विशेष
बिहार ही नहीं, देश भर के पिछड़ों में गया है गलत संदेश
आइएएस एसोसिएशन ने भी जतायी है रिहाई पर आपत्ति
बिहार की नीतीश कुमार सरकार के एक फैसले के कारण गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया की हत्या के दोषी बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन सहित 27 कैदियों की रिहाई होने वाली है। राजनीतिक रूप से इस बेहद संवेदनशील फैसले के बाद से बिहार की राजनीति में बयानों का दौर जारी है। सत्तारूढ़ राजद और जदयू ने जहां पूर्व सांसद की रिहाई का स्वागत किया है, वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा इस मामले पर हमलावर तो जरूर है, लेकिन जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए संभल कर बयान दे रही है। इस राजनीतिक बयानबाजी से अलग कृष्णैया की विधवा और आइएएस एसोसिएशन ने नीतीश सरकार के फैसले पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि इससे लोक सेवकों के मनोबल पर असर पड़ेगा। लेकिन इस फैसले का सियासी असर यह है कि देश भर के पिछड़े समुदाय में इसका गलत संदेश गया है। चूंकि कृष्णैया पिछड़ा वर्ग से आते थे, इसलिए इस वर्ग के नेताओं का कहना है कि बिहार सरकार ने जो काम किया है, उसे समाज कभी माफ नहीं करेगा। जिन लोगों को रिहा किया जा रहा है, उसमें कैसे-कैसे लोग और कौन-कौन लोग हैं, यह सबको मालूम है। इन तीन तरह की प्रतिक्रियाओं को देखने के बाद यह तो साफ हो गया है कि आनंद मोहन की रिहाई का सियासी मतलब भी है और इस पर आगे भी सियासत होगी, लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि नीतीश कुमार जैसे अनुभवी राजनेता ने ऐसा फैसला क्यों लिया, जो उनके लिए उल्टा पड़नेवाला है। इसके पीछे का कारण जानने के लिए बिहार के सियासी इतिहास पर नजर डालनी जरूरी है। बिहार का राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहां राजपूत वोटर का अधिकांश हिस्सा हमेशा राजद के साथ रहा है। कुछ सीटों और उम्मीदवारों को ध्यान में रखते हुए इस जाति के लोग भाजपा को भी वोट देते हैं। इसके अलावा राजपूतों की राजद के ‘माइ’ समीकरण (मुस्लिम-यादव) के साथ इसलिए भी जुगलबंदी रही है, क्योंकि भाजपा और कांग्रेस में पहले से ही ब्राह्मण और भूमिहारों ने अपनी पैठ बना ली थी। राजद ने भी इस जाति के नेताओं को खास तवज्जो दिया है। ऐसे में नीतीश कुमार के इस फैसले के पीछे की राजनीति बहुत हद तक समझ में आती है। आनंद मोहन की रिहाई के पीछे की इसी राजनीति को सामने ला रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
2024 के आम चुनावों की हलचल के बीच विपक्षी एकता की धुरी के रूप में उभर रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक फैसले से बिहार के एक बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन एक दो दिनों में जेल से निकलनेवाले हैं। आनंद मोहन गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के मामले में दोषी थे और आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। बात पांच नवंबर 1994 की है। तब बिहार के गोपालगंज में जी कृष्णैया जिलाधिकारी हुआ करते थे। कृष्णैया युवा आईएएस अधिकारी थे और तेलंगाना के महबूबनगर से थे। कृष्णैया दलित थे। वह माफिया कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला के अंतिम संस्कार में पुलिस फोर्स के साथ पहुंचे थे। कौशलेंद्र