मजदूरों की वापसी के खर्च को लेकर छिड़ा है घमासान
पिछले 42 दिन से पूरा देश जिस तरह तमाम समस्याओं के बावजूद खतरनाक कोरोना महामारी के खिलाफ एकजुट होकर जंग लड़ रहा है, वैसे में रविवार से शुरू हुई सियासत लोगों को नागवार लग रही है। संकट के इस दौर में इस तरह की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह राजनीति प्रवासी मजदूरों की वापसी के खर्च को लेकर हो रही है, जबकि हकीकत क्या है, यह अब तक सामने नहीं आया है। कांग्रेस द्वारा मजदूरों की वापसी का खर्च उठाये जाने की घोषणा के बाद रेलवे ने कहा है कि मजदूरों से कोई पैसा नहीं लिया जा रहा है। स्पेशल ट्रेन के खर्च का 85 प्रतिशत हिस्सा रेलवे दे रहा है, जबकि 15 प्रतिशत राज्य सरकार को देना है। उधर भाजपा का कहना है कि जब टिकट बिक ही नहीं रहा है, तो कोई खरीदेगा कैसे। कांग्रेस ने इस पूरे मामले का राजनीतिकरण किया है। राज्य सरकारों का कहना है कि उन्होंने मजदूरों से कोई पैसा नहीं लिया है। इन सबके विपरीत घर लौटनेवाले मजदूर कह रहे हैं कि उन्होंने बाकायदा भुगतान कर टिकट खरीदा है। इन तमाम आरोप-प्रत्यारोप का असर कहीं न कहीं कोरोना के खिलाफ जंग पर पड़ रहा है। 130 करोड़ लोगों के इस देश के प्रत्येक नागरिक की पहली जिम्मेदारी इस समय यही है कि वह इस लड़ाई को किसी भी कीमत पर कमजोर नहीं होने दे। पिछले 42 दिन से देश के राजनीतिक दलों और नेताओं ने जो संयम दिखाया है, वह प्रशंसनीय है और इतिहास उन्हें इस बात के लिए याद रखेगा। लेकिन लड़ाई के अंतिम दौर में इस तरह की कटुता का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए। मजदूरों की वापसी के खर्च को लेकर हो रही सियासत पर आजाद सिपाही ब्यूरो की रिपोर्ट।
इस कन्फ्यूजन को तत्काल दूर करना आवश्यक
कोरोना संकट के इस दौर में, जब देश भर के लोग तमाम दुश्वारियों के बावजूद घरों में बंद हैं और आर्थिक गतिविधियां लगभग ठप हैं, जहां-तहां फंसे प्रवासी मजदूरों, पर्यटकों, विद्यार्थियों और अन्य लोगों को घर लौटने की अनुमति देकर केंद्र सरकार ने एक बड़ा रिस्क लिया। राज्य सरकारों ने तमाम खतरों के बावजूद अपने यहां फंसे लोगों को घर भेजने और उनकी वापसी के लिए व्यापक इंतजाम किये। रेलवे ने लॉकडाउन के बावजूद विशेष ट्रेन चलाने का फैसला किया और उस पर पिछले पांच दिनों से अमल भी हो रहा है। लेकिन अफसोस की बात है कि विशेष ट्रेन चलाने के फैसले पर राजनीति नहीं हुई, बल्कि इस पर होनेवाले खर्च को लेकर अब राजनीति शुरू हो गयी है। यह राजनीति इतनी कड़वी हो गयी है कि भारत के 130 करोड़ लोगों को यह भय सताने लगा है कि इसके कारण कहीं हम जीती हुई बाजी हार न जायें।
लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस मुद्दे को इतना विवादास्पद क्यों बना दिया गया है। कोरोना के खिलाफ लड़ाई किसी एक पार्टी या किसी एक समाज की नहीं है। जाति, धर्म, क्षेत्र और संप्रदाय से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह बीमारी देश के 90 प्रतिशत हिस्से को अपनी चपेट में ले चुकी है और हर राजनीतिक दल इसकी कीमत अपने हिसाब से चुका रहा है। इसके बावजूद इस किस्म की राजनीति लोगों की समझ में नहीं आ रही है। एक तरफ केंद्र में सत्ता पक्ष है, जो प्रवासी श्रमिकों के लिए चलायी जा रही विशेष ट्रेन के खर्च को लेकर विपक्ष पर राजनीति करने और गलतबयानी करने का आरोप लगा रहा है, तो दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियां हैं, जो सत्ता पक्ष पर अभावग्रस्त प्रवासी मजदूरों से पैसा वसूलने जैसा घटिया काम करने का आरोप लगा रही हैं।
