विशेष
-हाशिये पर पहुंची कांग्रेस के लिए बज गयी है खतरे की घंटी
-पूर्वोत्तर राज्यों के मन-मिजाज को बदलने में कामयाब हुई भाजपा
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों, त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में भाजपा गठबंधन की सरकार बन रही है। त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा गठबंधन के पास बहुमत है, वहीं मेघालय में भाजपा ने एनपीपी को समर्थन देने का फैसला किया है। चुनाव के नतीजे साफ कह रहे हैं कि पूर्वोत्तर से कांग्रेस का सफाया हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को पार्टी के प्रदर्शन पर बधाई देने के लिए संबोधित किया। मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा के लोगों को धन्यवाद देते हुए पीएम मोदी ने कहा कि चुनाव परिणाम दुनिया को दिखाते हैं कि देश के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों में लोगों का विश्वास है। उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर के नतीजे दिखाते हैं कि यह क्षेत्र न तो दिल्ली से दूर है, न ही दिल से। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि कैसे भाजपा कांग्रेस और लेफ्ट पर भारी पड़ गयी। एक तरफ जहां पूर्वोत्तर में भाजपा का उदय हुआ है, वहीं कांग्रेस के सितारे डूब रहे हैं। इन नतीजों से पता चलता है कि कांग्रेस के बुरे दिन चल रहे हैं। देश के दूसरे हिस्सों में भी कांग्रेस संघर्ष कर रही है, वहीं वामदलों के लिए भी वहां के नतीजे ठीक नहीं रहे हैं। भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा पूर्वोत्तर में हकीकत बन गया है। दरअसल तीन राज्यों में इस जीत को भाजपा के मिशन 2024 का श्रीगणेश बताया जा रहा है। नागालैंड में भाजपा की जीत का साफ मतलब है कि इस इसाइ बहुल राज्य में अब विकास और राष्ट्रवाद की बयान बह रही है। वहीं मेघालय में गठबंधन की सत्ता में वापसी का संदेश यही है कि यह राज्य अब विकास के रास्ते पर चल पड़ा है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस का हाल क्या रहा, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेघालय में 2018 के चुनाव में 21 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस इस बार महज पांच सीटों पर सिमट गयी है। त्रिपुरा में कांग्रेस को अपना वजूद बचाने के लिए लेफ्ट से हाथ मिलाना पड़ा था, लेकिन इसके बावजूद उसे सिर्फ तीन सीटें ही मिल सकीं। नागालैंड में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। तीन पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणामों का सियासी विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय के चुनाव नतीजों ने देश के राजनीतिक माहौल को नया मोड़ दे दिया है। इस चुनाव परिणाम से जहां एक तरफ भाजपा के लिए खुशियां आयी हैं, तो दूसरी तरफ इसमें उसके लिए कई संदेश भी हैं। कांग्रेस और अन्य पार्टियों को भी पूर्वोत्तर के चुनावी नतीजों से सबक लेने की जरूरत है। साल 2023 का आगाज पूर्वोत्तर के चुनाव के साथ हुआ है। इस साल राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के चुनाव भी होने हैं। इसके बाद अगले साल 2024 में लोकसभा चुनाव भी हैं। पूर्वोत्तर के चुनाव से यह अंदाजा काफी हद तक लग गया कि कौन सी पार्टी कितने पानी में है। किसका जनाधार घट रहा है और कौन इसे बचा पाने में कामयाब हुआ है।
पूर्वोत्तर पर दांव आया भाजपा के काम
पूर्वोत्तर पर दांव लगाने के बाद भाजपा काफी हद तक कामयाब रही है। भाजपा की जड़ें पूर्वोत्तर के राज्यों में लगातार मजबूत हो रही हैं। इसी वजह से लेफ्ट के गढ़ रहे त्रिपुरा में भाजपा ने दोबारा बहुमत का जादुई आंकड़ा पार कर लिया। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद पीएम मोदी ने पूर्वोत्तर के 50 से ज्यादा दौरे किये। चुनाव में इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला है।
