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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»तीन साल 70 दिन बाद एनडीए को मिली संजीवनी
    स्पेशल रिपोर्ट

    तीन साल 70 दिन बाद एनडीए को मिली संजीवनी

    adminBy adminMarch 2, 2023No Comments9 Mins Read
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    -रामगढ़ की जीत लंबी सांसवाली राहत है एनडीए गठबंधन के लिए
    -भाजपा आजसू अगर एक साथ हैं, तो जोड़ी हिट है, वरना 2019 तो याद ही होगा
    -झारखंड की राजनीति में अहम मोड़ साबित होगा यह चुनाव परिणाम
    -सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए आत्ममंथन करने का समय

    रामगढ़ विधानसभा उपचुनाव में भाजपा-आजसू गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल कर ली है। इस जीत ने दोनों को यह जता भी दिया है कि एक और एक ग्यारह होते हैं। मतलब दोनों अगर साथ रहे, तो कामयाबी मिलेगी। यह चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए अप्रत्याशित है, क्योंकि इसमें कांग्रेस के कब्जे से रामगढ़ निकल गया है। कांग्रेस झारखंड की सत्ता में झामुमो के साथ बराबर की साझीदार है और इस उपचुनाव में वाम दलों का समर्थन भी उसे मिला था। इसके बावजूद रामगढ़ का चुनाव परिणाम अनुमानों के मुताबिक ही रहा। जहां तक इस चुनाव परिणाम के झारखंड की राजनीति पर असर की बात है, तो यह जीत भाजपा और आजसू के लिए कई मायमों में खास जरूर है। रामगढ़ की जीत ने एक तरह से यह साबित किया कि भाजपा-आजसू ने झामुमो-कांग्रेस-राजद सरकार के खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर को बखूबी भुनाया और इसका फायदा भी उठाया। रामगढ़ में मिली जीत से इस बात की भी तस्दीक होती है कि भाजपा-आजसू ने प्रदेश में बेरोजगारी, विधि-व्यवस्था, महिला सुरक्षा, स्थानीयता विधेयक और सरकार की विश्वसनीयता में आयी कमी का लाभ उठाया है। लेकिन इसके साथ ही रामगढ़ की जनता ने बेहद सलीके से कह दिया है कि अब एक चुनावी जीत पर इतराने या एक पराजय से मायूस होने का समय नहीं है। आजसू को भाजपा की मदद से रामगढ़ सीट पर जीत जरूर मिली है, लेकिन इस गठबंधन के लिए यह जीत आत्ममंथन का अवसर है। अब इन दोनों दलों को सोचना होगा कि जीत के इस सिलसिले को जारी कैसे रखा जा सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस के लिए रामगढ़ की जनता ने संदेश दिया है कि 2019 की जीत के बाद जिस तरह विधायक ममता देवी और कांग्रेस पार्टी ने इलाके के लोगों को नजरअंदाज किया, वह कहीं से भी भूलनेवाली बात नहीं है। कांग्रेस को 2019 में मिली जीत पर इतराने की बजाय धरातल पर काम करना चाहिए था। वैसे भी झारखंड कांग्रेस पूरी हेमंत सोरेन के भरोसे ही राजनीति कर रही है। यह रामगढ़ चुनाव में भी देखा गया। इस चुनाव में तन, मन और धन से कहीं भी कांग्रेस नजर नहीं आयी। उसके अधिकांश नेताओं ने तो रायुपर अधिवेशन का रुख कर लिया था। कांग्रेस को जो भी मत मिले, उसमे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की बहुत बड़ी भूमिका है। अगर हेमंत सोरेन ने मोरचा नहीं संभाला होता, तो कांग्रेस की स्थिति और भी बुरी होती। जो भी हो, रामगढ़ का चुनाव परिणाम झारखंड की राजनीति का अहम मोड़ साबित होगा, क्योंकि इसमें छिपे संदेश के मायने बहुत गहरे हैं। रामगढ़ चुनाव परिणाम का सियासी नजरिये से विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    रामगढ़ उपचुनाव में सत्तारूढ़ महागठबंधन हार गया। वहीं भाजपा-आजसू ने आखिरकार राज्य में जीत का स्वाद चख ही लिया। 21 हजार से अधिक मतों से जीत गयी आजसू प्रत्याशी सुनीता चौधरी। उन्हें कुल 115669 मत मिले, वहीं बजरंग महतो को 93699 वोट हासिल हुए। यानी 2019 के चुनाव से कम। आखिर क्या नहीं था बजरंग महतो के पास। सहानुभूति वाली लहर, दुधमुहा बच्चा वाली स्ट्रेटेजी, हेमंत सोरेन का भरपूर साथ। लेकिन रामगढ़ की जनता को कुछ और ही मंजूर था। दरअसल अपने विधायकी के तीन साल में ममता देवी का परफार्मेंस रामगढ़ जनता की नजर में ठीक नहीं था। वह जिसे मुद्दे पर विधायक बनी थीं, वह वायदा भी वह पूरा नहीं कर पायी थीं। लेकिन इस जीत के बावजूद भाजपा-आजसू को समझ लेना चाहिए कि झारखंड में वे हिट तभी हैं, जब वे जोड़ी में हैं अन्यथा फ्लॉप हैं। 2019 में हेमंत सोरेन सरकार के गठन के बाद से राज्य में यह पांचवां उपचुनाव था। इससे पहले के चार उपचुनाव में महागठबंधन के उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी।
    रामगढ़ उपचुनाव के परिणाम के बाद यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि आखिर यहां कांग्रेस को पराजय का स्वाद क्यों चखना पड़ा, वह भी तब, जब खुद मुख्यमंत्री ने रामगढ़ में चुनावी अभियान की जिम्मेदारी ली थी। ममता देवी के जेल जाने की सहानुभूति उनके साथ थी। सत्ता में होने का फायदा भी था। बावजूद इसके महागठबंधन की जीत का सिलसिला टूटा।
    दरअसल, मई 2022 से अब तक ऐसे कई कारण रहे, जिसकी वजह से झारखंड में महागठबंधन सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बन रही थी। मांडर में तो इसका फायदा भाजपा को इसलिए नहीं नहीं मिला, क्योंकि बंधु तिर्की चुनावी जंग के माहिर खिलाड़ी हैं और वह चुनाव में हर चाल चलना जानते हैं, लेकिन रामगढ़ में कांग्रेस अपनी मुकम्मल रणनीति नहीं बना पायी। उसके कुछ नेता तो दूसरे राज्यों के चुनाव में व्यस्त हो गये और कुछ रायपुर अधिवेशन में। मुख्यमंत्री को अकेले मोर्चा संभालना पड़ा। लेकिन चूंकि ममता देवी की कार्यशैली से लोग नाराज थे, इसलिए एक बड़े वर्ग ने उनसे अपना नाता तोड़ लिया। एनडीए को आशातीत परिणाम मिला।

