आज काशी विश्वनाथ प्रांगण में स्थापित नंदी की आंखें अपने महादेव के दर्शन के लिए टकटकी लगाये बैठी हैं!सवाल: आखिर क्यों नंदी का मुख मस्जिद की ओर और ज्ञानवापी की पश्चिमी दीवार मंदिर जैसी दिखती है!
काशी का नाम स्मरण मात्र से ही भगवान शिव के दर्शन होने जैसा आभास होता है। ऐसा लगता है, जैसे गंगा की निर्मल धारा मन को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। जब सूर्य की लालिमा पतित पावनी गंगा की धारा से टकराती है, तो गंगा समेत पूरा बनारस भगवामय हो जाता है। एक घाट से दूसरे घाट तक नावों की आवाजाही, लोगों का गंगा स्नान, प्रसिद्ध गंगा आरती का मनोरम दृश्य, मंदिरों में हो रहे भजन और घंटों की ध्वनि, वो संकरी गालियां, वह बनारसी बोल-चाल, चार कंधों पर अंतिम सफर पर जा रहे लोग, मणिकर्णिका और अन्य घाटों पर मोक्ष की प्राप्ति को व्याकुल आत्माएं और देवों के देव महादेव का काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन। ऐसा नजारा मात्र काशी का नाम लेते ही आंखों के सामने आ जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करीब दो हजार वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य ने करवाया था। यह 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर हिंदुओं की अटूट आस्था का महत्वपूर्ण केंद्र है। इसे वर्ष 1669 में औरंगजेब द्वारा बुरी तरह ध्वस्त कर दिया गया था और कहा जाता है कि उसी के अवशेष से ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था। ज्ञानवापी का अर्थ है ज्ञान का कुआं, या ज्ञान का तालाब। लेकिन सिर्फ औरंगजेब ने ही हिंदुओं की आस्था के प्रतीक काशी विश्वनाथ मंदिर को नहीं तोड़ा। इस मंदिर पर पहले भी कई बार आक्रमण हुए, इसे बुरी तरह लूटा गया और तोड़ा गया। काशी पर पहला हमला साल 1034 में महमूद गजनवी के अफगान सरदार ने किया था। इस लुटेरे ने काशी को बुरी तरह लूटा और पंजाब चला गया। फिर दूसरे लुटेरे मुहम्मद गोरी ने 1194 में काशी विश्वनाथ मंदिर को लूटा और फिर उसे तुड़वा दिया। उसके बाद 1447 में जौनपुर के सुलतान महमूद शाह ने भी मंदिर को तुड़वाया। फिर 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से मशहूर विद्धान पंडित नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। उसके बाद 1632 में शाहजहां ने मंदिर को तोड़ने का फिर आदेश दे दिया। लेकिन हिंदुओं के प्रबल विरोध के कारण शाहजहां के सैनिक मुख्य मंदिर को तोड़ न सके, लेकिन लगभग 64 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद 1669 में औरंगजेब ने तो जो कारनामा किया, वह आज तक हिंदुओं को जख्म दे रहा है। इस जख्म की गहराई उतनी ही है, जितनी ज्ञानवापी परिसर की गहराई में दफन हैं कई राज। साल 1780 में ज्ञानवापी परिसर के बगल में मंदिर का जो मौजूदा स्वरूप है, उसका निर्माण मालवा की रानी अहिल्याबाई होलकर ने कराया था। फिर 1853 में महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के शिखर पर 880 किलो सोने का छत्र चढ़ाया था। उसके बाद साल 2021 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी विश्वनाथ धाम का जिस प्रकार से पुनर्निर्माण करवाया है, उसका जिक्र इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जायेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके पर कहा था, काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण, भारत को एक निर्णायक दिशा देगा, एक उज्ज्वल भविष्य की तरफ ले जायेगा। यह