रांची। कभी संथाल परगना में जाने के लिए लोग दस बार सोचते थे। नक्सलियों का खौफ, आवागमन की समस्या और कई अन्य तरह की समस्याएं इस इलाके की नियति थीं। प्रकृति की बेशुमार सौगातों से भरा यह क्षेत्र गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण के लिए जाना जाता था। इस इलाके में कालापानी की सजा दी जाती थी। राजनीतिक रूप से यह क्षेत्र अनुर्वर था। संथाल आदिवासियों का यह इलाका विकास के लिए तरस रहा था। रोजगार के नाम पर कुछ नहीं था। पलायन इस इलाके के लोगों की नियति बनी हुई थी। क्षेत्रफल के हिसाब से झारखंड का सबसे बड़ा इलाका होने के बाद भी यहां बंगाल की संस्कृति हावी थी। यह जानकर आश्चर्य होगा कि बंगाल से अलग होने के 100 वर्षों के बाद भी लोगों के मन में यही भावना थी कि अभी भी वे बंगाल के ही पार्ट हैं। अलग राज्य बनने के बाद भी यहां राजनीति तो खूब हुई, पर विकास नहीं। लेकिन पिछले पांच वर्षों में इस क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव हुआ है। देखा जाये तो सबसे ज्यादा विकास के काम इसी इलाके में हुए हैं। धनबाद से दुमका जाने के क्रम में गोविंदपुर से ऐसी सड़क मिली, जिस पर गाड़ियां सरपट दौड़ती मिलीं। कहीं हिचकोले खाने का डर नहीं। सड़कों के दोनों किनारे फल-फूल के वृक्ष और स्वच्छता मन को लुभा रहे थे।
अभी राज्य के दूसरे शहर जहां नगर-शहर को ही साफ रखने की दुहाई दे रहे हैं, वहीं संथाल परगना के चौक-चौराहों पर यह सड़क को स्वच्छ रखने की बात हो रही है। नगर, शहर ही नहीं सड़कों को अतिक्रमण मुक्त रखने का आग्रह हो रहा है। इसका असर भी है। कहीं सड़कों पर कोई अतिक्रमण नहीं। बात करें तो कई ऐसे विकास के काम इस क्षेत्र में हुए हैं जो झारखंड के लिए मील के पत्थर साबित हो सकते हैं।
देवघर के देवीपुर में बन रहे एम्स से बात की शुरुआत करते हैं। दो साल पहले जो इलाका वीरान था, जहां परिंदे भी ठहरना मुनासिब नहीं समझते थे, आज वह इलाका बरबस लोगों की आंखें अपनी और खींच लेता है। टकटकी लगाकर लोग इस इलाके को देखने को मजबूर हो जा रहे हैं। इस उजाड़ इलाके की रौनक पूरी तरह से बदल गयी है। झारखंड को स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी सौगात है। काम तेजी से चल रहा है। लगभग दो किलोमीटर तक की चहारदीवारी लोगों को यह पूछने पर मजबूर कर रही है कि यहां क्या बन रहा है।
दुमका बाइपास रोड से गुजरने के क्रम में यहां बन रहे मेडिकल कॉलेज की निर्माणाधीन बिल्डिंग को देखने का मौका मिला। शहर से दूर प्रकृति की रमणीक वादियों में बन रहे इस मेडिकल कॉलेज को देखकर एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि झारखंड में भी इस तरह के सरकारी भवन बन रहे हैं। शापोरजी-पालोनजी नामक कंपनी को मेडिकल कॉलेज के लिए भवन बनाने का ठेका मिला है। काम तेजी से चल रहा है और उम्मीद है कि इसी वर्ष काम पूरा भी हो जाये। भवन को सजाने-संवारने, रंग-रोगन करने का काम चल रहा है। बोर्ड लग चुका है।
देवघर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा का बनना छोटी बात नहीं है। राजधानी रांची इसके लिए तरस गयी, लेकिन यहां अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा नहीं सैंक्शन हो पाया। आज संथाल परगना वायु मार्ग से देश-दुनिया से जुड़ने को बेताब है। आवागमन के लिए संथाल की सड़कों के क्या कहने। देश के किसी भी विकसित राज्य की सड़कों से यहां की सड़कों को कम नहीं आंका जा सकता। धनबाद से साहेबगंज या दुमका से गोड्डा, देवघर या झारखंड को बंगाल और बिहार से जोड़नेवाली सड़कें सभी चकाचक हैं। कहीं भी ठोकर नहीं, कहीं