विशेष
संघर्ष से उनकी दोस्ती, संघर्ष ही उनका हथियार, संघर्ष ही उनका जीवन और संघर्ष ही उनकी कहानी
कहानी झारखंड के पहले भूमिपुत्र की, जिन्हें हाइकोर्ट का न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ
कैसे लातेहार के एक बीहड़ गांव में पैदा हुआ बच्चा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक का सफर तय करता है
जिस स्कूल में कभी खुद बोरा लेकर पढ़ने जाते थे, आज वही स्कूल उनके नाम से जाना जाता है
कहानी झारखंड आंदोलन की रीढ़ कहे जाने वाले अग्रणी पंक्ति के योद्धा जस्टिस एलपीएन शाहदेव की
जस्टिस एलपीएन शाहदेव, ऐसा नाम जो झारखंड ही नहीं, पूरे देश में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। झारखंड का पहला भूमि पुत्र, जिसे उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। कभी बोरा लेकर स्कूल जानेवाला बच्चा, कैसे जज की कुर्सी तक पहुंचता है। गरीबी की मैल कपड़ों से झलकती थी, लेकिन पढ़ाई के प्रति जूनून की चमक ने उन्हें रोशन कर दिया। पढ़ा, खूब पढ़ा। संघर्ष से उनकी दोस्ती थी, संघर्ष ही उनका हथियार, संघर्ष ही उनका जीवन था और संघर्ष ही उनकी कहानी। जस्टिस एलपीएन शाहदेव की कहानी जितनी रोमांचक है, उतनी ही प्रेरक भी। आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह ने व्यापक शोध के बाद यह कहानी लिखी है।
न्यायमूर्ति लाल पिंगला नाथ शाहदेव, यानी जस्टिस एलपीएन शाहदेव, झारखंड के पहले भूमि पुत्र, जिन्हें उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। एक ऐसा नाम, जिन्होंने अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को मजबूती प्रदान की। नयी धार दी। झारखंड आंदोलन के प्रणेता जस्टिस लाल पिंगला नाथ शाहदेव का जन्म तीन जनवरी 1930 को लातेहार जिला के चंदवा प्रखंड के बीहड़ जंगल के रोल गांव में हुआ था। न्यायमूर्ति एलपीएन शाहदेव राज परिवार से ताल्लुक रखते थे, लेकिन समय के साथ-साथ परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि संघर्षों के महाजाल में जिंदगी कठिन बनती चली गयी। शायद संघर्ष से उनकी काफी अच्छी दोस्ती थी और संघर्ष भी उनका खूब ख्याल रखता, इसीलिए उनका शुरूआती सफर भी बहुत ही संघर्षों भरा रहा। जब उन्होंने पढ़ाई शुरू की, तब लोगों ने कहा कि राजा के बेटे को पढ़ने की क्या जरूरत। अब यह एक अलग ही सामाजिक संघर्ष था। लेकिन श्री शाहदेव को उनके पिता ने पढ़ाना शुरू किया। उन्हें बखूबी पता था कि ज्ञान से बड़ा खजाना और कुछ नहीं। वह अपने बेटे को इस खजाने से वंचित नहीं रखना चाहते थे। भले राजपाट और जमींदारी चली गयी थी, लेकिन उस परिवार ने कभी भी बुलंदियों को भी अपने माथे से नहीं लगाया। कहते हैं, संस्कार जीवन का वह अमूल्य रत्न है, जिसे न खरीदा जा सकता है और न बेचा। उसे सिर्फ तराशा जा सकता है। वही संस्कार रूपी रत्न बाल शाहदेव के पिता ने उनके अंदर जड़ा। यह बाल शाहदेव के मस्तिष्क में आने ही नहीं दिया कि वह राज परिवार का सपूत है। पढ़ो और खूब पढ़ो, इसी मंत्र से उन्होंने बाल शाहदेव का पालन पोषण किया। श्री शाहदेव में संस्कार कूट-कूट कर भरा था। वह शुरू से ही आदर्श पथ पर चलते थे।
उठाया बोरा और सरकारी स्कूल में बैठ गये पढ़ने
