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    Home»Jharkhand Top News»संकट में हैं झारखंड के स्थानीय ‘प्रवासी’ भी
    Jharkhand Top News

    संकट में हैं झारखंड के स्थानीय ‘प्रवासी’ भी

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskMay 23, 2020No Comments6 Mins Read
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    कोरोना संकट के कारण पिछले 57 दिन से लॉकडाउन में चल रहे भारत में यदि आज की दो बड़ी समस्याओं के बारे में पूछा जाये, तो लोग महामारी के बाद प्रवासी मजदूरों की तकलीफों का ही नाम लेंगे, लेकिन शायद ही किसी ने उन मजदूरों की समस्या की तरफ ध्यान दिया है, जो अपने ही राज्य के दूसरे जिलों में या तो फंस गये हैं या अपने गांव लौटे हैं। इन्हें न तो कोई विशेष सहायता मिली है और न ही इनकी तकलीफों का किसी को आभास है। यहां तक कि किसी भी सरकारी दस्तावेज में इनके बारे में कहीं कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, जबकि हकीकत यही है कि बड़ी संख्या में लोग अपना घर-बार छोड़ कर अपने ही राज्य के दूसरे जिलों में रोजी-रोटी की तलाश में गये और लॉकडाउन की वजह से फंसे हुए हैं। काम बंद होने से उनकी आमदनी बंद हो गयी है और उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। ऐसी विकट स्थिति में वे किसी भी तरह अपने गांव लौट रहे हैं। इन स्थानीय या लोकल प्रवासियों ’ के दुख-दर्द भी दूसरे राज्यों से लौटनेवाले प्रवासियों से कम नहीं हैं। फर्क केवल इतना है कि दूसरे राज्यों में जो प्रवासी फंसे हुए हैं, वे वहां की सरकार के भरोसे हैं, जबकि अपने ही राज्य के दूसरे जिलों में फंसे प्रवासियों को संबंधित जिला प्रशासन के रहमो-करम का इंतजार है। ऐसे लोगों के सामने संकट यह है कि वे खुद को न तो स्थानीय कह पा रहे हैं और न प्रवासी। इन लोकल ‘प्रवासियों’ के दुख-दर्द को रेखांकित करती आजाद सिपाही ब्यूरो की रिपोर्ट।

