विशेष
-बिरसा की जन्मस्थली पर फिर होगा अर्जुन और काली का मुकाबला
-दोनों उम्मीदवार खूब बहा रहे हैं पसीना, पर सामने हैं बड़ी चुनौतियां
झारखंड की राजधानी रांची से सटे खूंटी संसदीय क्षेत्र की पहचान अमर स्वतंत्रता सेनानी भगवान बिरसा मुंडा की वजह से है। इलाके के सघन वन क्षेत्र और ऊंची पहाड़ियों में उनके गोरों से संघर्ष के निशान आज भी मौजूद हैं। सियासी मोर्चे पर कड़िया मुंडा ने खूंटी की पहचान कायम की। इस बार भी चुनाव मैदान में कड़िया मुंडा की जगह पर अर्जुन मुंडा है, जो पिछली बार बेहद रोमांचक मुकाबले में जीते थे। उनका मुकाबला इस बार भी कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से है। अर्जुन मुंडा केंद्र में मंत्री हैं। वह इस क्षेत्र की जटिलताओं से वाकिफ हैं। लिहाजा वह रणनीतिक मोर्चे पर सतर्क और सजग भी हैं। लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी कालीचरण मुंडा भी उनसे बहुत पीछे नहीं हैं। वह इलाके के प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं। खूंटी में इस बार भी मुंडा वोटरों को साधने से लेकर मिशनरियों की रणनीति भेदने समेत शहरी वोटरों को आकर्षित करने की चुनौती इस बार भी दोनों प्रत्याशियों के सामने है। इसमें जो कामयाबी पायेगा, जीत का सेहरा उसी के सिर बंधेगा। खूंटी लोकसभा सीट का इतिहास शुरू से काफी रोमांचक रहा है और इस बार इस सीट के रोमांच में और बढ़ोत्तरी होने की उम्मीद जतायी जा रही है। खूंटी लोकसभा क्षेत्र की छह विधानसभा सीटों में से चार इंडी गठबंधन के पास हैं और दो भाजपा के पास। 2019 में अर्जुन मुंडा और कालीचरण मुंडा के बीच जैसी चुनावी लड़ाई दिखी थी, उसे 2024 के चुनावी समीकरण में निश्चित तौर पर भाजपा के लिए चिंता का विषय कहा जा सकता है। क्या हैं खूंटी संसदीय सीट के समीकरण और प्रत्याशियों के सामने चुनौतियां, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
भगवान बिरसा मुंडा से लेकर पत्थलगड़ी तक के लिए पूरी दुनिया में चर्चित खूंटी संसदीय सीट झारखंड की एक हॉट सीट है। केंद्रीय मंत्री और तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा यहां से लगातार दूसरी बार चुनाव मैदान में उतरे हैं। उनका मुकाबला कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से है, जिन्होंने 2019 में भी बेहद नजदीकी मुकाबला किया था। खूंटी अक्सर सुर्खियों में रहता है। संयुक्त बिहार में इसे पहला अनुमंडल बनाया गया था। मुंडा बहुल इस जिले में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के विरुद्ध उलगुलान किया था। वर्ष 1890 से लगभग 10 वर्ष तक चले बिरसा आंदोलन का प्रमुख केंद्र खूंटी ही था। कोयल-कारो बांध का विरोध भी इसी इलाके में हुआ था। झारखंड गठन के बाद भी इलाके में जन आंदोलन होते रहे। मित्तल कंपनी के स्टील प्लांट और सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ हुए आंदोलनों के लिए भी खूंटी जाना जाता है। हॉकी के धुरंधर मारांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा की जनस्थली भी खूंटी ही है।
खूंटी लोकसभा सीट को भाजपा का गढ़ माना जाता है। इस सीट पर 2009 से लगातार भाजपा जीत रही है। हालांकि 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने उसे कड़ी टक्कर दी थी। उस चुनाव में भाजपा के अर्जुन मुंडा ने बेहद नजदीकी मुकाबले में महज 1435 मतों के अंतर से जीत हासिल की थी।
खूंटी का सियासी इतिहास
खूंटी सीट पर भाजपा ने साल 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार अपना खाता खोला था। उस चुनाव में कड़िया मुंडा सांसद चुने गये थे। बाद में कड़िया मुंडा 1991, 1996, 1998 और 1999 में लगातार पांच बार यहां से सांसद बने। इसके बाद वह 2009 और 2014 में भी भाजपा के टिकट पर लोकसभा पहुंचे। साल 2004 में कांग्रेस की सुशीला केरकेट्टा ने खूंटी से जीत दर्ज करने में कामयाबी हासिल की थी। वहीं 1962 और 1967 में झारखंड पार्टी के जयपाल सिंह मुंडा और 1971 और 1980 में एनइ होरो यहां से सांसद बने थे। 1977 में कड़िया मुंडा जनता पार्टी के टिकट पर भी लोकसभा पहुंचे थे। 1984 में यह सीट कांग्रेस के साइमन तिग्गा के हिस्से में गयी थी।
