रांची। देश की सबसे प्रतिष्ठित और सक्षम जांच एजेंसी सीबीआइ की साख और उसके अधिकारियों के गिरते मनोबल का खामियाजा देश लंबे समय तक भोगेगा। दुर्भाग्य यह है कि दो शीर्ष अफसरों के विवाद के बाद अब जो कुछ हो रहा है, वह और भी शर्मनाक है। देश की राजनीति भी सीबीआइ पर केंद्रित हो गयी है। सीबीआइ की स्थापना अप्रैल 1963 में हुई थी। इससे पूर्व इस संगठन को विशेष पुलिस प्रतिष्ठान के रूप में जाना जाता था, जिसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के अंतर्गत बनाया गया था और जो इसी अधिनियम के अनुसार परिचालित होती थी। बाद में इस संगठन के कार्यकलापों को विस्तृत कर दिया गया।
यह भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय तथा विश्वसनीयता प्राप्त प्रशासनिक संस्था है। परिश्रम, निष्पक्षता, सच्चरित्रता के ध्येय वाक्य को लेकर कार्यरत देश की इस शीर्षस्थ जांच एजेंसी का मुख्य लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में मूल्यों के संरक्षण तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप बनाये रखना है। देश का यह प्रतिष्ठित बल इंटरपोल के साथ समन्वय भी स्थापित करता है। नितांत पेशेवर कार्यशैली से युक्त सीबीआइ ने कई मौकों पर अपनी श्रेष्ठता साबित की है। इस स्वायत्त एजेंसी को राज्य के सुरक्षा संबंधी मामलों के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्व के मामलों की जांच का काम भी सौंपा गया है।
सीबीआइ और सरकार की कार्यशैली को आंकें तो यह ज्ञात होता है कि इमरजेंसी से पहले किसी भी जांच प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप के मामले नहीं के बराबर थे। कुछ मामलों में ऊपरी दबाव होते थे, पर वे राजनीतिक शिष्टाचार के दायरे में या सिफारिशी होते थे। लेकिन इमरजेंसी के बाद सत्ता का विकृत रूप संस्थाओं को अपने अधीन करता गया।
पिछले साल के अंतिम दिनों में पहली बार सीबीआइ प्रत्यक्ष रूप से विवादों में आयी। एजेंसी के तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा ने अप्रत्याशित कदम उठाते हुए अपने उप प्रमुख विशेष निदेशक राकेश अस्थाना समेत चार लोगों के खिलाफ घूसखोरी का आरोप लगाते हुए मुकदमा दर्ज कर लिया। इसके बाद रातों-रात वर्मा और अस्थाना को हटा दिया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वहां से वर्मा की वापसी हुई, लेकिन 48 घंटे के भीतर ही उन्हें हटा दिया गया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि सीबीआइ में पदस्थ अधिकारियों के संपर्क राजनीति में नहीं हैं। सीबीआइ विवाद के तार राजनीति और 2019 में होने वाले आम चुनाव से जुड़े हैं।
फिलहाल यह विवाद शांत होता दिख रहा था कि कोलकाता का विवाद सामने आ गया। शारदा चिटफंड घोटाले की जांच के मुद्दे पर सीबीआइ और कोलकाता पुलिस के बीच हुई लड़ाई के तीन पहलू हो गये हैं। यह लड़ाई केंद्र बनाम राज्य और बीजेपी बनाम तृणमूल कांग्रेस भी हो गयी है। वैसे तो देश की सियासत रायसीना हिल्स और लुटियन जोन से तय होती है, लेकिन रविवार शाम से इसने अपना पता बदल लिया है। थोड़े वक्त के लिए ही सही, यह सियासत अब कोलकाता के मेट्रो चैनल पर शिफ्ट हो गयी है। इसके केंद्र में भी सीबीआइ ही है।
