एक दौर था, जब बाबूलाल मरांडी झारखंड में भाजपा के पर्याय माने जाते थे। जब झारखंड नहीं बना था, तब वनांचल प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन्होंने गांव-गांव में पार्टी का संगठन खड़ा किया। सुदूर गांवों से लेकर शहरों तक पार्टी की विचारधारा से लोगों को जोड़ने में उन्होंने जो भूमिका निभायी, उसे आज भी याद किया जाता है। भाजपा ने भी उन्हें इसका पारितोषिक दिया। पार्टी ने उन्हें झारखंड का प्रथम मुख्यमंत्री होने का गौरव प्रदान किया। हालांकि बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। हालात कुछ ऐसे हुए कि बाबूलाल को भाजपा छोड़ना पड़ा। वर्ष 2006 में उन्होंने अपनी पार्टी झाविमो बनायी और अपना राजनीतिक वजन साबित किया। आज बाबूलाल एक बार फिर कैसे भाजपा की जरूरत बन गये हैं, इसकी विवेचना करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया था, लेकिन जब चुनाव के नतीजे आये तो पार्टी मात्र 25 सीटों पर सिमट गयी। इस करारी शिकस्त से सदमे में आयी पार्टी को एक ऐसे चेहरे की तलाश है, जो पार्टी को हार की हताशा से उबारकर नये सिरे से नेताओं-कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार कर सके। इसी तलाश में भाजपा की निगाह झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी पर जाकर टिक गयी है। उन्हें भाजपा में लाने के लिए शिद्दत के साथ कोशिशें हो रही हैं। भाजपा के वरीय नेताओं को इस काम के लिए लगाया गया है। भाजपा के आलाकमान के स्तर से इस मसले पर अंतिम निर्णय हो चुका है।
दरअसल बाबूलाल मरांडी आज झारखंड भाजपा की जरूरत बन गये हैं। बाबूलाल मरांडी के आने से भाजपा को ऐसा नेता मिल जायेगा, जो पार्टी के एक-एक कार्यकर्ता के मानस से भलीभांति परिचित है। वनांचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष और उसके बाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री के तौर पर 28 महीनों का उनका कार्यकाल जनता के जेहन में आज भी ताजा है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बाबूलाल मरांडी आज जहां हैं, वहां उनके भविष्य के लिए भाजपा सबसे बेहतर राजनीतिक मंच साबित होगी।
क्यों है बाबूलाल की जरूरत?
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ आयी और झारखंड में भी इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अकेले अपने दम पर 37 सीटों पर जीत हासिल की। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 14 में से 11 लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही, पर विधानसभा चुनाव में पार्टी की रणनीति जैसे धराशायी हो गयी। वर्ष 2014 में 37 सीटें जीतनेवाली पार्टी 25 सीटों पर सिमट गयी और इस हार ने भाजपा को सोचने पर मजबूर कर दिया। पार्टी ने जब हार के कारणों पर मंथन किया, तो एक निष्कर्ष यह निकला कि पार्टी से आदिवासियों की नाराजगी भाजपा के लिए महंगी पड़ी। सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के निर्णय और पत्थलगड़ी जैसे मसले पर पार्टी के रुख से आदिवासियों में गलत संदेश गया। विपक्ष ने रघुवर दास को बाहरी राज्य का निवासी बताकर प्रचार किया और उसकी रणनीति एक हद तक तक सफल भी रही। ऐसे में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती आदिवासियों के बीच फिर से विश्वास की लौ जगाने की है। पार्टी को इसके लिए एक कद्दावर आदिवासी नेता की जरूरत है। चुनाव में हार के बाद भाजपा ने अपने राज्य के आदिवासी नेताओं की कुंडली देखी, तो पता चला कि उनमें से एक भी ऐसा नेता नहीं है, जिसकी राज्य में इतनी सशक्त पहचान हो कि वह आदिवासियों में विश्वास का भाव जगा सके। ऐसे में भाजपा को बाबूलाल की जरूरत और शिद्दत से महसूस होने लगी। लोकसभा चुनाव के दौरान ही भाजपा ने बाबूलाल को अपने पाले में लाने की कोशिश की थी, पर बाबूलाल अपने सिपहसालारों के दबाव में आकर भाजपा में नहीं गये थे। भाजपा को भी इसका एहसास और आभास दोनों था। इसलिए पार्टी ने प्रयास करना नहीं छोड़ा था। विधानसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी ने और गंभीरता से इस दिशा में काम करना शुरू किया और इसके बाद बाबूलाल के भाजपा में जाने की संभावनाएं बढ़ गयीं। विधानसभा चुनाव में 81 सीटों पर प्रत्याशी उतारकर बाबूलाल ने अपने संघर्षशील जज्बे का परिचय दिया। हालांकि उनकी पार्टी महज तीन सीटें जीतने में सफल रही। हालांकि उनके लिए सबसे अच्छी बात यह रही है कि वह धनवार सीट से खुद चुनाव जीत गये। बाबूलाल मरांडी यह अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा में जाकर ही वह अपने उन सिपहसालारों के चंगुल से मुक्त हो पायेंगे, जिनके साथ वह रहना नहीं चाहते और जिन्होंने उन्हें नुकसान पहुंचाया था। इसलिए जब प्रदीप यादव और बंधु तिर्की कांग्रेस में जाने की संभावनाएं तलाश रहे हैं तो बाबूलाल भाजपा में शामिल होने के आमंत्रण और शामिल होने के बाद बननेवाली परिस्थितियों का नफा-नुकसान आंक रहे हैं। बाबूलाल का भाजपा में जाना अब लगभग तय माना जा रहा है।