की एक दिन पहले हत्या हो गई थी। उन दिनों राज्य में अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष चल रहा था। एक तरफ लालू यादव थे तो दूसरी ओर आनंद मोहन थे। कौशलेंद्र शुक्ला आनंद मोहन का करीबी बताया जाता था। बताया जाता है कि उसके अंतिम संस्कार में अचानक भीड़ आगबबूला हो गई। भीड़ ने तत्कालीन डीएम कृष्णैया पर हमला कर दिया और पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी। भीड़ को उकसाने का आरोप आनंद मोहन पर लगा। मुजफ्फरपुर के खबरा इलाके में हुई इस हिंसा के बाद आनंद मोहन को अदालत से फांसी की सजा सुनायी गयी। बाद में उसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया। पिछले 15 साल से वह बिहार की सहरसा जेल में सजा काट रहे हैं। जेल में रहने के बावजूद आनंद मोहन एक ताकतवर राजपूत नेता बने रहे। उनकी पत्नी लवली आनंद भी सांसद भी बनीं।
आनंद मोहन की रिहाई के लिए कानून में बदलाव
आनंद मोहन की रिहाई के लिए बिहार सरकार ने अपने कानून तक में बदलाव किया है। उसने जेल नियमों में संशोधन कर दिया है। इस संशोधन के चलते आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता साफ हो गया है। इसी का विपक्ष के नेता विरोध कर रहे हैं। वैसे कहा जा रहा है कि आनंद मोहन की रिहाई विधिसम्मत तरीके से की गयी है। इतने दिनों तक वह जेल में थे।
बिहार की राजनीति में आनंद मोहन की ताकत
आनंद मोहन बिहार के सहरसा जिले के पचगछिया गांव से आते हैं। उनके दादा राम बहादुर सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के दौरान आनंद मोहन की राजनीति में एंट्री हुई थी। उस वक्त वह महज 17 साल के थे।
राजनीति में कदम रखने के बाद आनंद मोहन ने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी थी। इमरजेंसी के दौरान पहली बार दो साल जेल में रहे। आनंद मोहन का नाम उन नेताओं में शामिल है जिनकी बिहार की राजनीति में 1990 के दशक में तूती बोला करती थी। जेपी आंदोलन के जरिए ही आनंद मोहन बिहार की सियासत में आए और 1990 में सहरसा जिले की महिषी सीट से जनता दल के टिकट पर चुनाव जीते। तब बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव थे। 1993 में उन्होंने बिहार पीपल्स पार्टी बना ली। आनंद मोहन उन दिनों लालू यादव के सबसे बड़े विरोधी थे।
उस दौर में बिहार में जाति की लड़ाई चरम पर थी। अपनी-अपनी जातियों के लिए राजनेता भी खुलकर बोलते दिखते थे। उसी दौर में आनंद मोहन लालू के घोर विरोधी के रूप में उभरे। तब आनंद मोहन पर हत्या, लूट, अपहरण, फिरौती, दबंगई समेत दर्जनों मामले दर्ज हुए। अगड़ी जातियों में उनकी धमक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 में जेल में रहते हुए ही आनंद मोहन ने शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 1998 में आनंद मोहन शिवहर लोकसभा क्षेत्र से दोबारा सांसद चुने गये थे। आनंद मोहन बिहार में सवर्णों के बड़े नेता माने जाते हैं। खासतौर पर राजपूत वर्ग में उनकी काफी अधिक लोकप्रियता रही। बिहार में राजपूत वोटर्स की आबादी छह से सात प्रतिशत है। सूबे में 30 से 35 विधानसभा सीटों और छह से सात लोकसभा सीटों पर राजपूत वोटर्स निर्णायक स्थिति में हैं। सूबे में 30 से 35 विधानसभा सीटों और छह से सात लोकसभा सीटों पर राजपूत वोटर्स निर्णायक स्थिति में हैं। आनंद मोहन 1990 में पहली बार महिषी सीट से जनता