भी अवरोधक नहीं, सौ की स्पीड में गाड़ी चलाइये, गाड़ी बंप नहीं करती। इस तरह का विकास संथाल में दिख रहा है। सड़कें सिर्फ केंद्र सरकार यानी एनएच की ही नहीं राज्य सरकार की तरफ से बनी एसएच भी चमक रही है। इन सड़कों पर गाड़ियां सरपट दौड़ती नजर आती हैं। बात बिहार को जोड़नेवाले गंगा पुल की हो या फिर साहेबगंज में बन रहे अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह की, इस बात की ताकीद कर रहा है कि विकास संथाल पहुंच गया है। इन सबसे बड़ी बात तो यह है कि विकास में सबसे बड़ी बाधक नक्सली जड़ से उखड़ गये हैं। अब तो सुंदर पहाड़ी का इलाका भी नक्सलियों के खौफ से मुक्त हो गया है। संथाल में नक्सलियों के नाम अब गुम हो गये हैं। यह इलाका गुंडाविहीन भी है। बॉस संस्कृति यहां नहीं है। झारखंड के अन्य जिलों की कहानी सबको पता है। किसी भी जिले में जाइये, वहां किसी न किसी अपराधी के आतंक की कहानी आपको पता चलेगी। उसके नाम का सिक्का चलता दिखेगा, लेकिन संथाल परगना अब इससे अछूता हो गया है। यहां राजनीतिक दलों की सक्रियता गजब की बढ़ी है। हां यहां राजनीतिक दबंग जरूर हैं पर गुंडा या बॉस नहीं। राज्य सरकार ने साढ़े चार वर्षों में संथाल में सौगातों की बरसात की है। पहाड़ों पर जीवन बसर करनेवाली पहाड़िया आदिम जनजाति को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अदभुत काम किये गये हैं। अब तो उनके घर राशन पहुंच रहा है। पहाड़ों पर पानी पहुंचं गया है। रोशनी से इलाके जगमग हो गये हैँ। कह सकते हैं कि इस जनजाति के उत्थान के लिए पहली बार किसी सरकार ने खजाना खोल दिया है।
पहाड़िया बटालियन का गठन इस समाज के उत्थान के लिए सबसे बड़ा काम है। पहाड़िया आदिम जनजाति को सरकार की तरफ से मिलनेवाले मुफ्त आनाज को लाभुकों के घर तक पहुंचाने के लिए डाकिया योजना की शुरुआत की गयी। सरकारी स्कूलों का जाल बिछाया जा रहा है। संथाल भाषा की ओलचिकी लिपि को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है। अब तो इस भाषा में रेलवे स्टेशन पर उद्घोषणा भी की जा रही है। इसका असर इतना है कि अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने भाषणों में इसका जिक्र करते हैं। कह सकते हैं कि इससे बेहतर काम का अवसर राज्य सरकार के पास नहीं था, क्योंकि झारखंड में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी और इस सरकार ने विकास करके दिखाया भी है।
यह तो संथाल के विकास का एक पक्ष है। दूसरा बड़ा पक्ष राजनीतिक रूप से इस क्षेत्र में हुए बड़े बदलाव का है। राजनीतिक बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण यह कि जो दल कभी एक दूसरे की आंखों को नहीं सुहाते थे, आज वे एक हैं। जो कभी एक-दूसरे की बखिया उधेड़ने में अपनी शान समझते थे, आज उनके मुंह से आदर्श सूचक शब्द ही निकलते हैं। विपक्षी दलों की यह एकता दिखावे की नहीं है। कह सकते हैं कि विपक्ष को संगठित होने का इससे बड़ा सुअवसर नहीं हो सकता। संथाल के मामले में हर दल एक है। विपक्ष सिर्फ दिखावे के लिए संगठित नहीं है, बल्कि एक दूसरे को सम्मान भी दे रहा है। यही वजह है कि इस चुनाव में कभी झामुमो सुप्रीमो के धुर विरोधी झाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी सार्वजनिक मंच से कहते हैं कि मुझे गुरुजी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। झामुमो को इससे ज्यादा सम्मान नहीं मिल सकता। विपक्ष के नेताओं के ऐसे सम्मान के लिए गुरुजी और हेमंत को तरसना पड़ेगा। संथाल में गठबंधन जमीन पर काम करते दिखा। तन-मन-धन तीनों से एक साथ दिखे।
