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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»कुछ राज्यों में क्यों थम जाते हैं भाजपा के विजय रथ के पहिये!
    स्पेशल रिपोर्ट

    कुछ राज्यों में क्यों थम जाते हैं भाजपा के विजय रथ के पहिये!

    adminBy adminApril 15, 2023No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    -कर्नाटक की स्थिति और मध्यप्रदेश की संभावनाएं कर रहीं सवाल
    -यूपी-उत्तराखंड और असम से क्यों नहीं सीखते भाजपा के राज्य स्तरीय नेता

    दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी अगले महीने कर्नाटक में होनेवाले विधानसभा चुनाव की संभावित स्थिति को लेकर परेशान है। तमाम सर्वेक्षण और जमीनी स्थिति सत्ता में भाजपा की वापसी की संभावनाओं को खारिज कर रहे हैं। इसके बाद इस साल के अंत में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से मध्यप्रदेश में ही भाजपा की सरकार है। वहां भी भाजपा के लिए स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, क्योंकि गृह मंत्री अमित शाह पिछले महीने वहां गये थे और उन्होंने नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाओं से इनकार नहीं किया था। कर्नाटक की स्थिति और मध्यप्रदेश की संभावनाओं की पृष्ठभूमि में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर भाजपा के विजय रथ के पहिये कुछ राज्यों में आकर थम क्यों जाते हैं। किन कारणों से भाजपा राज्यों में कमजोर हो रही है।

    साल 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा सिर्फ सात राज्यों में सत्ता संभाल रही थी, लेकिन मार्च 2018 आते-आते वह 21 राज्यों में सरकार बनाने में सफल हो गयी। लेकिन 2023 में स्थिति यह है कि भाजपा के हाथ से पहले झारखंड और फिर महाराष्ट्र निकल गये। आज भाजपा 12 राज्यों में सत्ता में है, जबकि महाराष्ट्र में वह सरकार में सहयोगी की भूमिका में है। राज्यों में भाजपा का विजय रथ 2018 से रुकना शुरू हुआ। इसका मुख्य कारण यह है कि पार्टी पीएम नरेंद्र मोदी के जादू पर पूरी तरह निर्भर हो गयी। राज्यों के नेताओं को लगा कि जब तक मोदी हैं, उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। यूपी, उत्तराखंड और असम जैसे राज्यों में भाजपा सरकारों ने मोदी की छत्रछाया में काम किया, तो उसका नतीजा अच्छा रहा, लेकिन बाकी राज्यों में पार्टी नेताओं ने इन राज्यों से कुछ नहीं सीखा। अब कर्नाटक और मध्यप्रदेश की चुनौती सामने है और भाजपा के लिए 2024 से पहले इस कमजोरी पर ध्यान देना जरूरी हो गया है। भाजपा की इसी कमजोरी का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
    दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी इस समय कुछ राज्यों में अजीब से द्वंद्व में फंसी हुई नजर आ रही है। कर्नाटक में अगले महीने विधानसभा का चुनाव है और वहां के सर्वेक्षण और जमीनी हालात सत्ता में अपने बल पर भाजपा की वापसी की संभावनाओं को खारिज कर रहे हैं।
    इसी तरह इस साल के अंत में मध्यप्रदेश में भी विधानसभा का चुनाव होना है और वहां भी भाजपा खुद को बहुत मजबूत नहीं महसूस कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा पिछले महीने मध्यप्रदेश का दौरा कर चुके हैं और उन्हें मिला फीडबैक बहुत उत्साहजनक नहीं है। इसके अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी इस साल के अंत तक चुनाव होना है, जहां कांग्रेस सत्ता में है। वहां भाजपा सीधे मुकाबले के लिए कितनी तैयार है, यह भी अहम सवाल है।
    इस सियासी माहौल में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर 2024 में लगातार तीसरी बार देश की सत्ता में वापस आने के लिए तैयार भाजपा का विजय रथ कुछ राज्यों में क्यों रुक जाता है। आखिर वे कौन से कारण हैं, जो कुछ राज्यों में भाजपा के विजय रथ के पहिये पर ब्रेक लगा देते हैं। इन सवालों के जवाब जानने से पहले राजनीतिक स्थिति पर नजर दौड़ानी होगी।

    क्या थी देश की सियासी तस्वीर
    2018 और 2022 के बीच चार साल की अवधि में देश के 30 राज्यों में चुनाव हुए, यानी हर भारतीय राज्य में चुनाव हुआ (दिल्ली और पुड्डुचेरी में भी, क्योंकि वहां मुख्यमंत्री हैं)। हर चुनाव में भाजपा एक महत्वाकांक्षी ‘मिशन’ नंबर लेकर आती है। यदि राज्य विधानसभा में एक सौ सीटें हैं, तो भाजपा चुनाव अभियान के दौरान ‘मिशन 65+’ या कुछ ऐसी ही संख्या की घोषणा करती है, जो यह संकेत देती है कि चुनाव में वह सभी का सूपड़ा साफ कर देगी।
    लेकिन भारतीय राजनीति में भाजपा के प्रभुत्व को देखते हुए यह सवाल बेहद अहम हो गया लगता है कि इन 30 राज्यों के चुनावों में से कितने चुनाव भाजपा ने पूर्व या बाद के सहयोगियों के बिना अपने स्वयं के स्पष्ट बहुमत या बलबूते पर जीते? इनमें से कितने राज्यों में ये महत्वाकांक्षी ‘मिशन’ सफल हुए? आंकड़ों के अनुसार पांच वर्षों में इन 30 में से भाजपा ने केवल सात राज्यों में अपने बूते पर जीत हासिल की। इनमें उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और गोवा शामिल हैं। इस सूची पर नजर दौड़ाने से साफ हो जाता है कि इन सात में से केवल दो बड़े राज्य हैं, जिनके पास संसद के निचले सदन लोकसभा में पर्याप्त सीटें हैं। इन पांच सालों में जहां भाजपा गठबंधन के साथ जीती या चुनाव के तुरंत बाद गठबंधन बनाया, वह एक बड़ी संख्या होनी चाहिए। लेकिन ऐसे केवल नौ राज्य हैं और उनमें से अधिकांश छोटे उत्तर पूर्वी राज्य हैं। उत्तर-पूर्व को वैसे भी केंद्र के साथ चलने की आदत है। ये नौ राज्य हैं हरियाणा, असम, सिक्किम, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, पुड्डुचेरी, बिहार और महाराष्ट्र। बिहार में भाजपा की सहयोगी पार्टी जदयू ने उसे छोड़ दिया है और महाराष्ट्र में सहयोगी शिवसेना ने चुनाव के बाद उसे छोड़ दिया था, हालांकि बाद में भाजपा ने शिवसेना के बागी गुट, जिसे अब असली शिवसेना की मान्यता मिल गयी है, के साथ मिल कर सरकार बना ली। मध्यप्रदेश और कर्नाटक में भाजपा ने राजनीतिक दांव-पेंच की मदद से सरकार बनायी।

