आजसू के समक्ष तीन बड़ी चुनौतियांदेश, काल और परिस्थितियां पार्टी हों या व्यक्ति सबके सामने चुनौतियां पेश करती हैं। 22 जून 1986 को अस्तित्व में आनेवाली आजसू पार्टी के साथ भी यही हो रहा है। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 53 सीटों पर चुनाव लड़ी, पर केवल दो सीटों पर ही जीत का स्वाद चख सकी। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो सिल्ली से जीत,े तो डॉ लंबोदर महतो गोमिया से। बीते विधानसभा चुनाव में आजसू के पक्ष में आये परिणामों ने पार्टी को आत्ममंथन का अवसर दिया है। इसके साथ ही पार्टी के समक्ष वे चुनौतियां भी उजागर हो गयी हैं, जिनका मुकाबला करते हुए आजसू को आगे की राह निकालनी है। पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वह अकेले चुनाव लड़े या भाजपा के साथ गठबंधन बना कर। अगर अकेले लड़ती है, तो चुनावी परिणाम उसके खिलाफ जाता है। यह दो बार के चुनावों में सामने आ चुका है और अगर भाजपा से गठबंधन बना कर लड़ती है, तो पार्टी में नेताओं, समर्थकों की संख्या घट जाती है। कार्यकर्ता बिदकने लगते हैं। मतदाता उससे विमुख होने लगते हैं। दूसरी झारखंड के क्षेत्रीय दलों के बीच वह अपनी सम्मानजनक स्थिति कैसे बनाये और तीसरी चुनौती आजसू भाई-भतीजावाद से कैसे उबरे। आजसू पार्टी की तीन प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डालती दयानंद राय की रिपोर्ट।
जब साथ रहना मजबूरी हो जाये तो अलग हो जाना बेहतर होता है। झारखंड की राजनीति में यही काम सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू ने वर्ष 2019 के विधानसभा चुनावों में किया। सीटों पर सहमति न बन पाने पर दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। पर दोनों के बीच अलगाव के नतीजे अच्छे नहीं निकले। भाजपा जहां वर्ष 2014 की तुलना में 37 सीटों से घट कर 25 पर आ टिकी, वहीं आजसू पांच से दो सीटों पर सिमट गयी। इन हालात ने भाजपा और आजसू दोनों को चिंतन का मौका दिया और फिर राज्यसभा चुनाव और बाद के उपचुनाव में दोनों फिर साथ मिलकर चलने को बाध्य हो गये। भाजपा और आजसू का फिर साथ आना दोनों की सेहत के लिए जरूरत थी, लेकिन आजसू को झारखंड की राजनीति में यदि बाहुबली बनना है तो उसे उस स्थिति में पहुंचना होगा, जहां वह अपने दम पर अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार दे सके और उसी अनुपात पर सीटें भी जीत सके। अतीत का अनुभव बताता है कि आजसू साझेदारी की स्थिति में अपने मन मुताबिक सीटों पर उम्मीदवार उतारने की स्थिति में नहीं रही है। भाजपा के साथ चलने पर उसके पांच या छह विधायक तो जीत कर विधानसभा पहुंच जाते हैं, पर पार्टी को इसका खामियाजा भी चुकाना पड़ता है। सीटों पर समझौता करने पर उसके तपे-तपाये नेता दूसरे दलों में जाने को विवश हो जाते हैं। वहीं जब अकेले अपने दम पर वह चुनाव लड़ती है तो उसकी जीती गयी सीटों की संख्या घट जाती है। वर्ष 2014 में आजसू ने भाजपा से समझौता किया था। वह आठ सीटों पर चुनाव लड़ी और उसके पांच उम्मीदवार जीते थे। लेकिन सबसे बड़ा आघात उसे यह लगा कि उसके तपे-तपाये नेता नवीन जयसवाल और योगेंद्र महतो पार्टी छोड़ने को विवश हो गये और उन्होंने दूसरे दलों का दामन था लिया। उन्हें जीत भी मिली। उसके पहले वर्ष 2009 में आजसू अकेले 54 सीटों पर लड़ी थी और उसके छह उम्मीदवार जीते थे। इसी तरह वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव मेें पार्टी ने 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इस चुनाव में पार्टी के दो उम्मीदवार जीत हासिल करने में सफल रहे।
