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    Home»अन्य खबर»सामाजिक समरसता का उत्सव
    अन्य खबर

    सामाजिक समरसता का उत्सव

    adminBy adminMarch 24, 2024No Comments7 Mins Read
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    भारतीय पर्व और उत्सव अक्सर प्रकृति के जीवन क्रम से जुड़े होते हैं। ऋतुओं के आने-जाने के साथ ही वे भी उपस्थित होते रहते हैं। इसलिए भारत का लोकमानस उसके साथ विलक्षण संगति बिठाता चलता है जिसकी झलक गीत, नृत्य और संगीत की लोक-कलाओं और रीति-रिवाजों सबमें दिखती है। साझे की ज़िंदगी में आनंद की तलाश करने वाले समाज में ऐसा होना स्वाभाविक भी है। हमारा मूल स्वभाव तो यही सुझाता है कि हम प्रकृति में अवस्थित हैं और प्रकृति हममें स्पंदित है।

    थोड़ा विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा अनोखा उपहार, क्योंकि सारी तकनीकी प्रगति के बावजूद अभी तक जीवन का कोई विकल्प नहीं मिल सका है। यह अलग बात है कि प्रकृति या दूसरे आदमियों के साथ रिश्तों को लेकर कृतज्ञता का भाव अब दुर्लभ होता जा रहा है। फागुन के महीने की पूर्णिमा से यह उत्सव पूरे भारत में शुरू होता है और बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है । होली का सामुदायिक उत्सव हमें अपने समग्र अस्तित्व को जाग्रत करने वाला होता है। वह हमें हमारे व्यापक अस्तित्व की याद दिलाता है। आज इस तरह की बात आसानी से हमारे ध्यान-पटल पर नहीं उतरती। वहाँ जिन विचारों, अनुभवों और भावनाओं की आपाधापी है, जिनके बीच मारकाट मची हुई है, उनकी भीड़ में आज न प्रकृति को आँख भर निहारने की फुर्सत मिल रही है और न यह सच्चाई ही महसूस हो पा रही है कि हम मूलतः प्रकृति जीवी है। पर इस सच को नहीं झुठलाया जा सकता कि जीवन निरपेक्ष नहीं होता। प्रकृति है तो ही जीवन है। जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि और वायु जैसे तत्व जीवन के अनिवार्य प्राणदायी आधार-स्रोत हैं और आगे भी बने रहेंगे। प्रकृति माता है और हम सब पर प्रकृति का अकूत ऋण है। इस प्रकृति को चुनौती देती और उसे तबदील कर मानव निर्मित तकनीकी सबकुछ पर हावी हो रही है।

    नित्य बढ़ते तमाम दबावों के बीच डूबता-उतराता आज का आदमी अपने जीवन में तकनीकी के प्रवेश के साथ खुद अपनी प्रकृति या स्वभाव को बेगाना बनाता जा रहा है। उसका तकनीकजीवी बनता जा रहा मानस जीवन और प्रकृति के साथ अपने अटूट रिश्ते को भूलता-बिसराता जा रहा है। तकनीक के सहारे जीवन में तेज़ी, त्वरा और गति ने कुछ इस तरह प्रवेश किया है कि अब दिन-प्रतिदिन की जगह क्षण-प्रतिक्षण होने वाली उथल-पुथल का हिसाब रखने और उसको सँभालते रहने की उतावली बनी रहती है। अब पग-पग पर तकनीक की जरूरत पड़ रही है और तकनीक के बढ़ते दखल से बेचैनी भी बढ़ रही है। जीवन की दौड़ में विराम, विश्राम और सुकून अब सपने में भी दूभर होता जा रहा है। हाँ, यह जरूर हुआ है कि अब दुःख-सुख, प्रेम-मोहब्बत और मान-मनौवल जैसी भावनाओं का इजहार-इकरार सब कुछ मानवीय संवेदना से दूर तकनीक के सुपुर्द होता जा रहा है। जीवन की गाड़ी उसी के भरोसे चल रही है।

    तकनीकजीवी का जीवन आदमी का अपना जीवन नहीं होता है। वह टिका हुआ है सूचना के अनवरत प्रवाह पर। इसमें आगत से अधिक अनागत या ठीक से कहें तो जो आने वाला है या आ सकता है उसकी चिंता और भय वर्तमान को डंसे जा रहे हैं। इसलिए कुछ करने से अधिक जो हो रहा है उसकी पल-पल निगरानी और हिसाब-किताब करते रहने की जरूरत बढ़ती जा रही है। लोग लगातार ई-मेल या व्हाट्सएप देखने को बेताब रहते हैं और मोबाइल पर उनकी उंगली लगातार चलती रहती है। श्वास-प्रश्वास की तरह मोबाइल-संचालन हमारे जीवन का एक अहर्निश चलने वाला व्यापार होता जा रहा है। यह जरूर है कि इसमें एक किस्म की सृजनशीलता का भ्रम जरूर छिपा रहता है और लगता है कि हम कुछ कर रहे हैं।