कभी बहुत कोशिश के बाद तन मिलता था तो मन नहीं और मन मिला तो तन नहीं मिल पाता था। यही वजह है कि पहली बार भाजपा के निशिकांत दुबे को महागठबंधन के नेताओं को तोड़ने में सफलता नहीं मिली। कोशिश तो उन्होंने बहुतेरी की, लेकिन उनकी एक नहीं चली। पहले वह विपक्ष को तोड़कर किसी को मैदान में उतार देते थे। लेकिन इस बार उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। ऐसी मजबूत स्थिति में भी अगर संथाल में विपक्ष इस बार चूक जाता है, तो यह मान कर चलिए उसके भाग्य में राजयोग है ही नहीं।
कानून व्यवस्था की स्थिति में भी यहां सुधार देखने को मिला। कभी इस इलाके में जंगल डर पैदा करता था। दुमका से मसानजोर चलते थे तो सांसें अटकी रहती थीं। लोग आसानी से इस इलाके का भ्रमण नहीं कर सकते थे। तभी तो लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने के बाद यहीं रखा गया था। आज यह रमणिक स्थल बन गया है। पर्यटन का बड़ा केंद्र है। यहां के जंगल, वहां की आवोहवा मानों पर्यटकों को आमंत्रित कर रही हों। सबसे बड़ी बात जो आर्थिक युग में जरूरी है, यहां के वनोत्पाद को बाजार भी मिल रहा है। जंगल के उत्पाद सड़कों पर दिख रहे हैं। दौरे के क्रम में दुमका से मसानजोर के रास्ते जंगल के बीच से गुजर रही सड़क पर केंद फल बेचता एक बच्चा मिल जाता है। दस रुपये में ढाई सौ ग्राम के करीब केंद फल बेच रहा है। इस फल को कैसे खाया जाता है, वह बताता भी है और इसके फायदा को भी गिनाता है। पहले भी यहां वनोत्पाद थे, मगर बाजार नहीं थे। अब सड़क पर ही बाजार मिल रहा है। यह परिवर्तन संथाल में देखने को मिला। सबसे बड़ी बात आप मसानजोर से गोड्डा तक चलिए। फलदार वृक्षों की कतार है। फलदार वृक्षों पर लदे फल लोगों की आंखों को सुकून पहुंचाते हैं। लोगों के मन को ललचाते हैं। स्थानीय लोग सड़क किनारे इन फलदार वृक्षों के प्रति भी सजग दिखे। यही वजह है कि वृक्ष में फल सुरक्षित हैं।
सड़क किनारे महुआ, सखुआ की जगह आम, कटहल, जामुन और शीशम ने ले लिया है। इससे भी बड़ी बात यह देखने को मिली कि यहां के जंगल झारखंड के अन्य इलाकों से सुरक्षित हैं। इस इलाके में लगभग दो हजार किलोमीटर घूमने के बाद एक भी आदमी लकड़ी काट कर ले जाते नहीं दिखा। इस इलाके में खजूर के पेड़ों की भरमार है। खजूर की यह सुंदर वादियां बरबस आपका ध्यान खींच लेगी। आश्चर्य तो तब हुआ जब पेड़ों में लगे पके हुए खजूर को तोड़ता एक भी बच्चा कहीं नजर नहीं आया। संथाल परगना एक और मामले में अपवाद है। यहां के किसी इलाके की सड़क पर अभी तक टोल टैक्स का अतिक्रमण नहीं हुआ है। अभी तक टोल टैक्स से लोग राहत की सांस ले रहे हैं।
सामाजिक संगठनों ने भी इस इलाके में अपना माहौल बनाया है। झारखंड के दूसरे शहरों में इस बात की जद्दोजहद है कि सड़क पर कूड़ा मत डालिए। लेकिन संथाल इस बात का प्रमाण है कि सड़क को साफ रखिये, अतिक्रमण मुक्त रखिये। संथाल की संस्कृति में विरोधियों को भी सम्मान दिया जाता है। विरोधी से विरोधी भी कभी रघुवरवा, बबुललवा, शिबुवा, हेमंतवा, ललुआ, मोदिया नहीं बोलता। यहां हर दल के लोग आदर्श सूचक शब्दों के साथ नेताओं के नाम का संबोधन करते हैं ।
भले ही यहां के वाशिंदे रविवार को मतदान करेंगे लेकिन यह चुनाव झारखंड में आगामी सरकार किसकी होगी यह भी तय करेगा। इस क्षेत्र में मुख्यमंत्री रघुवर दास को अपनी उपलब्धि गिनाने का इससे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा, तो विपक्ष संगठित तरीके से एक साथ मिल कर अपना राजनीतिक प्रदर्शन करने का दूसरा मौका नहीं मिलेगा।
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