केंद्र की मोदी सरकार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार में टकराव तो बीते तीन-चार साल से चल रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आक्रामक रुख के कारण पश्चिम बंगाल में एक अलग बयार बहने लगी। इस बयार की सुरसुराहत ममता को महसूस हुई और उन्होंने ठान लिया कि किसी भी हाल में इस बयार का रुख रोकना है। कोलकाता के पुलिस आयुक्त के घर पहुंची सीबीआइ टीम ने ममता बनर्जी को हिला दिया और वे आग बबूला होकर सड़क पर उतर आयीं। अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जहां इसके विरोध में धरने पर बैठी हैं, वहीं सुप्रीम कोर्ट में भी इसकी आवाज पहुंच गयी है। वहां मंगलवार को इस विवाद पर सुनवाई होगी। दूसरी ओर संसद में भी सोमवार को इस मुद्दे पर जम कर हंगामा हुआ।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सीबीआइ पश्चिम बंगाल में शारदा और रोजवैली चिटफंड घोटाले की जांच कर रही है। इसी सिलसिले में पूछताछ के लिए रविवार शाम को सीबीआइ टीम कोलकाता के पुलिस आयुक्त के घर पहुंची थी, लेकिन वहां पुलिसवालों ने उनके साथ धक्का-मुक्की की और बलपूर्वक हिरासत में लेकर उन्हें थाने ले आये। उन सबको थाने ले जाकर तीन घंटे तक बिठाये रखा गया। उसके बाद ममता भी पुलिस आयुक्त के घर पहुंच गयीं और फिर देर रात धरने पर बैठ गयीं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सीबीआइ के बहाने केंद्र और राज्य सरकार के बीच पैदा होनेवाला यह टकराव लोकसभा चुनावों तक और तेज होगा। इस मामले में कोई भी झुकने को तैयार नहीं है। ऐसे में तमाम निगाहें अब सुप्रीम कोर्ट की ओर टिकी हैं। वहां मंगलवार सुबह इस मुद्दे पर सुनवाई होनी है।
क्या है चिटफंड घोटाला
बंगाल में शारदा और रोजवैली समूह के मालिकों ने चिटफंड योजनाओं के जरिये आम लोगों से करोड़ों वसूले थे। इस मामले में तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चा के कई नेताओं पर भी पैसे लेने के आरोप लगे थे। तृणमूल कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2013 में इन मामलों की जांच शुरू की थी। उसके बाद दोनों कंपनियों के मालिकों को गिरफ्तार किया गया था। वे फिलहाल जेल में हैं। सरकार ने इन घोटालों की जांच के लिए जिस विशेषज्ञ जांच टीम (एसआइटी) का गठन किया था, मौजूदा पुलिस आयुक्त राजीव कुमार उसके मुखिया थे। बाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गयी थी। लेकिन सीबीआइ बीते दो-तीन साल से जांच में राज्य पुलिस और प्रशासन पर असहयोग का आरोप लगाती रही है। जांच एजेंसी का आरोप है कि इस मामले के कई अहम सबूत या तो गायब हैं या फिर नष्ट कर दिये गये हैं। वह इसी मामले में राजीव कुमार से पूछताछ करना चाहती है, लेकिन ममता बनर्जी ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है।
ममता ने जो रास्ता अख्तियार किया है, उससे निश्चित रूप से केंद्र और राज्य सरकार के बीच लड़ाई तेज होगी। आज अगर कोलकाता पुलिस बलपूर्वक सीबीआइ के अधिकारियो को हिरासत में ले रही है, तो कहीं केद्र भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कर इसे दूसरा रूप नहीं दे दे। तब निश्चित रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह शुभ नहीं होगा। अच्छा होगा, ममता बनर्जी मुखेर कानून की जगह न्यायालय का दरवाजा खटखटायें।
भ्रष्टाचारियों पर है दीदी की ममता: रघुवर
रांची। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आड़े हाथों लिया है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की आड़ में ममता करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोपियों को बचाने की कोशिश कर रही हैं। कहा कि बिहार के तेजस्वी यादव भी भ्रष्टाचार में लिप्त नेता हैं। इसी तरह तमिलनाडु और अन्य कई भ्रष्ट नेता हैं, जो आज लोकतंत्र के नाम पर अपने भ्रष्टाचार को छुपाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि देश की जनता सब देख रही है। इन भ्रष्टाचारियों को सबक जनता सिखायेगी। उन्होंने कहा कि लोग देख रहे हैं कि किस तरह लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचारी नेता लोग हल्ला करते हैं। 2019 में पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी और बिहार से तेजस्वी और लालू यादव को जनता साफ कर देगी।