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    Home»विशेष»झारखंड और केंद्र में चल रहा बकाया-बकाया का खेल
    विशेष

    झारखंड और केंद्र में चल रहा बकाया-बकाया का खेल

    shivam kumarBy shivam kumarJanuary 18, 2025No Comments7 Mins Read
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    विशेष
    झारखंड के बाद अब केंद्र ने झारखंड से मांग लिये 13 हजार 299 करोड़ का बकाया
    झारखंड भी अड़ा, पहले मेरे 1.36 लाख करोड़ का बकाया तो लौटाओ
    रास्ता नहीं निकला, तो बकाये के इस खेल में नुकसान दोनों को उठाना पड़ सकता है

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड के साथ केंद्र के रिश्तों में एक बार फिर से तनाव पैदा होने की संभावना दिखाई देने लगी है। केंद्र सरकार ने झारखंड से अपना 13 हजार 299 करोड़ रुपये का बकाया भुगतान करने को कहा है। इसे लेकर झारखंड सरकार में गहमा-गहमी है। केंद्र सरकार द्वारा बकाये की मांग का समुचित जवाब देने की तैयारी की जा रही है। लेकिन इस मांग और उसके जवाब के बीच यह सवाल अब जोर पकड़ने लगा है कि क्या केंद्र और झारखंड के बीच का रिश्ता इतना कड़वा हो गया है। दरअसल बकाये का यह विवाद पहले से ही टकराव का कारण बना हुआ है। झारखंड ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र से अपने बकाये का 1.36 लाख करोड़ का बकाया मांगना शुरू किया, लेकिन लोकसभा के शीतकालीन सत्र में केंद्र सरकार ने इस बकाये के दावे को नकार दिया। अब केंद्र ने अपने बकाये का दावा कर दिया है, तो बकाये का यह मुद्दा एक बार फिर गरम हो गया है। अब केंद्र द्वारा झारखंड के दावे को नकारे जाने और अपना बकाया मांगने के बाद झारखंड के साथ उसके रिश्तों में खटास आना अवश्यंभावी हो गया है। यह खटास न केवल झारखंड के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है, क्योंकि देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयले का 40 फीसदी हिस्सा झारखंड ही देता है। दूसरे खनिज भी झारखंड से ही मिलते हैं। जाहिर है अगर झारखंड को उसके बकाये का भुगतान नहीं होगा, तो उसके खिलाफ आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार होगी और फिर एक न एक दिन कोयले के उठाव पर असर पड़ेगा। इसलिए बकाये के मुद्दे पर अब दोनों पक्षों के बीच बातचीत कर इसे सुलझाने की जरूरत है, ताकि रिश्तों में खटास पैदा नहीं हो। क्या है बकाये का विवाद और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड के 1.36 लाख करोड़ के बकाये के दावे को नकारने के बाद अब केंद्र सरकार ने राज्य से अपना 13 हजार 299 करोड़ का बकाया भुगतान करने की मांग कर दी है। केंद्र सरकार ने कहा है कि झारखंड ने केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती के एवज में दिये जानेवाले प्रतिनियुक्ति भत्ते का भुगतान लंबे समय से नहीं किया है। यह रकम 13 हजार 299 करोड़ हो गयी है। इसलिए इसका भुगतान किया जाये। केंद्र सरकार के दावे के बाद झारखंड में इसका समुचित जवाब दिये जाने की तैयारी शुरू हो गयी है। इसके साथ ही अब यह भी तय हो गया है कि बकाये के मुद्दे पर केंद्र और झारखंड के बीच टकराव होकर रहेगा। एक विशुद्ध आर्थिक विषय को सियासत के अखाड़े में खींच कर इस मुद्दे को अनावश्यक तूल दिया जा रहा है।

    आर्थिक मुद्दे पर पहले भी होता रहा है टकराव
    आर्थिक मुद्दों पर झारखंड और केंद्र के बीच टकराव का यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले 2019-20 में दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) ने झारखंड को बिना बताये उसके खाते से अपने बकाये का चार सौ करोड़ रुपया निकाल लिया था। देश के इतिहास में यह पहली बार था, जब किसी खाताधारक की अनुमति के बिना उसके खाते से किसी तीसरी पार्टी ने रकम निकाल ली हो। वह भी तब, जब डीवीसी का पूरा कारोबार झारखंड की जमीन से चलता है और उसने झारखंड के हजारों करोड़ रुपये बाकी रखे हैं। इस मुद्दे ने जब तूल पकड़ा, तो रिजर्व बैंक को बीच-बचाव करना पड़ा।