कांग्रेस के लिए अहम संदेश
कांग्रेस को पूर्वोत्तर के चुनाव में एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा है। उसका सियासी स्थान लेने के लिए क्षेत्रीय पार्टियां आ गयी हैं। त्रिपुरा में लेफ्ट के साथ कांग्रेस का गठबंधन भी काम नहीं आया। पहली बार चुनावी मैदान में उतरी पार्टी टिपरा मोथा ने जनजातीय वोटरों को अपने पाले में कर लिया। इसके अलावा मेघालय में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने कांग्रेस की मुसीबत बढ़ायी। मेघालय में टीएमसी की पहली बार पांच सीटें आयीं, तो वहीं कांग्रेस की सीटें घटकर पांच रह गयीं।
कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन हुआ फेल
पूर्वोत्तर की लड़ाई में भी गठबंधन फेल हो गया है। भाजपा को मात देने के लिए कांग्रेस का लेफ्ट से गठबंधन पश्चिम बंगाल चुनाव की तरह त्रिपुरा में भी फेल रहा। कांग्रेस का यह प्रयोग सफल नहीं हुआ। चुनाव परिणाम से साफ है कि बिना होमवर्क और तैयारी के सिर्फ गठबंधन करके चुनाव में उतरने से कांग्रेस को फायदा नहीं हो रहा है। लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा का मुकाबला करने के लिए विपक्षी एकता के फॉर्मूले पर मंथन जारी है। कभी कांग्रेस तमिलनाडु के सीएम स्टालिन के जन्मदिन पर एक साथ चुनाव लड़ने की बात करती है, तो कभी नीतीश कुमार खुले मंच से कांग्रेस को साथ आने का आॅफर देते हैं। लेकिन मेघालय के नतीजे से साफ है कि विपक्षी एकता के फॉर्मूले को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
भाजपा के लिए क्या है सबक
विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही भाजपा के पक्ष में आये हैं, लेकिन आदिवासी वोट बैंक उसके लिए चिंता विषय है। भाजपा नेता जनजाति के लिए काफी काम करने का दावा करते हैं, लेकिन त्रिपुरा चुनाव में जनजातीय वोटर टिपरा मोथा के साथ जाते हुए दिखाई दिये। भाजपा ने चुनाव से पहले टिपरा मोथा से बात भी की थी, लेकिन वह साथ नहीं आयी।
भाजपा ‘गैर हिंदुत्व’ की पिच पर भी खेलने में माहिर
इस चुनाव से एक और बात साफ हुई है और वह है कि भाजपा अब लगातार फ्रंट फुट पर खेल रही है। नागालैंड में ज्यादातर आबादी इसाइ धर्म को मानती है। लेकिन यहां पर भी हिंदुत्व की पिच पर खेलने वाली भाजपा कांग्रेस पर हावी है। साल 2018 में भाजपा ने 12 सीटों पर और इस बार भी 12 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस पिछली बार भी शून्य थी और इस बार भी। भाजपा के सहयोगी एनपीपी पिछली बार 17 सीटों पर थी। इस बार 25 सीटों पर वह जीती। यह सब कैसे हुआ। यहां दूसरी बार भाजपा ने वापसी कैसे की, यह शोध का विषय हो सकता है। इस जीत का सबसे अहम कारण यह रहा कि भाजपा ने स्थानीय मुद्दों पर फोकस किया। भाजपा शासित कई राज्यों में इसाइ समुदाय की शिकायत है कि उनपर हमले बढ़ रहे हैं। कई भाजपा शासित राज्यों में गौ-तस्करी को लेकर कानून बन रहे हैं और लिंचिंग हो रही है, लेकिन नागालैंड में भाजपा के लिए न धर्मांतरण मुद्दा था और न ही गौ-तस्करी। उसने तो नागालैंड के बुजुर्गों को यरुशलम की मुफ्त तीर्थ यात्रा तक कराने का वादा किया है। चर्च के पदाधिकारियों के साथ बैठक करना हो या फिर राज्य के स्थानीय नायकों का सम्मान, भाजपा ने सब कुछ किया।
इस तरह तीन राज्यों के नतीजों के अनुसार भाजपा स्थानीय राजनीति में सफल साबित हुई है। सत्ता में वापसी कर स्थानीय पार्टियों को खुद के साथ मिलाने का उसने एक पॉजिटिव संदेश दिया है। वहीं विपक्षी एकता की बात करने वाले दलों को नये सिरे से सोचने की जरूरत है कि आगामी लोकसभा चुनाव में एक साथ आने का फार्मूला क्या हो? कभी आम आदमी पार्टी तो कभी टीएमसी, कांग्रेस के लिए वोट कटवा पार्टी बनने से बच जाये, इसके लिए क्या रणनीति हो सकती है, इस पर विचार करने की जरूरत है।