विशेष
तमाम अवरोधों के बावजूद लगातार आगे बढ़ती रही पार्टी
शोषणमुक्त झारखंड के लिए अनवरत संघर्ष करते रहे शिबू सोरेन
हेमंत सोरेन ने पार्टी को नया कलेवर दिया, नयी ऊंचाइयां दी, सम्मान दिलाया
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
हम अकेले ही चले थे जानिब-ए-मंजिल मगर,
लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया।
हिंदी और उर्दू के प्रख्यात शायर मजरूह सुल्तानपुरी की ये चर्चित पंक्तियां 15 नवंबर, 2000 को आजाद भारत के राजनीतिक नक्शे पर 28वें राज्य के रूप में उभरे झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा और इसके निर्विवाद नेता शिबू सोरेन पर एकदम सटीक बैठती हंै। 1972 में सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ जनांदोलन के नायक रहे शिबू सोरेन ने विनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिल कर झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी थी, तब उनका एक ही सपना था, अलग झारखंड राज्य। अपने इस सपने को साकार करने के लिए शिबू सोरेन ने जहां अपना सब कुछ होम कर दिया, वहीं उनकी पार्टी झामुमो आज न केवल झारखंड की, बल्कि पूर्वी भारत की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी बन चुकी है। इतना ही नहीं, झामुमो देश की इकलौती ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है, जिसने राष्ट्रीय पार्टियोें का दबाव झेला, विभाजनों का इतना दंश झेला, लेकिन अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकी। पार्टी के इस सफर में शिबू सोरेन को कई बार कठिन अग्नि परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ा, कई झंझावात झेलने पड़े, लेकिन हर बार वह और निखर कर सामने आये। साथ ही झारखंड मुक्ति मोर्चा को नया मुकाम दिया। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो झामुमो शिबू सोरेन की वह विरासत है, जिसकी पहचान उनके बिना पूरी नहीं हो सकती। अब शिबू सोरेन के खून-पसीने से सींची गयी इस पार्टी को आगे ले जाने की जिम्मेवारी हेमंत सोरेन के युवा कंधों पर है। हेमंत सोरेन ने पार्टी को नयी ऊंचाइयां दी हैं, नया मुकाम दिया है। उन्होंने भी इसकी कम कीमत नहीं चुकायी है। राजनीतिक आरोप झेला, जेल भेजे गये, अपने पुराने सहयोगियों को अलग होते देखा। हेमंत सोरेन ने इतना कुछ झेलने के बावजूद कभी पार्टी को रास्ते से भटकने नहीं दिया। आज जब झामुमो अपना स्थापना दिवस मना रहा है, इस पार्टी के इतिहास और झारखंड में इसके महत्व को जानना जरूरी भी है और बेहद रोमांचक भी। क्या है झामुमो और क्या है इस पार्टी की जड़, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड के लोगों के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का नाम अब हर किसी की जुबान पर है। लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि इसका नाम 1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़नेवाली मुक्ति वाहिनी की तर्ज पर रखा गया था। वह दौर संथाल परगना में चल रहे उस जनांदोलन का था, जो सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ था और जिसके नायक शिबू सोरेन थे। तब अलग झारखंड राज्य की मांग झारखंड पार्टी कर रही थी। शिबू सोरेन ने 1967 में बिहार प्रोग्रेसिव हूल झारखंड पार्टी बनायी, लेकिन अलग झारखंड राज्य के लिए उनका संघर्ष 2 फरवरी, 1972 को उस समय शुरू हुआ, जब विनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिल कर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी। साथ में थे निर्मल महतो और टेकलाल महतो।
झामुमो के स्थापना के मौके पर अपने संबोधन में गुरुजी ने कहा था, मुझे झारखंड मुक्ति मोर्चा का महासचिव बनाया गया है। पता नहीं मैं इस योग्य हूं भी या नहीं। लेकिन मैं अपने मृत पिता की सौगंध खाकर कहता हूं कि शोषणमुक्त झारखंड के लिए अनवरत संघर्ष करता रहूंगा। हम लोग दुनिया के सताये हुए लोग हैं। अपने अस्तित्व के लिए हमें लगातार संघर्ष करते रहना पड़ा है। हमें बार-बार अपने घरों से, जंगल से और जमीन से उजाड़ा जाता है। हमारे साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ किया जाता है। दिकुओं के शोषण, उत्पीड़न से परेशान होकर हमारे लोगों को घर-बार छोड़ कर परदेस में मजदूरी करने जाना पड़ता है। हरियाणा-पंजाब के ईंट भट्ठों में, असम के चाय बागानों में, पश्चिम बंगाल के खलिहानों में मांझी, संथाली औरतें, मरद मजूरी करने जाते हैं। वहां भी उनके साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता है। यह बात नहीं कि हमारे घर, गांव में जीवन यापन करने के साधन नहीं, लेकिन उन पर बाहर वालों का कब्जा है। झारखंड की धरती का, यहां की खदानों का दोहन कर, उनकी लूट-खसोट कर नये शहर बन रहे हैं। जगमग आवासीय कॉलोनियां बन रही हैं और हम सब गरीबी-भुखमरी के अंधकार में धंसे हुए हैं। लेकिन अब यह सब नहीं चलेगा। हम इस अंधेरगर्दी के खिलाफ संघर्ष करेंगे।