दल के टिकट पर विधायक चुने गये थे। इसी दौरान उन्होंने मंडल कमीशन का विरोध भी किया था। इसके कारण राजपूतों में उनकी पैठ बनती गयी। उनकी पत्नी लवली आनंद ने 1994 के लोकसभा उपचुनाव में वैशाली से राजद उम्मीदवार को हरा दिया था। इसके बाद आनंद मोहन 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव में शिवहर से सांसद बने। आनंद मोहन की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सत्येंद्र नारायण सिंह जैसे कद्दावर नेता की बहू को चुनाव में हरा दिया था।
आनंद मोहन की रिहाई का कितना लाभ
आनंद मोहन वैसे तो पुराने दौर के नेता रह चुके हैं। उम्र में वह नीतीश कुमार से बड़े हैं। उनकी सियासी प्रासंगिकता को एक परीक्षण से गुजरना पड़ेगा। पुराने लोगों में भले ही उनकी पैठ अभी भी हो, लेकिन नये दौर के नेता और खासकर युवा उनके बारे में क्या सोचते हैं, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। बिहार की सियासत को नजदीक से जाननेवालों का मानना है कि लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ जैसे राजपूत के उभरते हुए नेता के कारण भाजपा को भले ही वोट मिल जाये, लेकिन विधानसभा में राजपूत अपना समर्थन राजद को देंगे। लेकिन सवाल यह भी है कि ‘आर’ (राजपूत) फैक्टर से ‘एम’ (महागठबंधन) को कितना फायदा या नुकसान होनेवाला है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि आनंद मोहन की राजपूतों में अच्छी पकड़ है। उनकी रिहाई से महागठबंधन को काफी फायदा होने की संभावना है। लेकिन बिहार सरकार के इस फैसले से ओबीसी समुदाय खासा नाराज दिख रहा है। चूंकि कृष्णैया ओबीसी थे और उनकी पत्नी के अलावा आइएएस एसोसिएशन ने बिहार सरकार के इस फैसले पर जिस तरह आपत्ति की है, उससे साफ लगता है कि नीतीश कुमार के लिए यह दांव उल्टा न पड़ जाये।
भाजपा ने किया विरोध तो होगा नुकसान
आनंद मोहन की रिहाई के फैसले के मुद्दे पर भाजपा दुविधा में है। ऐसी संभावना है कि आनंद मोहन 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर जहां-जहां बिहार में प्रचार करेंगे, वहां राजपूत समाज महागठबंधन के पक्ष में लामबंद हो सकता है। कोसी क्षेत्र में राजपूत समाज आनंद मोहन के लिए एकतरफा वोट करेगा। भाजपा खुलकर आनंद मोहन का विरोध इसलिए नहीं कर रही है, क्योंकि आनंद मोहन की राजपूत समाज में अच्छी पैठ है। भाजपा विरोध करेगी, तो उसे नुकसान हो सकता है। यही कारण है कि सुशील मोदी को छोड़ कर बिहार भाजपा के अधिकांश नेताओं ने इस रिहाई का एक तरह से स्वागत ही किया है।
उठ रहा सवाल
अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन सरकार ने राजपूत समाज को अपनी तरफ लामबंद करने के लिए आनंद मोहन की रिहाई का दांव चला है। बिहार के राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि आनंद मोहन की रिहाई से महागठबंधन को 2024 के लोकसभा चुनाव में फायदा होगा। राजपूत समाज महागठबंधन के पक्ष में लामबंद हो सकता है। लेकिन उन 12 सीटों पर महागठबंधन को नुकसान होगा, जहां ओबीसी मतदाता अधिक हैं। लेकिन मुख्य बात यही है कि हाल के दिनों में 2024 के लिए विपक्षी एकता की धुरी बने नीतीश कुमार ने आनंद मोहन की रिहाई करनेवाला महंगा फैसला क्यों किया, जबकि वह जानते थे कि ओबीसी समाज में इसका गलत संदेश जायेगा। बहरहाल इस फैसले का वास्तविक असर जानने के लिए 2024 का इंतजार तो करना ही होगा।