जब ‘जॉली-एलएलबी 2′ फिल्म में अरशद की जगह अक्षय को लिया गया था, तो इससे उम्मीदें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं। कुछ समय बाद जब इसका ट्रेलर सामने आया, तो लगा कि,’गुरु, वो बात नहीं है!’ पर जब पूरी फिल्म सामने आई, तो समझ में आया कि ट्रेलर में झोल था। जो सीन फिल्म की जान है, वो तो उसमें थे ही नहीं। कुल मिलाकर फिल्म उतनी हल्की नहीं है जितनी ट्रेलर देखकर लग रही थी।

आपको लग रहा होगा कि हम इस तरह क्यों बात कर रहे हैं। वह इसलिए, कि इस बार अपना जॉली कनपुरिया, यानी कानपुर का रहने वाला है। बीएएलएलबी डिग्री धारक जॉली लखनऊ के एक नामी वकील के यहां मुंशीगिरी करता है। कानपुर की रंगबाजी वाली और लखनऊ की नजाकत-नफासत वाली बोली-दोनों ही फिल्म में काफी असर डालती है।

ऐसा ही एक संवाद है-‘ये लखनऊ है मियां, यहां तू-तड़ाक वाली भाषा नहीं चलती। यहां चिकन खाया भी जाता है और पहना भी जाता है।’ संवादों के अलावा फिल्म की लोकेशन भी इसकी कहानी को विश्वसनीय बनाती है। फिर चाहे वह कोर्ट के अंदर की हो या बाहर की।

फिल्म की कहानी इसके पहले भाग वाले ट्रैक पर ही चलती है। दोनों फिल्मों की तुलना होना लाजिमी था और फिल्म देखते मन खुद-ब-खुद यह तुलना करने लगता है। मुख्य किरदार के रूप में जहां अरशद ने अपनी सहज कॉमिक टाइमिंग से इसके पहले भाग में जान डाल दी थी, वहीं दूसरे भाग में अक्षय कुमार ने भी अपने स्टारडम को अपने काम पर हावी नहीं होने दिया है, हालांकि कहीं-कहीं उनका देशभक्ति पर भाषण देना अखरता है।

जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी के रोल में सौरभ शुक्ला इस फिल्म की जान है

जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी बने सौरभ शुक्ला इस फिल्म की जान है। उनकी एंट्री ही इतनी जबर्दस्त है जिसके बाद आप इंतजार करते हैं कि वह फ्रेम में कब नजर आएंगे। एक सीन में जब वह कोर्टरूम में लगे ‘मोबाइल फोन निषेध है’ वाले बोर्ड के सामने बैठकर शादी की तैयारियों में लगी अपनी बेटी को कॉल पर समझाते हैं कि, लखनऊ के हरीश मल्होत्रा का लहंगा फैशन डिजाइनर मनीष मल्होत्रा के लहंगे से किसी मामले में कम नहीं है, तो खुद-ब-खुद ही हंसी आती है।

यह कहना गलत नहीं होगी कि अगर इस फिल्म से सौरभ का किरदार हटा दिया जाए, तो यह काफी हद तक हल्की हो जाएगी। वहीं जॉली के खिलाफ केस लड़ने वाले वकील का किरदार निभाने वाले अन्नू कपूर इस फिल्म में उम्मीदों पर खरे उतरते नजर नहीं आते। बात तो तब होती जब आपके मन में इस किरदार के प्रति नफरत या डर के भाव आते हैं, पर ऐसा नहीं होता।

फिल्म का संगीत औसत है

चीखने चिल्लाने वाले इस किरदार के स्क्रीन पर आते ही एक अजीब सी खीझ पैदा होने लगती है और आप मनाते हैं कि काश इसे कम-से-कम फ्रेम्स में देखना पड़े। ऐसा इरादतन किया गया या बस हो गया, यह तो इसे बनाने वाले ही बता सकते हैं, पर यह तो तय है कि बमन इस किरदार को निभाते हुए ज्यादा सहज लगे थे। वहीं सौरभ शुक्ला के अलावा जो दूसरे लोग इस फिल्म की जान हैं, वह हैं ‘मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ’ फेम सयानी गुप्ता और संजय मिश्रा। दोनों की भूमिकाएं छोटी होते हुए भी प्रभावी हैं। हुमा कुरैशी के पास करने को कुछ ज्यादा नहीं था, पर जितनी देर भी स्क्रीन पर आईं, अच्छी लगीं।

फिल्म का संगीत औसत है। सुखविंदर सिंह की आवाज में सूफी कव्वाली ‘ओ रे रंगरेजा’ सुनने में अच्छा बन पड़ी है। होली गीत ‘गो पागल’ का फिल्मांकन काफी प्रभावी है।

रेटिंग- 3 स्टार

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