    महागठबंधन सरकार की हार के पांच मुख्य कारण
    दरअसल, रामगढ़ में महागठबंधन की हार का सबसे पहला कारण रहा आजसू पार्टी और भाजपा का साथ आना। इस चुनाव में एनडीए साथ लड़ी। इससे पहले के चुनावों में ऐसा नहीं हुआ था। रामगढ़ विधानसभा सीट का इतिहास भी एनडीए के साथ था। बता दें कि 2005 से 2014 के बीच लगातार तीन बार यहां से एनडीए प्रत्याशी के रूप में आजसू पार्टी के चंद्रप्रकाश चौधरी ने जीत हासिल की थी। 2019 में भाजपा और आजसू अलग-अलग लड़ी। उस समय ममता देवी की जीत का अंतर भाजपा और आजसू को मिला कर कुल मत के योग से कम था। अगर उस समय भी भाजपा और आजसू साथ लड़ी होती, तो एनडीए को जीत मिलती। इस बार दोनों ही पार्टियां साथ थीं और इसका परिणाम दिखा।
    चुनावी आंकड़ों से इतर रामगढ़ में सत्ता विरोधी लहर ने भी अपना असर दिखाया। 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीयता विधेयक का धरातल पर नहीं उतरना भी सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रहा था। हेमंत सरकार इसे विधानसभा में लायी और पारित कराया, लेकिन यह कानून नहीं बन सका। राज्यपाल ने विधेयक ही लौटा दिया। मुख्यमंत्री ने इसे भाजपा की साजिश करार दिया, लेकिन उनकी अपील का कोई खास असर रामगढ़ की जनता में हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। हालांकि मुख्यमंत्री ने जोहार यात्रा निकाल कर उसे बहुत हद तक पाटने की कोशिश की।
    वर्ष 2019 में महागठबंधन प्रतिवर्ष पांच लाख रोजगार के वादे के साथ सत्ता में आया था। घोषणापत्र में इसका जिक्र था। सरकार गठन को तीन साल बीते और केवल 857 नियुक्तियां ही हो सकीं। मुकम्मल स्थानीय नीति और नियोजन नीति नहीं बन पाने के कारण रोजगार देने में बाधा आयी। कुछ विज्ञापनों पर हाइकोर्ट ने रोक लगा दी। हेमंत सोरेन सरकार ने जो नियोजन नीति बनायी थी, वह हाइकोर्ट से रद्द हो गयी। इसकी वजह से 13 हजार से ज्यादा नियुक्तियां रद्द हो गयीं। इनमें कर्मचारी चयन आयोग द्वारा 957 पदों पर निकाली गयी वेकैंसी सहित कई अन्य नियुक्तियां थीं। पिछले साल विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान आक्रोशित युवाओं ने विधानसभा तक मार्च भी निकाला। रामगढ़ उपचुनाव के पूरे प्रचार अभियान के दौरान युवाओं ने नाराजगी जाहिर की। यही नहीं, ग्रामीण इलाकों में पूर्व विधायक ममता देवी के खिलाफ भी लोगों में नाराजगी देखी गयी।
    भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी हेमंत सोरेन सरकार घिरी। साहिबगंज में हुए एक हजार करोड़ के अवैध खनन मामले में अफसरों के कारण सरकार की काफी किरकिरी हुई। रामगढ़ चुनाव में वोटिंग से महज दो दिन पहले ही ग्रामीण कार्य विभाग के मुख्य अभियंता वीरेंद्र राम के यहां इडी का छापा पड़ा। अरबों रुपये की मनी लांड्रिंग का खुलासा हुआ। पूछताछ में कई राजनेताओं और अधिकारियों के इसमें शामिल होने की बात सामने आयी।
    महागठबंधन ने उपचुनाव में अपने प्रचार के दौरान ममता देवी को हुई सजा के जरिये सहानुभूति हासिल करने का प्रयास किया। उनके दुधमुंहे बच्चे को रैलियों में लेकर आये। रैलियों में साफ तौर पर कहा गया कि लोगों को अपना वोट इस मासूम बच्चे को न्याय के लिए समर्पित करना चाहिए, लेकिन जनता नहीं पिघली। महागठबंधन ने भाजपा पर महिला को अपमानित करने और असंवेदनशील होने का आरोप लगाया, लेकिन दुमका का अंकिता हत्याकांड और साहिबगंज में रेबिका पहाड़िन हत्याकांड के अतिरिक्त दुमका, लिट्टीपाड़ा और गुमला में नाबालिग बच्चियों के साथ हुई गैंगरेप की वारदातों को लेकर हेमंत सरकार महिला सुरक्षा के मुद्दे पर भी बैकफुट पर थी।
    विधि-व्यवस्था के मुद्दे पर भी राज्य की हेमंत सोरेन सरकार मुश्किलों में घिरी रही। वोटिंग से एक दिन पहले रामगढ़ में अजसू नेता की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। मांडर में दिनदहाड़े 65 लाख रुपये की लूट हुई। नक्सलियों ने चाइबासा में लगातार बारूदी सुरंग विस्फोट किया। फिर दो दिन पहले ही बड़कागांव से कांग्रेस विधायक अंबा प्रसाद के विधायक प्रतिनिधि की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इस घटना पर अंबा प्रसाद ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया। पुलिस पदाधिकारियों की नियुक्ति में कमीशनखोरी का आरोप लगाया। इसमें एक और बड़ा कारण रहा, ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस के चार-चार महासचिवों को पार्टी से निकालना। आलोक दुबे, राजेश गुप्ता छोटू, लाल किशोरनाथ शाहदेव और साधुचरण गोप को ऐन चुनाव के वक्त पार्टी से निकाल दिया गया। इससे कांग्रेस समर्थकों में गलत संदेश गया।