उनकी प्रारंभिक शिक्षा लातेहार जिला के बीहड़ जंगलों के आसपास के इलाके में ही हुई। वह जंगल जितना घना था, उतना ही अनोखा था। उस जंगल के घनत्व में कुछ तो बात रही होगी, जिसने श्री शाहदेव के रगों में संघर्षों से लड़ने की शक्ति भर दी। उन्हें पढ़ना था। खूब पढ़ना था। फिर क्या था, बाल शाहदेव ने खुद का बोरा उठाया और जमीन पर बिछा कर सरकारी स्कूल में पढ़ाई शुरू की। कक्षा पांच तक वह उसी सरकारी स्कूल में पढ़े। पढ़ने की ललक इतनी कि बीहड़ से निकल पहुंच गये रांची के रातू रोड। काका का घर था और श्री शाहदेव वहीं रह कर पढ़ने लगे। उन्होंने अपनी 10वीं तक की पढ़ाई बालकृष्णा स्कूल से पूरी की। उसके बाद उन्होंने रांची कॉलेज से अपनी इंटर और ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की। उनदिनों राज परिवार के लोग अपनी संपत्ति एशो-आराम के लिए बेचा करते थे, लेकिन श्री शाहदेव के हिस्से जो संपत्ति आयी थी, उन्होंने उसे अपने पढ़ाई में लगा दी। शुरू से ही संघर्ष पथ पर चलने वाले श्री शाहदेव की जिंदगी में संघर्ष कम नहीं था कि अब नित दिन और नये-नये संघर्षों से उनका सामना होता गया। अब जब दोस्ती ही संघर्ष से कर ली थी, तो सामना तो होता रहेगा। अपने काका के यहां रह कर जब वह पढ़ा करते थे, उस दौरान वहां काफी संख्या में और भी बच्चे रह कर पढ़ा करते थे। पढ़ाई में फोकस बहुत जरूरी होता है। यह वही समझ सकता है, जो पढ़ता है। लेकिन अपने फोकस से श्री शाहदेव डिगे नहीं। मन लगा कर बस पढ़ते रहे। कभी राज परिवार के सपूत रहे श्री शाहदेव के पिता की जमींदारी छिन जाने से आर्थिक तंगी और संघर्ष जिंदगी का एक हिस्सा बन गया। इस संघर्ष का चरम यह रहा कि उन्हें कई बार मैले कपड़े पहन कर भी स्कूल जाना पड़ता था, लेकिन पढ़ाई का जूनून इस कदर था कि वह डिगे नहीं। उन्हें उनके कपड़ों में कभी मैल दिखा ही नहीं। सिर्फ पढ़ना था उन्हें।
कानून पढ़ने पहुंचे पटना, मिंटू लॉज और लोटा की कहानी भी बड़ी रोचक
श्री शाहदेव कानून पढ़ना चाहते थे। उस वक्त रांची में कानून की पढ़ाई नहीं होती थी। फिर क्या था, उन्होंने बैग पैक किया और पटना निकल गये। यहां उनकी मुलाकात एक और नये संघर्ष से हुई। बेस्ट फ्रेंड था संघर्ष। साथ नहीं छोड़ता था। यहां संघर्ष का नाम था मिंटू लॉज। श्री शाहदेव मिंटू लॉज में रहने लगे। मिंटू लॉज की भी अलग कहानी थी। वहां पर 50 बच्चों के लिए एक टॉयलेट हुआ करता था। सुबह-सुबह लोटा ले कर लाइन में लगना पड़ता था। सभी को अपने-अपने लोटे की पहचान भी होती थी। आप समझ सकते हैं कि यह तमाम संघर्षों से भी बड़ा संघर्ष था कि आप सुबह-सुबह एक-दो घंटे लोटा लेकर लाइन में खड़े रहिये। एक राज परिवार का खून हाथ में लोटा लिये टॉयलेट के पास खड़ा हो और अपना नंबर आने का इंतजार कर रहा हो। खैर अगर इंसान जुनूनी है, तो ये सारी तकलीफें मामूली बन जाती हैं। मिंटू लॉज में रहकर और अनेकों कठिनाइयां सहकर उन्होंने पटना लॉ कॉलेज से लॉ की पढ़ाई पूरी की।
न्यायिक सेवा में एंट्री और प्रभा शाहदेव का आगमन