परिसर साक्षी है हमारी सामर्थ्य का, हमारे कर्तव्य का। अगर सोच लिया जाये, ठान लिया जाये, तो असंभव कुछ भी नहीं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उद्घाटन के मौके पर कहा था कि हजारों वर्षों की प्रतीक्षा आज पूरी हुई। भारत मां के महान सपूत ने इस सपने को पूरा किया। पूरी काशी, हर भारतवासी और दुनियाभर में भारतीय परंपरा का हर अनुगामी पीएम मोदी का आज धन्यवाद कर रहा है। वाराणसी की अदालत ने 6 और 7 मई 2022 को ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया। ज्ञानवापी परिसर में वीडियोग्राफी के जरिये कई राज बेपर्द भी होंगे। ध्वस्त किये हुए अवशेष खुद सत्यता का प्रमाण देंगे। क्या है काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का कनेक्शन, आखिर क्यों नंदी जी का मुख वर्तमान मस्जिद की दिशा की ओर है, आखिर क्यों बार-बार काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा और लूटा गया, इन सवालों की पड़ताल करती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की विशेष रिपोर्ट।
22 अप्रैल 2022 की सुबह 6 बजे मैं वाराणसी में था। उद्देश्य था काशी विश्वनाथ के दर्शन करने का। मैं इससे पहले चार या पांच बार वाराणसी जा चुका हूं। ज्यादा जाना मणिकर्णिका घाट पर ही हुआ। परिवार के बुजुर्ग और कुछ करीबियों के आखिरी सफर का हिस्सा बना। कहते हैं कि काशी में अगर किसी की मृत्यु हो या मृत देह को जलाया जाये, तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब सबसे पहले मैं वाराणसी गया था, उस वक्त मैं काफी छोटा था। उस वक्त पहली बार मैंने काशी विश्वनाथ के दर्शन किये थे। याद रही सिर्फ भीड़ और विश्वनाथ बाबा को मेरे हाथों द्वारा स्पर्श। उसके बाद मैं जब भी वाराणसी गया, तो कभी शूटिंग करने में व्यस्त रहा, तो किन्हीं अन्य कार्यों में। कई बार मैं काशी विश्वनाथ मंदिर के कैंपस के इर्द-गिर्द भी गया। उस वक्त मंदिर से ठीक सटी एक मस्जिद दिखायी पड़ती थी। उस मस्जिद को ज्ञानवापी मस्जिद के नाम से जाना जाता है। वहां काफी मात्रा में पुलिस भी खड़ी रहा करती थी। अभी भी है। इतनी समझ तो थी कि मंदिर के ठीक बगल में अगर मस्जिद बनी है, तो यह मुगल काल की ही देन होगी। जब मैंने काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में पढ़ना शुरू किया, तब समझा कि कितना सहा है हिंदुओं ने। कितने आक्रमण झेले हैं हिंदू देवी देवताओं ने। 1194 में मुहम्मद गोरी ने इस मंदिर में लूटपाट करने के बाद इसको तुड़वा दिया था। कहते हैं कि 13 ऊंटों पर सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात और बेशकीमती रत्न लाद कर वह इस मंदिर से ले गया था। उसके बाद 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने भी इसको खंडित किया। लेकिन 1669 में औरंगजेब द्वारा इस मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया और उस पर मस्जिद का निर्माण भी करा दिया गया।
इस बार के काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन ने मेरे मन में कई सवालों को जन्म दे दिया। दर्शन करने के लिए गेट नंबर 4 से मैंने एंट्री की। एंट्री करने से पहले मैंने प्रसाद भी खरीदा। गेट के अंदर आने के बाद एक गिलास दूध शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए भी खरीदा। भीड़ भी थी। मैं लाइन में लगा था। तभी पास का ज्ञानवापी मसजिद मेरी नजर गयी। कुछ लोग उंगली दिखा कर बात भी कर रहे थे कि मस्जिद का पश्चिमी निचला हिस्सा मंदिर जैसा लग रहा है। मैं भी उसे गौर से देखने लगा। सुना तो बहुत था इसके बारे में कि इस मस्जिद के नीचे मंदिर है। यह पहला मौका था, जब मैं इतने करीब से विश्वनाथ मंदिर के ठीक पास ज्ञानवापी मस्जिद को देख रहा था। साफ-साफ समझ आ रही थी कि ज्ञानवापी के गुंबद के नीचे की नक्काशी मंदिर जैसी है। माना जाता है कि इस तरह की नक्काशी 14वीं-15वीं शताब्दी की है। जिस प्रकार से मस्जिद के खंभों की कलाकृति थी, वैसी हिंदुओं के धर्मस्थलों की भी होती है। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मंदिर के खंभों के ऊपर कोई मस्जिद का गुंबद लगा दिया गया हो। उसके बाद मैंने काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। दर्शन के बाद मंदिर के कैंपस में मैंने घूमना शुरू किया। मेरी नजर ज्ञानवापी कूप की तरफ गयी। मैं वहां गया। पंडित जी ने प्रसाद के रूप में जल पीने को दिया। यह जल बहुत ही पवित्र माना जाता है। ठीक ज्ञानवापी कूप के बगल में स्थित मेरी नजर नंदी जी पर गयी। लेकिन मैं आश्चर्यचकित हो गया यह देख कर कि नंदी जी का मुख उलटी दिशा में क्यों है। नंदी जी का मुख जिस दिशा में था, वहां तो ज्ञानवापी मस्जिद है। मेरा दिमाग ठनका। फिर मैंने सिर पकड़ लिया, अरे ये क्या है। अगर नंदी जी का मुख आज की ज्ञानवापी मस्जिद की ओर है, तो शिवलिंग भी ठीक सामने ही होगा। मेरे मन में कई सवाल तैरने लगे। मैंने अपने ज्ञान चक्षु खोले। बड़ा दर्द हुआ, जब सब कुछ समझा। मैं नंदी जी के पास गया। सभी कान में उनसे मन्नत मांग रहे थे। मैंने भी मांगा। जब मैंने नंदी जी का स्पर्श किया, वह छुअन अद्भुत था। ऐसा लगा, वह पत्थर के नहीं हैं, उनमें जान है। वह बस एकटक अपने शिव-शंकर की राह देख रहे हैं। उनकी आंखों में देख मेरे नयन भी भीग गये, लेकिन अपने आंसू मैंने छिपा लिये। शायद ज्यादातर हिंदुओं के मन में भी यही भाव उत्पन्न होता होगा। पहले तो बहुत रोष आया, लेकिन फिर मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूं, आखिर क्यों मुस्लिम भाई ऐसा कर रहे हैं। क्या उनके मन में नहीं आता कि कहीं वह गलत तो नहीं। क्या धर्म के ठेकेदारों ने उनकी आंखों पर ना समझने की पट्टी बांध दी है।
किताबों के पन्नों में जिक्र है कि 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब के एक दरबारी की तरफ से एक फरमान जारी किया गया था। इसे फारसी में लिखा गया था। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है। लेकिन इसका हिंदी अनुवाद अहम दस्तावेज के रूप में अदालत में जमा कराया गया है। इसमें लिखा गया है कि औरंगजेब को यह खबर मिली कि मुल्तान के सूबों और बनारस में बेवकूफ ब्राह्मण अपनी रद्दी किताबें पाठशालाओं में पढ़ाते हैं। और इन पाठशालाओं में हिंदू और मुसलमान विद्यार्थी और जिज्ञासु उनके बदमाशी भरे ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने की दृष्टि से आते हैं। धर्म संचालक बादशाह ने ये सुनने के बाद सूबेदारों के नाम ये फरमान जारी किया कि वो अपनी इच्छा से काफिरों के मंदिर और पाठशालाएं गिरा दें। उन्हें इस बात की भी सख्त ताकीद की गयी कि वो सभी तरह की मूर्ति पूजा से संबंधित शास्त्रों का पठन-पाठन और मूर्ति पूजन भी बंद करा दें। इसके बाद औरंगजेब को यह जानकारी दी जाती है कि उनके आदेश के बाद 2 सितंबर 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर को गिरा दिया गया है। यह एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो खुद पुष्टि कर रहा है कि औरंगजेब के आदेश पर ही काशी विश्वनाथ मंदिर को गिरा दिया गया था।