खूंटी का सामाजिक ताना-बाना
खूंटी लोकसभा सीट पर मुंडा जनजातियों की बाहुल्यता है। कुछ मान्यताओं के मुताबिक खूंटी का नाम महाभारत की कुंती से भी जोड़ा जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र को महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा के नाम से जाना जाता है। यहां पर एससी समुदाय की आबादी 6.44 प्रतिशत, जबकि एसटी समुदाय की आबादी 64.85 प्रतिशत है। खूंटी का नाम पूरी दुनिया में उस समय चर्चित हुआ था, जब यहां के ग्रामीण इलाके में पत्थलगड़ी नामक आंदोलन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था। नक्सलियों के गढ़ में इस तरह के आंदोलन को अलगाववादी आंदोलन कहा गया और सरकार की सख्ती ने इसे दबा दिया।
अर्जुन मुंडा के सामने कई चुनौतियां
भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा को अपने संसदीय क्षेत्र में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। एक ओर जहां कुर्मी महतो, रौतिया, तेली आदि जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिये जाने से इन समुदायों से विरोध के स्वर निकलने लगे हैं, वहीं कुछ अन्य जातियों को आदिवासी का दर्जा दिये जाने से आदिवासी समुदाय में भी नाराजगी है। भाजपा विरोधी सोशल मीडिया में अर्जुन मुंडा को पातर समुदाय का बताकर उनकी उम्मीदवारी के विरोध को हवा देने में लगे हैं। भाजपा की प्रचंड लहर के बाद भी अर्जुन मुंडा 2019 के चुनाव में हारते-हारते 1435 मतों से जीत गये। उस समय भी भाजपा की गुटबाजी खुलकर सामने आ गयी थी। नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर के बावजूद अर्जुन मुंडा बहुत कम अंतर से जीत हासिल कर पाये थे। खरसावां और तमाड़ विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस प्रत्याशी की तुलना में अर्जुन मुंडा को अच्छी खासी बढ़त मिल गयी और वे किसी प्रकार चुनाव जीत गये, अन्यथा छह में से चार विधानसभा क्षेत्रों सिमडेगा, कोलेबिरा, तोरपा और खूंटी में तो कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा प्रत्याशी से अच्छी-खासी बढ़त हासिल कर जीत की दहलीज पर पहुंच गये थे।
इस बार भी चुनाव के पहले भाजपा की गुटबाजी की चर्चा राजनीतिक गलियारों में होने लगी है। हालांकि भाजपा नेताओं में व्याप्त गुटबाजी के बारे में पार्टी समर्थकों का कहना है कि स्थानीय स्तर पर उत्पन्न इस गुटबाजी का मतदाताओं में कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि भाजपा समर्थक यहां के मतदाता हमेशा से केंद्रीय नेताओं के प्रभाव में अपना मत का प्रयोग करते रहे हैं, लेकिन फिर भी इस गुटबाजी का कहीं ना कहीं थोड़ा बहुत असर पड़ने की संभावना से इंकार भी नहीं किया जा रहा है। ऐसे में गुटबाजी को पाटने के लिए भाजपा नेताओं के उदासीन रवैये पर भी सवाल उठने लगे हैं। भाजपा नेताओं का मानना है कि इस चुनाव में मोदी और राम मंदिर सब मुद्दों पर भारी है और भाजपा प्रत्याशी भारी मतों से जीत हासिल करेंगे।
खूंटी के मुद्दों पर क्या है प्रत्याशियों की राय
जहां तक चुनावी मुद्दों की बात हो, तो दोनों प्रत्याशी विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग राय रखते हैं। मसलन अर्जुन मुंडा पत्थलगड़ी को चुनावी मुद्दा नहीं मानते हैं, जबकि कालीचरण मुंडा भी इसे खूंटी का चुनावी मुद्दा नहीं मानते हैं, लेकिन आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़ा मामला बताते हैं। नक्सलवाद के मुद्दे पर भी दोनों की राय अलग-अलग है।