श्री शाहदेव का जन्म एक अहम कार्य के लिए हुआ था और उस कार्य को करने वह निकल पड़े थे। साल था 1958, जब एलपीएन शाहदेव ने न्यायिक सेवा में एंट्री मारी। उनकी नियुक्ति मुंसिफ मजिस्ट्रेट के रूप में हुई। उन्हें पूरे बिहार में सातवां स्थान प्राप्त हुआ था। जब मेडिकल हुआ, तब इन्हे ब्लड-प्रेशर की शिकायत हो गयी। ब्लड-प्रेशर के कारण मेडिकल बोर्ड ने इन्हें रिजेक्ट कर दिया। फिर श्री शाहदेव ने हाइकोर्ट में अपील की। इस बीच उन्होंने डॉक्टर से संपर्क भी किया। इनका बीपी भी कंट्रोल हो गया था। हाइकोर्ट ने कहा कि अगर दवा से बीपी कंट्रोल हो रहा है, तो इन्हे थोड़े मिलिट्री सर्विस में जाना है। फिर से बीपी जांचा गया। बीपी नॉर्मल था। करीब नौ महीने के संघर्ष के बाद श्री शाहदेव को नौकरी में रखा गया। साल 1960 में श्री शाहदेव की शादी प्रभा शाहदेव से हो गयी। प्रभा शाहदेव तत्कालीन डीएसपी शिव प्रसाद सिंह की पुत्री थीं। जैसे ही श्री शाहदेव के जीवन में प्रभा शाहदेव का आगमन हुआ, मानो श्री शाहदेव का भाग्योदय हो गया। प्रभा शाहदेव एमए पास थीं। वह आसानी से लेक्चरर बन सकती थीं, लेकिन उन्होंने परिवार को संभालना ज्यादा उचित समझा। वह जीवन भर जस्टिस एलपीएन शाहदेव की सबसे मजबूत स्तंभ बन कर रहीं। दोनों के पांच बच्चे हुए। चार लड़की और एक लड़का। सबसे बड़ी पुत्री संगीता देव, उसके बाद कृति देव, बबिता देव, शिल्पी सिंहदेव और सबसे छोटे पुत्र प्रतुल शाहदेव। प्रतुल शाहदेव आज जानी-मानी राजनीतिक शख्सियत हैं। वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रदेश प्रवक्ता हैं।
जब न्यायमूर्ति एलपीएन शाहदेव की पोस्टिंग धनबाद और गया में हुई
अपने कार्यकाल के दौरान श्री शाहदेव की पोस्टिंग कई जगहों पर हुई, लेकिन साल 1980 में न्यायमूर्ति शाहदेव धनबाद में डिस्ट्रिक्ट जज बने। वह गया में भी डिस्ट्रिक्ट जज रह चुके थे। ये दोनों जगहें उन दिनों बहुत ही कुख्यात थीं। धनबाद तो कोयला तस्करों के लिए पहले से ही कुख्यात था और गया था नक्सलवाद के लिए। न्यायमूर्ति शाहदेव की छवि बहुत ही कड़क जज की रही थी। वह निडर थे। उन्होंने बखूबी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन किया।
कभी खुद का बोरा लिये स्कूल जाने वाला बच्चा आज हाइकोर्ट का जज था
साल 1986 के सितंबर में न्यायमूर्ति एलपीएन शाहदेव हाइकोर्ट के जज बने। एक मुंसिफ मजिस्ट्रेट से हाइकोर्ट के जज तक का सफर आसान नहीं था। उन दिनों यह कोई आम बात नहीं थी कि कोई मुंसिफ मजिस्ट्रेट से अपना सफर शुरू किया हो और सब जज, एडिशनल जज, डिस्ट्रिक्ट जज का रास्ता अख्तियार करते हुए हाइकोर्ट का जज बना हो। यह सिर्फ और सिर्फ न्यायमूर्ति शाहदेव का जुनून और काम के प्रति निष्ठा ही थी, जो कभी खुद का बोरा लिये स्कूल जाने वाला बच्चा आज हाइकोर्ट का जज था। उसके बाद उनका तबादला पटना हाइकोर्ट के रांची बेंच में हुआ। यहीं से वह 1992 में रिटायर भी हुए।
कूद पड़े अलग झारखंड राज्य के आंदोलन में
लेकिन यह रिटायरमेंट तो न्यायिक सेवा से हुआ था, असल में तो यहां से अब उनकी नयी शुरूआत होनेवाली थी। नयी शुरूआत, मतलब अब जिंदगी के सबसे बड़े संघर्ष से उनकी मुलाकात होनेवाली थी। अब जब उन्होंने यारी ही संघर्ष से कर ली थी, तो आराम तो उनके लिए हराम ही था। निकल पड़े अपने नये सफर की ओर, नये पड़ाव की ओर, एक नये संघर्ष की ओर। संघर्ष अलग राज्य का, संघर्ष झारखंड का। यहां बताना महत्वपूर्ण हो जाता है कि जस्टिस शाहदेव झारखंड के