नई दिल्ली। पाँच वर्ष पहले, 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा ने न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती दी थी, बल्कि इसके बाद की घटनाओं ने भारतीय राजनीति और समाज के कुछ गंभीर पहलुओं को भी उजागर किया था। यह दंगा केवल स्थानीय विवाद का परिणाम नहीं था, बल्कि इसे एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भारत-विरोधी ताकतों द्वारा अंजाम दिया गया था, जैसा कि कई विश्लेषक मानते हैं।
समय का चयन और उद्देश्य
दिल्ली दंगे का समय बहुत ही खास था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा से पहले ही यह हिंसा भड़काई गई, ताकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में इसे प्रमुखता मिल सके और भारत की छवि को धूमिल किया जा सके। यह साजिश एक बड़े राजनीतिक उद्देश्य से जुड़ी हुई थी, जिसमें सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ चल रहे आंदोलन के बाद भारत में हिंसा फैलाने की योजना बनाई गई थी। शाहीन बाग में सीएए विरोधी आंदोलन से कुछ खास न मिलने के बाद, दंगों को एक नया मोड़ दिया गया, जिसमें 7,000 बाहरी तत्वों को दिल्ली बुलाया गया।
दंगे की पृष्ठभूमि और शिकार
दंगे की एक विशेषता यह थी कि यह दो समुदायों के बीच किसी सामान्य विवाद का परिणाम नहीं था, बल्कि इसमें हिंदुओं को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। यह सब कुछ सीएए के समर्थन और सरकार की अन्य नीतियों के विरोध में हुआ। मस्जिदों और मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में हिंसा फैलाने का काम किया गया, जिनका उद्देश्य हिंदू समुदाय के प्रतिष्ठानों और व्यापारों को निशाना बनाना था। पुलिस की जांच में यह स्पष्ट हुआ कि दंगाइयों को पहले से ही निर्देश दिया गया था कि वे सीसीटीवी कैमरे तोड़ दें और स्थानीय मुस्लिम समुदाय को अपने प्रतिष्ठान बंद करने के लिए प्रेरित करें।
राजनीतिक कनेक्शन और कट्टरपंथी प्रभाव
दिल्ली दंगे के पीछे सिर्फ स्थानीय मुद्दे नहीं थे, बल्कि इसके रचनात्मक भागीदारों में कट्टरपंथी संगठन और उनके राजनीतिक प्रेरक तत्व भी शामिल थे। विशेष रूप से, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया जैसे संस्थानों में कट्टरवाद का गढ़ होने का आरोप रहा है। इन संस्थानों का राजनीतिक संदर्भ और मुस्लिम संगठनों की गतिविधियाँ दिल्ली दंगों के संदर्भ में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
न्यायिक प्रणाली और पुलिस प्रशासन की भूमिका
आज भी दिल्ली के दंगों से संबंधित मामलों में न्याय का पालन लंबित है। अगर सरकार और न्याय व्यवस्था इस तरह के मामलों में त्वरित कार्रवाई और फैसले सुनिश्चित नहीं करती, तो अपराधी अपनी गतिविधियों में सफल हो जाते हैं और वे समाज के लिए और भी खतरनाक साबित होते हैं। 1984 के सिख दंगों के उदाहरण से हम देख सकते हैं कि ऐसे मामलों में अदालतों में देरी और न्यायिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार ने कई अपराधियों को बचने का मौका दिया। इस प्रकार, दिल्ली दंगों में न्याय की प्राथमिकता अभी भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।
समाज के प्रति संवेदनशीलता और जिम्मेदारी
इस सबके बीच, यह सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है कि इस प्रकार की हिंसा की पुनरावृत्ति न हो। इसके लिए प्रशासन, पुलिस बल और न्यायिक प्रणाली को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। एक सक्षम और जिम्मेदार न्यायिक प्रणाली जो त्वरित फैसले ले सके, ही ऐसे दंगों को रोक सकती है। हम चाहते हैं कि न्यायालय समाज के प्रति अधिक संवेदनशील हों और उन परिवारों की पीड़ा को समझें जिन्होंने इन दंगों में अपनों को खोया या अपनी संपत्ति गंवाई।
2020 के दिल्ली दंगे सिर्फ एक स्थानीय घटना नहीं थे, बल्कि यह एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा थे, जिसका उद्देश्य देश की छवि को नुकसान पहुँचाना था। यह दंगे समाज को विभाजित करने, राजनीतिक लाभ प्राप्त करने और भारत की शक्ति को कमजोर करने की एक साजिश थी। अब यह हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम इस तरह की हिंसा की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए हर संभव कदम उठाएं और एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था स्थापित करें जो समाज के हर वर्ग की रक्षा कर सके।