    क्या है बकाये का मुद्दा
    केंद्र द्वारा झारखंड से अपना बकाया मांगे जाने से पहले झारखंड ने उससे 1.36 लाख करोड़ का बकाया मांगा था। कोयला और दूसरे खनिजों की रॉयल्टी का यह मुद्दा पिछले साल अगस्त में पैदा हुआ। पिछले साल 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को एक अप्रैल 2005 के बाद से रॉयल्टी का पिछला बकाया वसूल करने का अधिकार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के अपने फैसले को पलटते हुए कहा था कि राज्यों के पास खनिजों पर टैक्स लगाने का अधिकार है। पहले यह अधिकार केंद्र सरकार के पास होता था। कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा खनन कंपनियों द्वारा खनिज संपन्न राज्यों को बकाये का भुगतान अगले 12 वर्ष में क्रमबद्ध तरीके से किया जा सकता है। इसके साथ ही कोर्ट ने खनिज संपन्न राज्यों को रॉयल्टी के बकाये के भुगतान पर किसी तरह का जुर्माना नहीं लगाने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश केंद्र की उस याचिका को खारिज करते हुए दिया था, जिसमें 25 जुलाई के उसके फैसले के संभावित प्रभाव के बारे में पूछा गया था। इस फैसले में राज्यों को खनिज अधिकारों और खनिज युक्त भूमि पर कर लगाने के अधिकार को बरकरार रखा गया था और उन्हें एक अप्रैल, 2005 से रॉयल्टी का बकाया मांगने की अनुमति दी गयी थी।

    फैसले के बाद झारखंड ने उठायी मांग
    सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद झारखंड सरकार ने हिसाब लगाया कि केंद्र सरकार के पास उसके रॉयल्टी मद में 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं। इस बकाये के भुगतान के लिए मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ने केंद्र को पत्र लिखा। सीएम हेमंत सोरेन ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले 24 सितंबर को भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। चुनाव में इसे मुद्दा भी बनाया। पत्र में सीएम ने कहा था कि कोयला कंपनियों पर हमारा 1.36 लाख करोड़ रुपये बकाया है। कानूनी प्रावधानों और न्यायिक घोषणाओं के बावजूद कोयला कंपनियां भुगतान नहीं कर रही हैं। बकाया राशि का भुगतान न होने के कारण झारखंड का विकास और आवश्यक सामाजिक-आर्थिक परियोजनाएं बाधित हो रही हैं।

    केंद्र सरकार ने झारखंड के दावे को नकारा
    संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान 15 दिसंबर को पूर्णिया के निर्दलीय सांसद पप्पू यादव के प्रश्न के लिखित उत्तर में केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी ने कहा था कि केंद्र सरकार पर झारखंड का कुछ भी बकाया नहीं है। लोकसभा में सरकार के इस जवाब का झारखंड ने विरोध भी किया था और फिर अपने स्तर से बकाया वसूली के लिए कानूनी रास्ता अख्तियार करने का फैसला किया। इसके लिए कागजी कार्रवाई भी पूरी कर ली गयी। इसी महीने की शुरूआत में केंद्रीय कोयला मंत्री ने अपने झारखंड दौरे के दौरान कहा कि झारखंड अपने बकाया भुगतान के लिए टकराव का रास्ता छोड़ कर बातचीत करे। यानी कोयला मंत्री एक तरह से यह स्वीकार किया कि झारखंड का बकाया है।

    2020 में ढाई सौ करोड़ दिया था कोयला मंत्रालय ने
    केंद्र द्वारा झारखंड के बकाये से इनकार किये जाने के बाद यह सवाल भी उठा था कि जब झारखंड का कोई बकाया नहीं है, तब 2020 में तत्कालीन कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ढाई सौ करोड़ रुपये की रकम क्यों दी थी। यह रकम कोयला कंपनियों द्वारा जमीन लिये जाने के एवज में बकाया रकम के रूप में दी गयी थी। उस समय कहा गया था कि कोयला कंपनियों के पास झारखंड का करीब आठ हजार करोड़ रुपये बकाया है। यह बकाया केवल जमीन की कीमत है।

    मिल जुल कर खोजना होगा रास्ता
    अर्थशास्त्री कहते हैं कि पिछले दो दशकों में केंद्र के स्तर पर सेस लगाने का चलन बढ़ा है। केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी वित्त आयोगों की सिफारिशों के आधार पर तय की जाती है, लेकिन सेस में राज्यों को कुछ नहीं मिलता। वहीं, राज्य जीएसटी के चलते अपने राजस्व स्रोत घटने की शिकायतें करते रहे हैं। कैश ट्रांसफर योजनाओं में भी संयम की जरूरत है। केंद्र और राज्यों को मिलजुल कर इसका रास्ता निकालना होगा।

    झारखंड के साथ टकराव से होगा नुकसान
    इधर बकाये को लेकर झारखंड के साथ टकराव से देश का नुकसान होना तय है। इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों को बैठना होगा। यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि आंकड़ों का हिसाब है। झारखंड का पक्ष जानना भी जरूरी है। यदि तनाव बढ़ा, तो झारखंड में इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है, जिसका नुकसान पहले भी दिख चुका है। खनिजों का परिवहन रोकने से लेकर आर्थिक नाकेबंदी तक का परिणाम देश भुगत चुका है। इसलिए इस बकाये के मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझाना ही अच्छा होगा।

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