसू और जेएमएम के बीच वैसे भी टसल रहे हैं। इधर झारखंड विकास मोर्चा ने गठबंधन में तीन सीटों की दावेदारी की है। इनमें गोड्डा भी है और वहां से प्रदीप यादव चुनाव लड़ने के लिए पिल कर पड़े हैं। कांग्रेस की परेशानी यह है कि फुरकान अंसारी को गोड्डा से कैसे बैक किया जाए। तब जेवीएम को लगता है कि कांग्रेस से अगर जेएमएम की खटपट बढ़े, तो जेएमएम से हाथ मिला लिया जाए।

चाईबासा सीट को लेकर जेएमएम और कांग्रेस तथा चतरा सीट को लेकर जेवीएम और आरजेडी के बीच जिच कायम है। हालांकि इस खेल में आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद की चिंता बस इतनी है कि बीजेपो को शिकस्त देने के लिए सभी एकजुट हो जाएं। उधर बिहार में कांग्रेस का क्या रुख होगा इसे भांपते हुए ही झारखंड में आरजेडी, कांग्रेस की बात सुनेगी। वैसे लालू प्रसाद का हाथ हेमंत सोरेन के पीठ पर होता है और वे चाहते हैं कि महागठबंधन को हेमंत ही लीड करें।

हालांकि कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम इन खेल से इत्तेफाक नहीं रखते। लेकिन यह जरूर कहते हैं कि बीजेपी को हराने के लिए सभी विपक्षी दलों को खुले दिल से आगे आना होगा और स्वार्थ तथा विवाद को परे रखना होगा। जेवीएम के प्रदीप यादव भी उम्मीद जाहिर करते हैं कि विपक्ष का गठबंधन हो जाएगा। अभी इसकी संभावनाएं कायम है। वे कहते हैं कि टेबुल टॉक होने पर जिच खत्म हो सकते हैं।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार ने कहा कि लोकसभा और विधानसभा की अधिकतर सीटों पर एडजस्टमेंट हो गया है। कुछ सीटों पर जिच है। वह भी जल्दी सुलझ जाएगा। लेकिन कांग्रेस में इस तरह के मसले पर कुछ भी फैसला लिया जाना होगा, तो वह कई चैनलों से गुजरते हुए और शीर्ष नेतृत्व की मुहर लगने क बाद ही। इसलिए हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी कई मौके पर कहते रहे हैं कि महागठबंधन को लेकर देर हो रही है और कांग्रेस आगे बढ़कर स्थति स्पष्ट करे। लेकिन कांग्रेस में इन बातों को लेकर किसी फैसले के लिए पार्टी की अपनी रिवाज और प्रक्रिया है। शायद हेमंत सोरेन ने इसी से खीझ कर कह गए हों कि गटबंधन पर कोई बात करता है, सीटों पर कोई।

वैसे इन तमाम कील- कांटों के बीच विपक्षी दलों को कोई बात डरा रहा है, तो यह कि गठबंधन बिखरा, तो बीजेपी से टकराना बहुत आसान नहीं होगा। अब ये कील कांटे आसानी से कैसे निकाले जाएंगे यह परखा जाना बाकी है। पिछले पांच दिसंबर के बाद से विपक्ष के चार प्रमुख दलों के नेता एक साथ नहीं बैठ सके हैं और न ही दिल्ली में कोई साझा मंत्रणा हुई है।

हालांकि विपक्षी नेता यह कहते रहे हैं कि खरमास के बाद पहल तेज होगी। हेमंत सोरेन ने भी खरमास के बाद ही बैठक बुलाई है। इस बीच यूपी में लोकसभा चुनाव से पहले जिस तरीके से गठबंधन हुआ है, उसका असर दूसरे राज्यों में साफ तौर से देखा जाएगा। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। देखना होगा कि 17 की बैठक में महागठबंधन का तिलिस्म खुलता है या यूपी की तरह यहां भी कोई नया समीकरण बनेगा।

Share.

Comments are closed.

Exit mobile version