झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने राज्य के गांवों के विकास की गाड़ी को निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के हाथों से वापस नहीं लेने का फैसला कर ऐसा काम किया है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। राज्य में कोरोना संकट और दूसरे प्रशासनिक कारणों से पंचायत चुनाव समय से नहीं कराये जा सके, इसलिए पंचायत समितियों का अस्तित्व खत्म हो गया था। इससे गांवों के विकास की गाड़ी रुक गयी थी और अफसरशाही इस पर कब्जा करने का मंसूबा पाल रही थी। लेकिन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विघटित पंचायतों में कार्यकारी समितियों के गठन का फैसला कर अफसरशाही के मंसूबे पर पानी फेर दिया है। इसके साथ ही राज्य सरकार ने निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को काम करने की चुनौती भी दी है और खुद को साबित करने का अवसर भी। पंचायतों के लिए कार्यकारी समिति बनाने का फैसला करनेवाला झारखंड देश का पहला राज्य भी बन गया है। राज्य सरकार के इस फैसले का सबसे मुख्य संकेत यह है कि यह सरकार किसी भी कीमत पर विकास के काम की गति को धीमा करने के पक्ष में नहीं है। इतना ही नहीं, पंचायती राज व्यवस्था में वर्णित ग्रामीण विकास की अवधारणा को झारखंड में अमली जामा पहनाने के लिए भी सरकार कमर कस कर खड़ी है। हेमंत सरकार के इस फैसले को इसलिए भी ऐतिहासिक कहा जा सकता है, क्योंकि पंचायती राज कानून में वर्णित इस प्रावधान का उपयोग आज तक नहीं किया गया था। झारखंड में स्थानीय स्वशासन और पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए किये गये इस फैसले का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्य सेन ने वर्ष 2000 में एक भाषण में कहा था कि भारत जैसे विकासशील समाज के विकास के लिए दूसरी चीजों की कोई कमी नहीं है। यहां केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति और विकास योजनाओं को नौकरशाही के चंगुल से निकाल कर लोगों के हाथों में देने की जरूरत है। आज से 20 साल पहले उनकी कही गयी इस बात पर काफी विवाद भी हुआ, लेकिन आज झारखंड में उनकी बात सही साबित होती दिख रही है। झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए गांवों के विकास की गाड़ी को नौकरशाही के कब्जे में जाने से रोक दिया है। राज्य की चार हजार 402 ग्राम पंचायतों और 545 जिला परिषदों में कार्यकारी समिति का गठन कर सरकार ने विकास योजनाओं को लागू करने का जिम्मा फिलहाल पंचायत कार्यकारी समिति के पास ही रहने देने का फैसला किया है।
झारखंड की ग्राम पंचायत समितियों और जिला परिषदों का कार्यकाल 31 दिसंबर को खत्म हो गया था और इन्हें विघटित घोषित करने की तैयारी की जा रही थी। इसका सीधा मतलब था कि पंचायतों और जिला परिषदों का कामकाज बीडीओ-सीओ और नौकरशाही के पास आ जाता। पंचायतों के मुखिया, पांच हजार 423 पंचायत समिति सदस्य और 54 हजार 330 वार्ड सदस्य अधिकार विहीन हो जाते। ग्रामीण इलाकों के लोग विकास के लिए अफसरों की चिरौरी करते नजर आते। हेमंत सोरेन सरकार ने अपने एक फैसले से इस स्थिति को टाल दिया है और नये चुनाव होने तक कार्यकारी समिति के जरिये विकास योजनाओं को चालू रखने का रास्ता साफ कर दिया है।
झारखंड सरकार के इस फैसले से गांवों में रहनेवाले लोग राहत महसूस कर रहे हैं। ग्राम पंचायतों और जिला परिषदों का अस्तित्व समाप्त होने के बाद से उन्हें लग रहा था कि अब नया चुनाव होने तक उन्हें सरकारी अधिकारियों की शरण में जाना होगा। लेकिन अब यह स्थिति नहीं आयेगी। अब वे पहले की तरह अपने मुखिया और दूसरे जन प्रतिनिधियों को विकास कार्यों के लिए कह सकेंगे, उनसे जवाब मांग सकेंगे। सरकारी अधिकारियों के साथ ग्रामीण ऐसा नहीं कर सकते थे, जोर-जबरदस्ती करने पर अफसरों के पास ‘सरकारी काम में बाधा पहुंचाने’ के कानून के रूप में ऐसा हथियार है, जिसकी मदद से वे ग्रामीणों को सात साल के लिए जेल भेज सकते थे।
हेमंत सरकार के इस फैसले का दूसरा बड़ा लाभ यह होगा कि गांवों के विकास की योजनाओं को लागू करने का जिम्मा पूरी तरह से कार्यकारी समिति के पास होगा। अब तक देखा यह गया है कि गांवों की विकास योजनाएं लागू करने में सरकारी अफसर उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाते। इसका कारण यह है कि अफसरों को गांवों से भावनात्मक लगाव नहीं होता। इसके अलावा भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसे दूसरे कारण भी अफसरों को काम करने से रोकते हैं। इसके कारण योजनाएं अधर में लटकी रह जाती हैं और पैसा खर्च हो जाता है। कार्यकारी समिति के कामकाज पर ग्रामीण नजदीक से नजर रख सकेंगे और इस कारण उसे काम करना ही होगा। अधिकारियों के नियंत्रण वाली विकास योजनाओं का हश्र लोग देख चुके हैं और इससे निराशा की अभिव्यक्ति भी कई अवसरों पर की जा चुकी है।
इस फैसले ने मुखिया और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के सामने बड़ी चुनौती भी पेश कर दी है। यह चुनौती है काम कर दिखाने की। पंचायतों के पिछले चुनाव के बाद झारखंड के गांवों में क्या हुआ, यह तो गहन समीक्षा के बाद ही पता चलेगा, लेकिन अब कार्यकारी समिति जो काम करेगी, उसमें सभी की सक्रिय भागीदारी होगी और इसलिए वह अधिक जिम्मेदारी से काम करेगी। इसके साथ ही इस फैसले ने जन प्रतिनिधियों को खुद को साबित करने का अवसर भी दिया है। अगले छह महीने तक ये जन प्रतिनिधि कार्यकारी समितियों के सदस्य के रूप में काम करेंगे। उसके बाद चुनाव में उनके कामकाज का रिजल्ट तय होगा। लोगों को भी अपना जन प्रतिनिधि चुनने में आसानी होगी। झारखंड सरकार का यह फैसला इसलिए भी ऐतिहासिक है, क्योंकि पंचायती राज कानून के इस प्रावधान का इस्तेमाल करनेवाला झारखंड पहला राज्य बन गया है। अब तक जहां पंचायत चुनाव नहीं हुए थे, वहां इस तरह की व्यवस्था करने की हिम्मत किसी राज्य सरकार ने नहीं दिखायी थी। झारखंड सरकार ने यह फैसला कर साबित कर दिया है कि वह विकास की गति में किसी कीमत पर कटौती करने के पक्ष में नहीं है और झारखंड को आगे ले जाना ही उसका मकसद है। इस नजरिये से हेमंत सोरेन सरकार का यह फैसला राज्य के व्यापक हित में है और इसकी सराहना की जानी चाहिए।

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