    तकनीकी संलग्नता के बीच संवाद और संचार तो होता है पर इस उद्यम में अपनी सक्रियता देख-देख यह अहसास भी होने लगता है कि हम अपनी विशिष्टता और अद्वितीयता स्थापित कर रहे हैं। आधुनिक जीवन की यह विकट विडंबना है कि हम अपने अस्तित्व को सबसे विलग (डिस्टिंक्ट) हो कर प्रमाणित करने का अभ्यास करने में लगे रहते हैं। वैयक्तिकता और निजता व्यक्ति के विकास की दिशा निर्धारित कर रहे हैं। अपने आप को भिन्न दिखने-दिखाने की ख्वाहिश या कहें असमान लगने की कामना हमें निपट अकेला करती जाती है। पर अकेलेपन की ओर धकेली जाती ज़िंदगी ज़्यादा संतुष्टि और सुख नहीं दे पाती है। आज हम देख रहे हैं कि समायोजन न बैठ पाने के कारण इन स्थितियों की परिणति अवसाद और दुश्चिंता आदि विभिन्न मनोरोगों के रूप में हो रही है। यही नहीं, विशिष्ट बनने के क्रम में दूसरों के साथ टकराव और प्रतिस्पर्धा भी अनिवार्य रूप से शुरू हो जाती है। प्रिय जनों और नातों-रिश्तों में आती दरारों से जुड़ी खबरें आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बन रही हैं। इनसे जुड़ी घटनाओं में क्रूरता, अत्याचार, अपराध और हिंसा प्रमुख होते जा रहे हैं। ज़ाहिर है दुर्दमित आकांक्षाओं के साये में ज़िंदगी जीने का यह नक़्शा आधा-अधूरा है और अपेक्षित रूप से फलदायी नहीं सिद्ध हो रहा है। पर आनंद की खोज की सिर्फ़ यही राह नहीं है।

    गौरतलब है कि मनुष्य समाज में पैदा होता है और उसी में पलता-बढ़ता भी है। सामाजिकता उसकी रगों में बसी रहती है और सामाजिक जीवन प्रकृति के समानांतर चलने को तत्पर रहता है। होली के दौरान उत्फुल्लता मन और वन दोनों में एक साथ निखर कर सामने आती है। वसंत का चरम उत्कर्ष तब होता है जब शीत काल की ठिठुरन बीतने के बाद परिवेश में ऊष्मा का संचार होता है। खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूलों के गहनों से लदी सजी प्रकृति सबके स्वागत के लिए सजीव हो उठती है। तब खुद को जीवन-कार्य में जोड़ने की तैयारी का अवसर मिलता है। खेती-किसानी के लिए भी होली एक प्रस्थान विंदु जैसा होता है। के साथ कुछ दिन बाद चैत के महीने में वासंतिक नवरात्र के साथ भारतीय नव वर्ष शुरू होता है। नए की भावना द्वंद्वों और संघर्षों से उबरते हुए नए समारंभ करने की प्रेरणा वाली होती है। रंगों और प्रेम भाव से सुवासित समानता और समता की गारंटी देने वाला होली का उत्सव ऊँच-नीच हर किसी को शामिल होने के लिए आमंत्रित करता है। वह आवाज देता है कि अपने-अपने अहं का विसर्जन कर आगे आओ। होली के पहले रात को होलिका-दहन होता है जिसमें अपने सारे कल्मष जला कर नई शुरुआत करने का संकल्प लिया जाता है। यह वैर का दहन कर उल्लास का प्रसाद बाँटने का अवसर होता है। होली का अवसर राधा कृष्ण के स्मरण के साथ भी अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अबीर, गुलाल, कुंकुम और रंग की पिचकारी से सराबोर ब्रज-क्षेत्र (मथुरा, वृंदावन, नंद गाँव, बरसाना और गोकुल) की होली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। रंगों में भींगने भिंगाने के बाद होली के दिन रुचिकर व्यंजन भी बनते हैं और परिजनों के साथ खान-पान का आनंद लेते हैं। संगीत और काव्य की दृष्टि से होली का अवसर सर्जनशीलता को आमंत्रित करता रहा है।

    सभी सबको एक रंग में रंगने को आतुर रहते हैं। सब को एक सा बनाने का प्रयोजन सौहार्द और निकटता की भावना को जगाना होता है। इसका एक अभिप्राय यह भी है कि हम उस अविभक्त अव्यय भाव को महसूस करें जो अव्यक्त हो कर सबके अंतर्मन में व्याप्त रहता है। अपनी-अपनी अस्मिताओं को बचाने और बनाने का उत्सव तो सब करते हैं पर उसे छोड़ कर व्यापक समष्टि की अस्मिता अपनाने का साहस दिलाना होली का प्रयोजन है। अपनी अस्मिता को छोड़ या उसका विस्तार कर बड़ी अस्मिता को अंगीकार करना सामाजिक परिवर्तन की शक्ति होता है। समानताओं की पहचान भी ज़रूरी है। हम सिर्फ़ एक दूसरे से भिन्न हैं यह कहना अधूरी बात होगी और असत्य भी क्योंकि हम सबमें व्यापक समानताएँ भी हैं। मनुष्य होने के लक्षण सबमें हैं और मनुष्यता भी इसीलिए जीवित है सभी किसी न किसी सीमा तक उस मनुष्यता से जुड़ रहे हैं। संकुचित और छुद्र अस्मिताओं से ऊपर उठ कर देश और समाज की व्यापक अस्मिता का अंग बनते हुए ही हम उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।

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