पहले भूमिपुत्र थे, जिन्हें उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। जब न्यायमूर्ति शाहदेव सेवानिवृत्त हुए, तो वह बैठे नहीं। उन्होंने कलम उठा ली। अपने लेखों के जरिये, विचारों के जरिये कई सार्वजनिक मंचों और अखबारों से अलग झारखंड राज्य के लिए उन्होंने तपस्या शुरू की। उनके प्रयासों से सदानों का एक बड़ा वर्ग तथा राज्य के बुद्धिजीवी भी अलग राज्य के आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। न्यायमूर्ति शाहदेव ने 1998-1999 के दौर में अलग राज्य के आंदोलन का नेतृत्व किया था। रिटायरमेंट के बाद वह खुल कर अलग राज्य के आंदोलन से जुड़ गये। इनका हरमू आवास आंदोलनकारियों और नेताओं का अड्डा हुआ करता था। यहां आंदोलन की रूपरेखा से लेकर स्वरूप तक पर व्यापक चर्चा होती थी।
केंद्र सरकार के सामने तन कर खड़े रहे
जब-जब केंद्र सरकार ने आंदोलन को संवैधानिक भूल-भुलैया में फंसाने की कोशिश की, तो न्यायमूर्ति शाहदेव कानून विशेषज्ञ के रूप में सामने आये। उसी वक्त सर्वदलीय अलग राज्य निर्माण समिति अस्तित्व में आयी थी। अलग राज्य के प्रबल समर्थक एवं गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने के कारण सर्वसम्मति से न्यायमूर्ति शाहदेव को सर्वदलीय अलग राज्य निर्माण समिति का संयोजक चुना गया। 1998 में श्री शाहदेव ने सर्वदलीय अलग राज्य निर्माण समिति के संयोजक के रूप में आंदोलन की कमान भी संभाल ली। यह वह दौर था, जब झारखंड में भाजपा, झारखंड मुक्ति मोर्चा, आजसू, वामदल, जदयू सहित विभिन्न विचारधारा के कुल 16 दल अलग राज्य के गठन के लिए एक मंच पर आये थे। यह झारखंड आंदोलन के बिखराव और ठहराव का दौर था। 1998 में केंद्र सरकार ने झारखंड राज्य के गठन संबंधी बिल को सदन में पेश कर राय जानने के लिए बिहार विधानमंडल में भेजने की घोषणा की थी। यह वही दौर था, जब बिहार सरकार का दमन चरम पर था। बिहार सरकार अलग राज्य नहीं देना चाहती थी और आंदोलनकारी अलग राज्य के लिए मर-मिटने तक को तैयार थे।
जब लालू यादव ने कहा, झारखंड मेरी लाश पर बनेगा
इस घोषणा से बौखला कर लालू प्रसाद यादव ने कहा था कि बिहार का बंटवारा उनकी लाश पर होगा। तारीख 21 सितंबर, साल 1998। बिहार विधानमंडल में झारखंड विधेयक पर वोटिंग होनी थी। बिहार विधानसभा में उत्तर और मध्य बिहार के विधायकों के बहुमत को देखते हुए यह निश्चित था कि झारखंड विधेयक विधानसभा में गिर जायेगा। सर्वदलीय अलग राज्य निर्माण समिति की संयोजक मंडली ने यह निर्णय लिया कि 21 सितंबर को ही झारखंड बंद का आयोजन हो। इसके पीछे तर्क था कि विधेयक तो विधानसभा में वोटिंग के दौरान गिर जायेगा, लेकिन अगर झारखंड बंद सफल रहा, तो केंद्र को यह स्पष्ट संदेश जरूर जायेगा कि अलग राज्य के मुद्दे पर झारखंड एकमत है। उन दिनों लालू यादव द्वारा यह दुष्प्रचार किया जा रहा था कि झारखंड की मांग सिर्फ मुट्ठी भर आदिवासियों की मांग है। लालू प्रसाद यादव ने बंद को विफल करने के लिए पूरी तैयारी की थी। पूरी रांची पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी थी, लेकिन झारखंड की जनता में भी लालू यादव के खिलाफ जबरदस्त उबाल था। ऐसा प्रतीत होता था कि दक्षिण बिहार उसी समय शेष बिहार से मानसिक रूप से अलग हो गया हो। राजनीतिक दलों के अतिरिक्त झारखंड क्षेत्र के लगभग सभी व्यावसायिक और सामाजिक संगठनों ने बंद का समर्थन किया था। कुछ ऐसा नजारा था कि जनता आगे और नेता पीछे हो गये।