    दो दिन पहले रांची के बूटी मोड़ चौक पर 30-35 लोगों का एक जत्था पहुंचता है। वहां तैनात पुलिस वालों ने जब उनसे पूछताछ की, तो जवाब मिला कि वे लोग रांची में रहते हैं और गिरिडीह के धनवार जा रहे हैं। कोई सुविधा नहीं होने के कारण वे पैदल ही अपने गांव की ओर निकल पड़े हैं। ये सभी दिहाड़ी मजदूर थे और पिछले कई साल से रांची में रह कर मजदूरी करते थे। लेकिन लॉकडाउन की वजह से काम-धंधा बंद है, तो अब मुश्किलें बढ़ने लगी हैं। इसलिए इनके सामने घर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। ऐसा ही एक जत्था, जिसमें करीब एक दर्जन महिला-पुरुष शामिल थे, कचहरी चौक पर गढ़वा जाने का रास्ता तलाश करता मिला। ये लोग गोड्डा से चल कर रांची पहुंचे थे और अपने घर लौट रहे थे। ये सभी गोड्डा के ईंट भट्ठों में काम करने गये थे और अब रोजी-रोटी छिन जाने की वजह से अपने गांव लौटने के लिए विवश थे।
    झारखंड की राजधानी में मजदूरों के इन दो जत्थों से बातचीत करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचना बेहद आसान है कि प्रवासियों में भी दो श्रेणियां होती हैं। पहली वह, जो अपना राज्य छोड़ कर दूसरे राज्यों में कामकाज की तलाश में जाते हैं और प्रवासियों की दूसरी श्रेणी वह होती है, जो अपने ही राज्य के दूसरे जिलों में जाकर अपना पेट पालती है। यह विडंबना है कि पहली श्रेणी के प्रवासी मजदूरों पर सभी का ध्यान है, लेकिन इन लोकल ‘प्रवासियों’ पर किसी भी सरकार या एजेंसी का ध्यान नहीं है।
    इन लोकल ‘प्रवासियों’ के बारे में किसी भी राज्य सरकार के पास न तो कोई आंकड़ा है और न यह जानकारी है कि अपने ही राज्य के दूसरे जिलों में कितने लोग काम कर रहे हैं। रांची को ही ले लिया जाये, तो यहां कम से कम एक लाख लोग ऐसे हैं, जो झारखंड के दूसरे जिलों से यहां आये हैं और छोटा-मोटा काम कर किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं। इसी तरह गुमला-गढ़वा के लोग संथाल परगना के जिलों में जाकर काम कर रहे हैं और संथाल के लोग रोजी-रोटी की तलाश में कोल्हान तक आये हैं। इनके साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि गुमला के लोग कुछ किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ जाकर काम करने लगते हैं और वहां से लौटते हैं, तो उन्हें प्रवासी का दर्जा मिल जाता है, लेकिन वही मजदूर यदि चार सौ किलोमीटर दूर गोड्डा में काम करता है और गांव लौटता है, तो उस पर किसी का ध्यान नहीं है। देवघर के लोग यदि 65 किलोमीटर दूर बिहार में जाकर काम करते हैं, तो वे प्रवासी कहलाने लगते हैं, लेकिन तीन सौ किलोमीटर दूर रांची आकर मजदूरी करते हैं, तो उन्हें यह दर्जा नहीं मिलता है।
    कोरोना संकट के दौर ने इन लोकल ‘प्रवासियों के एक बड़े वर्ग को सामने लाकर रख दिया है। इन ‘लोकल’ लोगों को भी काम-धंधे की उतनी ही जरूरत है, जितनी दूसरे राज्यों से लौटे प्रवासियों को है।
    हमें यह समझना होगा कि इनकी भी रोजी-रोटी छिन गयी है और इनके सामने भी जिंदा रहने का संकट पैदा हो गया है। झारखंड सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके गांवों में ही रोकने के लिए व्यापक योजनाएं तैयार की हैं, लेकिन उसके सामने लोकल ‘प्रवासियों’ को भी राहत और मदद पहुंचाने की बड़ी चुनौती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जितनी गंभीरता से दूसरे राज्यों से झारखंड लौटनेवाले मजदूरों की समस्याओं को हल करने में जुटे हैं, उनकी टीम इन लोकल ‘प्रवासियों’ की तरफ भी ध्यान देगी।
    यह समस्या केवल झारखंड या बिहार की नहीं, बल्कि हर राज्य की है। उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों के सामने तो लोकल ‘प्रवासियों’ की समस्या और भी गंभीर है। यूपी के पूर्वांचल से हजारों लोग नोएडा गये हैं और अब गांव लौटने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। उनकी समस्याओं की तरफ किसी का ध्यान नहीं है, जबकि बलिया से छपरा गये लोगों को वापस लौटने पर उन्हें प्रवासी की श्रेणी की सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं।
    अब समय आ गया है, जब राज्य सरकारों को इन स्थानीय ‘प्रवासियों’ की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। इन बेचारों को न तो विधायक निधि से कोई सहायता मिली है और न ही किसी राज्य सरकार ने उनके खाते में पैसे भेजे हैं। इसलिए इनके सामने का संकट अधिक गहरा है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये लोकल ‘प्रवासी’ भी हमारे भाई-बंधु ही हैं, हमारे अंग हैं। और शरीर का कोई भी अंग यदि बीमार रहे, तो फिर पूरा शरीर ही बीमार कहलाता है और छोटी से छोटी बीमारी इलाज नहीं होने पर गंभीर रूप अख्तियार कर सकती है। इसलिए जितनी जल्दी हो, इन लोकल ‘प्रवासियों’ की भी सुध ली जाये।

    Local 'expatriates' of Jharkhand are also in crisis
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