अब आजसू की दूसरी बड़ी चुनौती पर आते हैं। आजसू पार्टी के सामने दूसरी बड़ी चुनौती झारखंड का बड़ा क्षेत्रीय दल बनने की है। इस स्थिति में आने के लिए उसे अपना जनाधार तो बढ़ाना ही होगा, अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार भी उतारने होंगे। इस दिशा में पार्टी आगे बढ़ती है तो उसे भाजपा से अलग होकर आगे बढ़ना होगा। क्योंकि भाजपा के साथ रहकर वह अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतार सकती। आजसू पार्टी की तीसरी सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वह अपने अंतर्विरोधों से कैसे निपटे। पार्टी के इकलौते सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी अपने परिजनों और सहयोगियों को टिकट देने के लिए जिस तरह से दबाव बनाते हैं उसके भी दुष्परिणाम पार्टी को भुगतने पड़े हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने पिछले चुनाव में खुद गिरिडीह से सांसद पद का चुनाव लड़ा और भाजपा की मदद से वह चुनाव जीत गये। लेकिन विधानसभा चुनाव में उनके रुख ने पार्टी को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया। उन्होंने रामगढ़ की सीट अपनी पत्नी के नाम कर दी, उन्हें चुनाव मैदान में उतार दिया। मांडू से अपने रिश्तेदार तिवारी महतो को उम्मीदवार बनाया। बड़कागांव से अपने भाई रोशन चौधरी को टिकट दिया। इसका खामियाजा यह निकला कि पार्टी रामगढ़, मांडू और बड़कागांव तीनों सीटें हार गयी और भाजपा से समझौता नहीं हो पाने का एक बड़ा कारण मांडू सीट भी थी। चंद्रप्रकाश चौधरी की जिद थी कि हम वहां से लडेंगे और भाजपा ने झामुमो के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल को अपने दल में शामिल कराया था। वह किसी भी हाल में मांडू सीट नहीं छोड़ सकती थी। आजसू बार-बार वृहद झारखंड की परिकल्पना को साकार करने की बात करती है और उसके जरिये अपने आकार का विस्तार भी चाहती है। यह तभी संभव है, जब पार्टी में परिवारवाद को पनपने का अवसर न मिले और कार्यकर्ताओं को भी यह विश्वास हो कि उनकी पार्टी परिवारवाद से मुक्त है।
पार्टी के केंद्रीय प्रवक्ता डॉ देवशरण भगत कहते हैं कि हमारी पार्टी संंघर्ष से उपजी पार्टी है और चुनौतियों से हम लगातार जूझते रहे हैं। हमें मालूम है कि अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतारने के साथ अधिक से अधिक सीटें भी हासिल करना पार्टी के विस्तार के लिए जरूरी है, पर आदर्श हमेशा व्यवहार से अलग होता है। हमने साथ लड़कर वर्ष 2014 में देखा कि हमें पांच सीटें मिलीं। इस दौरान करीब चार लाख वोट मिले। 2019 में हमने 53 सीटों पर प्रत्याशी दिये। हमें नौ लाख मत मिले पर सीटें हम दो ही जीत सके। इस चुनौती का हमें अंदाजा है। ऐसी स्थिति भी आयेगी कि हम अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतारने के साथ अधिक से अधिक सीटों पर जीत हासिल करेंगे। परिस्थितियों से कदमताल करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं और पार्टी का भविष्य उज्जवल है।
आंदोलन में आजसू की अहम भूमिका
आजसू पार्टी की स्थापना आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन की तर्ज पर की गयी थी। इसके संस्थापक निर्मल महतो थे। निर्मल महतो झारखंड अलग राज्य आंदोलन का आक्रामक चेहरा थे। उनके नेतृत्व में अलग झारखंड राज्य आंदोलन की लड़ाई आजसू ने बखूबी लड़ी। निर्मल महतो के बाद पार्टी की कमान सुदेश महतो ने संभाल ली। सुदेश महतो में नेतृत्व का विकास पृथक झारखंड आंदोलन से हुआ। इस आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी के चलते उनसे लोगों का आत्मीय लगाव बना। झारखंड की ऐतिहासिक पहचान कायम रखने के लिए उन्होंने कुछ ही अरसे पहले बिरसा मुंडा और कोयलांचल के सामाजिक कार्यकर्ता तथा झारखंड आंदोलन के नेता स्वर्गीय बिनोद बिहारी महतो की प्रतिमाएं स्थापित करने की पहल शुरू की। इससे पार्टी का जनाधार बढ़ा। लेकिन आजसू के लिए इतना ही काफी नहीं है। झारखंड में अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए उसे अपनों का मोह त्यागना होगा। परिवारवाद से मुक्ति पानी होगी। कार्यकर्ताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि उन्होंने संघर्ष से जो जमीन तैयार की है, उस पर खेती करने के लिए दूसरों को नहीं दिया जायेगा।