शिबू सोरेन का यह ऐतिहासिक भाषण झामुमो के उस लक्ष्य को साफ-साफ परिभाषित करता है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ झारखंड और यहां के आदिवासियों की मुक्ति की बात है। झामुमो की स्थापना से पहले शिबू सोरेन टुंडी में रह कर जनांदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। इस क्रम में उन्होेंने इलाके को नशामुक्त और शिक्षित बनाने के लिए एक सामाजिक अभियान भी चलाया। राजनीतिक पारी की शुरूआत में उन्होंने खदान मजदूरों के लिए संघर्ष किया। इनमें से ज्यादातर गैर-आदिवासी थे, लेकिन शिबू सोरेन को इससे कोई अंतर नहीं पड़ा। वह आज भी कहते हैं कि शोषितों-पीड़ितों का एक ही वर्ग होता है और वह हमेशा इस वर्ग के साथ हैं।
झामुमो जब अस्तित्व में आया, तब इसे संथालों की पार्टी कहा जाता था। संथाल जनजाति झारखंड की आदिवासी जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा है और संथाल परगना को झारखंड की राजनीति का केंद्रबिंदु भी कहा जाता है, लेकिन समय के साथ इसने खुद को सभी आदिवासी जनजातियों का प्रतिनिधि बना लिया।
झामुमो और खास कर शिबू सोरेन हमेशा झारखंड के निर्विवाद नेता रहे। इसलिए वह राष्ट्रीय पार्टियों की आंख की किरकिरी बने रहे। कांग्रेस और भाजपा ने हमेशा झामुमो को अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल किया। निश्छल और निष्कपट स्वभाव के शिबू सोरेन ने वह सब कुछ किया, जो झारखंड और यहां के लोगों के हितों के लिए उपयुक्त था। राजनीतिक दांव-पेंच और राष्ट्रीय दलों की खुंटचाल के कारण अलग राज्य का उनका सपना पूरा नहीं हो रहा था। तब शिबू सोरेन ने अलग राज्य के आंदोलन को धार दी और अंतत: 15 नवंबर, 2000 को उनका सपना पूरा हुआ।
अपने इस सपने को पूरा करने के लिए शिबू सोरेन ने जो कुछ झेला, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सामूहिक हत्या से लेकर रिश्वतखोरी तक के आरोप उन्हें झेलने पड़े। चिरूडीह नरसंहार कांड, शशिनाथ झा हत्याकांड, सांसद रिश्वत कांड और कोयला घोटाले तक में उन्हें घसीटा गया, लेकिन हर बार वह बेदाग साबित हुए। इस दौरान झामुमो को तोड़ने की कई बार कोशिश की गयी। कभी कृष्णा मार्डी तो कभी सूरज मंडल, तो कभी शैलेंद्र महतो को शिबू सोरेन से अलग किया गया, लेकिन गुरुजी न कभी डिगे और न ही कभी रुके।
दिशोम गुरु शिबू सोरेन का संघर्ष हमेशा प्रेरित करता है। उनकी सादगी विरल है। उनकी आंखें अब भी उतनी ही सपनीली हैं, जितनी पहले हुआ करती थीं। बदलाव के तमाम झंझावातों और दबावों में वह आज भी कई मायनों में पहले जैसे ही हैं। एक व्यक्ति और एक राजनेता के रूप में उनके जीवन में इतने उतार-चढ़ाव आये हैं कि कभी-कभी आश्चर्य होता है कि इतना सब कुछ एक ही व्यक्ति के साथ घटित कैसे हो पाया।
आज शिबू सोरेन की पार्टी लोकप्रियता के उस मुकाम पर है, जहां पहुंचने के लिए एक जीवन कम पड़ता है। इस सपने को आगे ले जाने की चुनौती शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन के युवा कंधों पर है और वह इस चुनौती का सफलतापूर्वक निर्वहन भी कर रहे हैं। हेमंत सोरेन ने पार्टी को नयी ऊंचाइयां दी हैं, नया मुकाम दिया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि हेमंत सोरेन को यह सब कुछ आसानी से हासिल हो गया। हेमंत सोरेन ने भी वह सब कुछ झेला, जो उनके पिता और राजनीतिक गुरु शिबू सोरेन भी झेल चुके थे। बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों का दबाव, झूठे आरोप, पार्टी तोड़ने की साजिश और गिरफ्तारी जैसी चुनौतियों को हेमंत सोरेन ने भी झेला और उन्हें पराजित किया। हेमंत सोरेन न असफलताओं से घबराये और न सफलताओं से बौराये। आज झारखंड के सवा तीन करोड़ लोगों के सपनों को पंख लगाने का भार भी उन पर ही है। स्थापना दिवस पर झारखंड मुक्ति मोर्चा और राज्य की जनता यही उम्मीद करती है कि शिबू सोरेन की शानदार विरासत को हेमंत सोरेन नयी ऊंचाइयां देंगे।