कांग्रेस का प्रस्ताव भी आया था
सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांंग्रेस की भी निगाहें बाबूलाल मरांडी पर टिकी हुई थीं, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही यह अच्छी तरह जानतीे हैं कि बाबूलाल जिस पार्टी में जायेंगे, उसके लिए वह एसेट साबित होंगे। झारखंड में विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद 24 दिसंबर को बाबूलाल को प्रस्ताव मिला कि वह कांग्रेस में पार्टी का विलय कर लें। पर उन्होंने कांग्रेस में जाने से इंकार कर दिया, हालांकि अपने सिपहसालारों के दबाव में आकर उन्होंने सरकार को समर्थन देने का पत्र जारी कर दिया। राजनीति के गलियारे में चर्चा है कि बाबूलाल ने कांग्रेस के नेताओं को यह साफ बता दिया कि वे कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे।
भाजपा की खूबियां और खामियां जानते हैं मरांडी
झारखंड की राजनीति के जानकारों का कहना है कि बाबूलाल मरांडी भाजपा की जरूरत इसलिए बन गये हैं, क्योंकि भाजपा को झारखंड में अपनी बड़ी पराजय के बाद एक मजबूत और निर्विवाद आदिवासी चेहरा चाहिए। हालांकि ऐसा एक चेहरा अर्जुन मुंडा के रूप में भाजपा के पास है, लेकिन सांसद और कैबिनेट मंत्री के रूप में भाजपा राष्टÑीय स्तर पर उनकी दक्षताओं का उपयोग कर रही है।
ऐसे में ले-देकर बाबूलाल मरांडी ही पार्टी के पास एक विकल्प के रूप में बचते हैं। बाबूलाल मरांडी की भाजपा से दूरी की वजह वैचारिक नाराजगी है और भाजपा इसे दूर कर सकती है, इसलिए पार्टी ने इस दिशा में कदम बढ़ाया। एक अन्य वजह यह है कि बाबूलाल भाजपा की खूबियों और खामियों को तो जानते ही हैं, कार्यकर्ताओं के बीच भी पकड़ बनाने में उन्हें मुश्किल नहीं होगी। पार्टी को जिन 28 में से 26 आदिवासी सीटों पर पराजय का सामना करना पड़ा है, उन पर पार्टी का पांव जमाने में बाबूलाल कारगर साबित हो सकते हैं।
अपने सिपहसालार से भी दूरी बनाना चाहते हैं बाबूलाल
अपने लंबे राजनीतिक सफर में बाबूलाल मरांडी यह अच्छी तरह जान गये थे कि उन्हें राजनीति में किसी दूसरे ने नहीं, बल्कि अपने एक सिपहसलार ने सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया। उन्होंने न सिर्फ बाबूलाल के सारे कनेक्शन काट दिये, बल्कि पार्टी चलाने में सहयोग करनेवाले लोगों से भी दूर कर दिया। बाबूलाल यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके सिपहसलार, जिनसे वह दूरी बनाना चाहते हैं, उन्हें भाजपा रास नहीं आयेगी और वह वहां नहीं जायेंगे। यदि वह कांग्रेस में जाते, तो उनसे दूरी बनाने में बाबूलाल को मुश्किल होती। इसलिए बाबूलाल ने भाजपा में शामिल होने का फैसला ले लिया। यही वजह है कि भाजपा ने न तो अब तक अपने विधायक दल के नेता का चयन किया है और न प्रदेश अध्यक्ष को बदला है।
ऐसी चर्चाएं हैं कि भाजपा बाबूलाल के आने के बाद ही इस दिशा में कदम बढ़ायेगी। भाजपा को पूरा यकीन है कि बाबूलाल ही झारखंड में पार्टी की नैया पार लगायेंगे। इसलिए भाजपा को अपने इस लाल की पार्टी में वापसी का इंतजार है और बाबूलाल भी भाजपा में जाने के लिए सही समय के इंतजार में हैं और वह समय खरमास के बाद आयेगा।
बंधु को रास नहीं आया कार्यसमिति का भंग होना
झाविमो के मांडर विधायक बंधु तिर्की को यह खबर है कि बाबूलाल मरांडी की भाजपा के नेताओं के साथ बातचीत चल रही है और झाविमो की केंद्रीय कार्यसमिति को भंग किया जाना इसी दिशा में उठा कदम है। इसलिए कार्यसमिति का भंग होना उन्हें रास नहीं आया। उन्होंने इस पर अपनी बात रखते हुए कहा कि हालांकि यह पार्टी अध्यक्ष के विशेषाधिकार का मामला है, पर कार्यसमिति की बैठक में पूरी कमिटी को भंग किया जाना उचित नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव में गठबंधन में झाविमो का शामिल नहीं होना बड़ी भूल है, क्योंकि इससे पार्टी को नुकसान हुआ। गठबंधन में शामिल होने से पार्टी को अधिक सीटों पर जीत मिलती, पर बंधु तिर्की शायद यह नहीं जानते थे कि बाबूलाल ने कार्यसमिति भंग ही इसलिए की है, क्योंकि वे स्वतंत्र हो जायें और दूसरों को भी स्वतंत्र कर दें।