    रामगढ़ का परिणाम क्या 2024 के लिए है खतरे की घंटी
    रामगढ़ का चुनाव परिणाम साफ बताता है कि झारखंड में विशेष तौर पर युवाओं के बीच रोजगार को लेकर नाराजगी है। एनडीए ने रामगढ़ उपचुनाव में इसे बखूबी भुनाया। यह 2024 के लिए खतरे की घंटी जरूर है, लेकिन इस जीत पर इतराने की जगह भाजपा-आजसू को आत्ममंथन करने की जरूरत है। इन दोनों दलों को अब लगातार सड़क पर रहना होगा और यह रणनीति बनानी होगी कि जीत का यह सिलसिला कैसे कायम रखा जाये। बता दें कि 2024 के मई-जून महीने में लोकसभा के चुनाव होंगे। इसके ठीक छह महीने बाद विधानसभा के चुनाव होंगे। ये दोनों ही चुनाव भाजपा के लिए मिशन 2024 का हिस्सा हैं। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में झारखंड की सभी 14 लोकसभा सीटों पर जीत का लक्ष्य तय किया है। यही नहीं, भाजपा यह भी चाहती है कि संताल पररगना की 18 विधानसभा सीटों पर उसका पलड़ा भारी रहे।

    रामगढ़ में जीत से भाजपा को क्या होगा फायदा
    रामगढ़ उपचुनाव में जीत से संकेत साफ है कि यदि भाजपा और आजसू साथ मिल कर लड़ती है, तो कई वैसी सीटों पर आसान जीत मिलेगी। रामगढ़ में महागठबंधन की हार इस बात का भी संकेत है कि उसे अभी बहुत कुछ करना है। कुल मिला कर भाजपा-आजसू के लिए जहां रामगढ़ का चुनाव परिणाम सुखद अहसास लेकर आया है, तो वहीं महागठबंधन के लिए यह वेकअप कॉल जैसा है।

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