“अगर किसी फिल्म में इरफान हों तो कहानी का टेंशन लेने की जरूरत नहीं होती। फिल्म में कुछ नहीं भी होगा तो इरफान इतने सटीक ढंग से होंगे कि उन्हीं के सहारे ढाई-तीन घंटे का वक्त कट जाएगा। तो इस फिल्म में भी बिलकुल परफेक्ट टाइमिंग के साथ राज यानी कि इरफान मौजूद हैं। ”

मनीष मल्होत्रा, रितु कुमार के असली कपड़ों की बिलकुल ‘असली नकल’ बनाने वाले राज का चांदनी चौक में बड़ा सा ‘स्टूडियो’ है, बंदा मर्सडीज में घूमता है, अपनी दुकान में आई एक मोटी सी लड़की को करीना कपूर कह कर महंगा लहंगा बेच सकता है, दिल्ली की भाषा में ठेक ऐश से कट रही है, लेकिन फिर भी बीवी मिट्ठू (सबा कमर) खुश नहीं है। ना जी पति तो वो ठीक ठाक नहीं बढ़िया है। बस बंदे का अंग्रेजी में हाथ जरा तंग है। मिट्ठू बिलकुल नहीं चाहती कि बच्ची अच्छे अंग्रेजी स्कूल के अलावा कहीं पढ़ने जाए। क्योंकि यदि अंग्रेजी नहीं आएगी तो वह दूसरों से पिछड़ जाएगी, दूसरों से पिछड़ जाएगी तो डिप्रेशन में आ जाएगी और डिप्रेशन में उसने ड्रग लेना शुरू कर दिया तो…तो हाय रब्बा। सब मुसीबत का एक ही हल है, अंग्रेजी आना। और वह तो आएगी किसी फाइव स्टार अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ कर। अंग्रेजियत इस कदर हावी है कि मिट्ठू हाई सोसायटी के हिसाब से अपने लिए हनी कहलवाना ज्यादा पसंद करती है।

स्कूल के एडमिशन के लिए राज और मिट्ठू के पापड़ बेलने की यह कहानी है, जिसे निर्देशक साकेत चौधरी ने बड़े सहज ढंग से फिल्माया है, सिवाय आखिरी के बीस मिनट के जिसमें वह थोड़ा ज्ञान बांटू किस्म के हो जाते हैं। हिंदी फिल्मों की यही एक कमजोरी है जिस पर काम किया जाना बाकी है। कितना भी अच्छा सब्जेक्ट उठाएं, अंत में बाबा टाइप लेक्चर देखकर ही कनक्लूड करते हैं।

राइट टू एजुकेशन के दुरपयोग और कॉन्वेंट स्कूल में एडमिशन के पागलपन पर इतनी सरलता और कुशलता से लिखा जा सकता है यह देख कर सुखद आश्चर्य ही किया जा सकता है। दीपक डोबरियाल सही टाइम पर फिल्म में एंट्री लेते हैं और इरफान की गति के साथ दौड़ते हैं। एक अच्छी फिल्म बशर्ते बाहर आकर अंग्रेजी की रफ्तार के पागलपन में हम में से कई लोग बाहर आकर लगाम लगा सकें।

एक आखिरी बात। शिवसेना वालों को इस बार पता नहीं चला क्या कि सबा कमर एक पाकिस्तानी कलाकार है। मने हल्ला नहीं हुआ तो बस ऐसे ही सोचा पूछ लूं।

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