यह पूरा मामला रेलवे द्वारा जारी उस पत्र से शुरू हुआ, जिसमें कहा गया था कि विशेष ट्रेनों में यात्रा करनेवाले मजदूरों को गंतव्य तक पहुंचाने का किराया उन मजदूरों को भेजनेवाली राज्य सरकार को देना होगा। विपक्ष ने इस बात को पकड़ लिया और कांग्रेस पार्टी ने इसे केंंद्र सरकार का अमानवीय फैसला बताते हुए पूरा किराया देने का एलान कर दिया। कांग्रेस सवाल उठा रही है और भाजपा जवाब दे रही है। अब तो राज्यों के नेताओं की ओर से भी सफाई दी जाने लगी है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे बड़ा कनफ्यूजन इस बात को लेकर पैदा हुआ कि जब इन मजदूरों के लिए विशेष ट्रेनें चलायी जायेंगी, तो इनसे किराया क्यों लिया गया। अब सभी राज्य सरकारों ने इन मजदूरों का किराया देने का एलान कर दिया है। पहले इन मजदूरों को टिकट देकर उनसे पैसे लिये गये, इसी बात को लेकर विवाद शुरू हुआ। फिर सफाई का सिलसिला शुरू हुआ। रेलवे ने साफ कर दिया कि वह कुल खर्च का 85 फीसदी ले रहा है और बाकी 15 फीसदी राज्य सरकारों को देना है। दरअसल रेलवे ने गाइडलाइन जारी कर साफ कर दिया था कि श्रमिकों को ट्रेन से भेजे जाने के दौरान किसकी क्या जिम्मेदारी होगी।
रेलवे ने उसमें साफ कहा था कि किराये का बोझ राज्य वहन करेंगे और वे किराया यात्रियों से वसूल कर के रेलवे को देंगे। हालांकि आरोप-प्रत्यारोप के बीच भी अब तक यह साफ नहीं है कि जिस 15 फीसदी किराये की बात हो रही है, वह सामान्य किराये की तुलना में कितना कम है, क्योंकि रेलवे ने जो खर्च जोड़ा है, उसमें ट्रेन के खर्च से लेकर सोशल डिस्टेंसिंग, खाने-पीने और स्क्रीनिंग की व्यवस्था और ट्रेन के खाली लौटने से होने वाला खर्च भी शामिल है। रेल किराये पर हो रही राजनीति के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इसमें कूद गये। उन्होंने कहा है कि किसी भी मजदूर को रेल किराया देने की जरूरत नहीं है।
इस पूरे विवाद का दुखद पहलू यह है कि कोई उस श्रमिक से कुछ नहीं पूछ रहा है, जो तमाम दुश्वारियां झेल कर घर लौटा है। बिहार लौटे एक मजदूर ने साफ किया कि उसने बाकायदा पैसे देकर टिकट खरीदा। उसने यह भी बताया कि जिन मजदूरों के पास पैसे नहीं थे, उन्हें ट्रेन में सवार होने की अनुमति नहीं दी गयी। उन मजदूरों की स्थिति की कल्पना ही की जा सकती है। इसलिए संकट के इस दौर में इस तरह की सियासत लड़ाई को कमजोर करती है, यह बात सभी दलों को समझनी होगी, अन्यथा कोरोना का वायरस भारत को तबाह करने के लिए तैयार बैठा है। वैसे संकट के इस दौर में मजदूरों और छात्रों से किसी भी तरह का पैसा लेना पाप के समान है। इतना खर्च तो राज्य और केंद्र सरकार उठा ही सकता है।