    इसके विपरीत विपक्ष ने ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, झारखंड, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, दिल्ली और हाल ही में हिमाचल प्रदेश जीता। इन 13 राज्यों में से झारखंड को छोड़ कर एकदलीय बहुमत है, जिनमें से अधिकांश बड़े राज्य हैं।

    राज्यों का भारत
    राज्यों के माध्यम से भारतीय राजनीति को देखते हुए भाजपा प्रभुत्व का सुझाव नहीं देती है। राज्य की राजनीति निश्चित रूप से यह सुझाव नहीं देती है कि भारत एकदलीय राज्य बनाने की कगार पर है। लेकिन यह भी सच है कि भारतीय विपक्षी दल अनावश्यक रूप से हतोत्साहित दिख रहे हैं। तब सवाल है कि आखिर उन्हें भाजपा का प्रभुत्व इतना भारी क्यों लगता है। इसका कारण यह है कि केंद्र में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है और वह इस स्पष्ट बहुमत का उपयोग राज्यों में भी स्थापित करने में सक्षम है। भाजपा इसलिए भी मजबूत दिख रही है, क्योंकि विपक्ष बंटा हुआ है और एक भी पार्टी एकजुट होने की बात नहीं करती। लेकिन यहां सबक लेने वाली यह बात है कि विपक्षी मुख्यमंत्रियों को और अधिक एकजुट होने और नीतिगत मुद्दों पर दबाव डालने से रोकने की जरूरत है। कई मायनों में केंद्र और राज्यों के बीच तनाव भारतीय संघवाद के लिए सही नहीं है।

    भाजपा की कमजोरी के कारण
    यूपी, असम और गुजरात छोड़ कर अन्य राज्यों के चुनावों को एकतरफा बनाने में भाजपा क्यों सफल नहीं हो पा रही है।
    अगर आंकड़ों पर गौर करें, तो साल 2014 में जब भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में आयी थी, तो उसी के साथ राज्यों में भी उसने बेहतर प्रदर्शन किया था। इसकी एक बड़ी वजह यह मानी जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भाजपा पूरे देश का माहौल बदलने में कामयाब रही थी। मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की थी। फिर साल 2019 के आम चुनावों में पार्टी और ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में आयी, लेकिन इन चुनावों के महज छह महीने के बाद जो विधानसभा चुनाव हुए, उसमें पार्टी पहले जैसा प्रदर्शन करने में नाकामयाब रही। इसके पीछे कारण यही रहा कि राज्यों में भी पार्टी मोदी के जादुई व्यक्तित्व को भुनाने में लग गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेताओं का अभाव होने लगा। योगी आदित्यनाथ, पुष्कर सिंह धामी और हिमंत बिस्वा सरमा को छोड़ भाजपा का कोई भी मुख्यमंत्री इस स्थिति में नहीं रह गया कि राज्य के लोगों को अपनी उपलब्धि बता सके। भाजपा को समझना होगा कि अब मतदाता देश और राज्य के आधार पर अलग-अलग सोच कर वोट करता है। वह वोट करने से पहले सोचता है कि वह राज्य की सरकार चुन रहा है या फिर केंद्र की सरकार। अगर इस बात को और बेहतर तरीके से समझना है, तो साल 2019 में ओड़िशा में हुए चुनाव को ही उदाहरण मान लें। एक ही दिन विधानसभा के भी चुनाव हुए और उसी दिन लोकसभा के भी, लेकिन जनता ने राज्य सरकार के लिए बीजू जनता दल को चुना और केंद्र में सत्ता के लिए भाजपा को।
    इसलिए अब भाजपा को सोचना होगा कि कर्नाटक में आसन्न चुनाव और बाद में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में होनेवाले चुनाव के दौरान उसकी रणनीति क्या होनी चाहिए। पार्टी हर चुनाव में यदि मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व को ही सामने रखेगी, तो फिर लोग उसमें दाग भी खोजने लगेंगे और तब भाजपा को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। भाजपा आलाकमान को भी राज्यों में नेतृत्वकर्ता के रूप में ऐसे नेताओं को आगे लाना होगा, जिसकी राज्य में अपनी भी कुछ साख हो। वह राज्य के लोगों में अपनी विश्वसनीयता रखता हो। सत्ता के दौरान उसके कामकाज पर भी पार्टी आलाकमान को नजर रखनी होगी।

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