जब न्यायमूर्ति एलपीएन शाहदेव की गिरफ्तारी से पूरे देश में हड़कंप मच गया
फिर 21 सितंबर का वह दिन भी आ गया। झारखंड में अभूतपूर्व बंद का आयोजन किया गया। न्यायमूर्ति शाहदेव की नेतृत्ववाली 16 राजनीतिक दलों की सर्वदलीय अलग राज्य निर्माण समिति अब कमर कस चुकी थी। पहले माटी और फिर पार्टी का नारा बुलंद हुआ। हजारों-हजार कार्यकर्ता सड़क पर उतर गये थे। कहीं कोई जोर-जबरदस्ती नहीं हुई। लोग खुद ही स्वेच्छा से बंद को सफल बनाने निकल पड़े। रेल आवागमन भी प्रभावित हुआ। बस, टेंपो और अन्य साधन भी ठप रहे। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे पूरा झारखंड एक होकर कह रहा हो कि अब हमें बिहार से मुक्ति दो। आंदोलन के क्रम में 21 सितंबर को झारखंड बंद के दौरान जुलूस का नेतृत्व करते हुए न्यायमूर्ति शाहदेव को पुलिस ने शहीद चौक के पास गिरफ्तार कर लिया। उन्हें कोतवाली ले जाया गया। वहां उन्हें और उनके संग सैकड़ों कार्यकतार्ओं को घंटों रखा गया। न्यायमूर्ति शाहदेव की गिरफ्तारी से पूरे देश में हड़कंप मच गया था, क्योंकि पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को आंदोलन के क्रम में गिरफ्तार किया गया हो। आंदोलन के इस दौर में न्यायमूर्ति शाहदेव ने एक नयी ऊर्जा का संचार किया था। सदानों का एक बड़ा वर्ग, जो इस आंदोलन को शंका से देखता था, वह भी इस आंदोलन से पूरे तरीके से जुड़ गया था। कई बार ऐसा समय भी आया, जब केंद्र सरकार ने झारखंड राज्य के आंदोलन को संवैधानिक भूल-भुलैया में उलझाने की कोशिश की थी। तब न्यायमूर्ति शाहदेव ने इसका जबरदस्त प्रतिकार किया था। उन्होंने ही सर्वप्रथम बताया था कि अगर बिहार विधानसभा विरोध भी करे, तो भी अलग राज्य का गठन हो सकता है। श्री शाहदेव ने यह भी स्पष्ट किया था कि अलग राज्य के गठन संबंधी विधेयक को सदन में मामूली बहुमत से भी पारित कराया जा सकता है। इस विधेयक से संविधान संशोधन होने के कारण ज्यादातर लोग यह समझते थे कि इसे पारित करने हेतु दो-तिहाई बहुमत की जरूरत है। न्यायमूर्ति शाहदेव ने विधि विशेषज्ञ के रूप में झारखंड आंदोलनकारियों के प्रतिनिधि के रूप में कई बार केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों से बातचीत की थी। केंद्र भी झारखंड आंदोलन की व्यापकता के कारण इसे नजरअंदाज नहीं कर पाया।
सपना हुआ साकार, मिल गया झारखंड
न्यायमूर्ति एलपीएन शाहदेव झारखंड आंदोलन की रीढ़ थे। झारखंड आंदोलनकारियों का जूनून ही था, जब 1999 में अलग राज्य झारखंड का बिल पास हुआ और 2000 में झारखंड बना। झारखंड बनने के बाद भी न्यायमूर्ति शाहदेव सामाजिक रूप से उतने ही सक्रिय रहे। वह बैठे नहीं रहे। उन्होंने फिर एक और नया लक्ष्य निर्धारित किया। आंदोलनकारियों के हक की लड़ाई की कमान संभाली। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद आंदोलनकारियों के साथ गलत बर्ताव हो रहा था। बहुत से आंदोलनकारियों को पुराने केस में जेल में बंद किया जाने लगा था। उसी क्रम में चाइबासा के एक आंदोलनकारी भी इसका शिकार हुए। न्यायमूर्ति शाहदेव उस आंदोलनकारी के घर पहुंच गये और उसे हर प्रकार की कानूनी सहायता दी। वहीं पर उन्होंने कहा था और अखबार में लिखा भी था कि जिन आंदोलनकारियों को सम्मान मिलना चाहिए था, उन्हें जेल मिल रहा है।
झारखंड की सत्ता यहां के आदिवासियों और मूलवासियों के हाथ में होनी चाहिए
जस्टिस एलपीएन शाहदेव का मानना था कि झारखंड की सत्ता यहां के आदिवासियों और मूलवासियों के हाथ में होनी चाहिए, क्योंकि झारखंड को वही समझ सकते हैं। उसका अपेक्षित विकास कर सकते हैं। उनका कहना था कि पांच दशकों तक झारखंड बिहार के अधीन रहा, लेकिन बिहार ने इसका सिर्फ दोहन ही किया। खनिज संपदा से संपन्न झारखंड को हमेशा उपेक्षित होना पड़ा। यहां के लोगों को तरजीह नहीं दी जाती थी। विकास भी झारखंड से कोसों दूर था। श्री शाहदेव का मानना था कि झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों को उनका हक मिलना चाहिए। उनका स्पष्ट मानना था कि झारखंड के लोग बिहार जाकर चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, लेकिन बिहार के लोगों को यहां के लोग सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। अब समय आ गया है कि झारखंड के लोग भी अपनी किस्मत का फैसला खुद करें।
शिक्षा के क्षेत्र में सुधार
2005 में न्यायमूर्ति शाहदेव को झारखंड शिक्षा न्यायाधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम किया। उनकी यह भी कोशिश रही कि एक कक्षा में उतने ही छात्र होने चाहिए, जितने जरूरी हों। ठूंसनेवाली प्रथा के वह खिलाफ थे। उन्होंने अपने शुरूआती दौर में ही यह पाठ पढ़ लिया था। वह प्राइवेट स्कूल में फीस स्ट्रक्चर को लेकर भी बहुत मुखर रहे। जस्टिस एलपीएन शाहदेव की मृत्यु 10 जनवरी 2012 को हुई। जिस झारखंड अलग राज्य के लिए जस्टिस शाहदेव सड़क पर उतरे, पुलिस गिरफ्त में आये, उस झारखंड ने भी अपने भूमिपुत्र का मान रखा। उनकी पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए ही जिस स्कूल में एक बालक के रूप में वह टाट का बोरा लेकर पढ़ने जाया करते थे, आज उन्हीं के नाम से वह स्कूल जाना जाता है। उस स्कूल का नामकरण राज्य मंत्रिमंडल ने 2012 में जस्टिस एलपीएन शाहदेव उत्क्रमित उच्च विद्यालय कर दिया। यही नहीं, जिन आंदोलनों की बदौलत झारखंड अलग राज्य बना, उनमें शामिल आंदोलनकारियों को सम्मान देने की परंपरा भी कायम हुई। न्यायमूर्ति शाहदेव का तैल चित्र विधानसभा में लगाया गया है, जिसका अनावरण तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह ने किया था। यही नहीं, मुख्यमंत्री आवास के सामने स्थित चौक का नामकरण जस्टिस एलपीएन शाहदेव चौक किया गया, जिसका उद्घाटन 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने किया था। हर साल 10 जनवरी को उस चौक पर हजारों-हजार लोग अपने नायक के सम्मान में सिर नवाते हैं। पुष्प अर्पित करते हैं। यह सच है कि जानेवाले लौट के कभी नहीं आते, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनके कर्म बार-बार याद आते हैं और उन कर्मों को याद कर लोग अपने नायक के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। आज उस नायक को श्रद्धासुमन के रूप में मेरे दो शब्द।