आजाद भारत के पहले 1936 में भी यह मामला कोर्ट में गया था। उस वक्त दीन मुहम्मद नाम के एक व्यक्ति ने याचिका डाली थी। उस व्यक्ति ने अदालत से मांग की थी कि पूरा ज्ञानवापी परिसर मस्जिद के जिम्मे घोषित किया जाये। लेकिन 1937 में अदालत ने फैसला सुनाते हुए इस याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन विवादित स्थल पर नमाज पढ़ने की अनुमति दे दी गयी। इसी केस की सुनवाई के दौरान 1936 में अंग्रेज अफसरों ने वर्ष 1585 में बने प्राचीन विश्वनाथ मंदिर का नक्शा अदालत में पेश किया था। इस नक्शे के हिसाब से मस्जिद का कोई जिक्र नजर नहीं आता है। 1585 में काशी का पुनर्निर्माण कराया गया था। राजा टोडरमल ने मंदिर को फिर से बनवाया था। उस समय बने मंदिर के नक्शे को 1820 से 1830 के बीच ब्रिटिश अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने तैयार किया था। नक्शे के हिसाब से दावा किया जाता है कि इसमें कहीं भी मस्जिद का जिक्र नहीं है। नक्शे के मुताबिक मंदिर के प्रांगण में चारों कोनों पर तारकेश्वर, मनकेश्वर, गणेश मंदिर और भगवान भैरों का मंदिर दिखाई पड़ता है। बीच के हिस्से में गर्भ गृह है, जहां शिवलिंग स्थापित है। और उसके दोनों तरफ शिव मंदिर भी हैं। नक्शे में मंदिर का मुख्य द्वार भी दर्शाया गया है, जिसे द्वारपाल कहा गया है। अब आज के समय इस नक्शे के बीच के स्थान पर देखा जाये, तो मस्जिद बनी हुई है। इसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है, जिसका इस नक्शे में जिक्र तक नहीं था। ऐसा दावा भी किया जाता है कि इस मंदिर की पश्चिमी दीवार आज भी वही है, जो प्राचीन मंदिर में हुआ करती थी। वर्ष 1937 में वाराणसी जिला अदालत का जो फैसला आया था, उसमें एक जगह जज ने कहा है कि ज्ञान कूप के उत्तर में ही भगवान विश्वनाथ का मंदिर है, क्योंकि कोई दूसरा ज्ञानवापी कूप बनारस में नहीं है।
बीएचयू के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ एएस आॅल्टेकर ने 1937 में ‘हिस्ट्री आॅफ बनारस’ किताब लिखी। इस किताब में लिखा गया है कि मस्जिद के चबूतरे पर स्थित खंभों और नक्काशी को देखने से प्रतीत होता है कि ये 14वीं-15वीं शताब्दी के हैं। इस किताब में उन्होंने प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग द्वारा किये गये विश्वनाथ मंदिर के लिंग का जिक्र किया है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने वाराणसी को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केंद्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे पांच किलोमीटर तक लिखा है। इस किताब में बताया गया है कि काशी विश्वनाथ का शिवलिंग एक सौ फीट ऊंचा था और अरघा भी एक सौ फीट का बताया गया है। शिवलिंग के ऊपर लगातार गंगा की धारा गिरती थी। इस जगह को पत्थर से ढंक दिया गया है। यहां शृंगार गौरी की पूजा अर्चना भी होती है। यहां तयखाना यथावत है। यह खुदाई से स्पष्ट हो जायेगा। इस किताब को भी इलाहाबाद हाइकोर्ट में प्रस्तुत किया गया है।
आक्रांताओं ने अनगिनत बार हिंदुओं के मंदिरों को तोड़ा
मुस्लिम आक्रांताओं के दौर में कई बार मंदिरों को तोड़ा गया, लेकिन हिंदुओं की आस्था और संयम की ताकत तो देखिये कि वे उन टूटे हुए मंदिरों का निर्माण कराते रहे। 12वीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनारस में एक हजार से ज्यादा मंदिरों को तोड़ा था। उसके बाद 13वीं सदी के आखिर में फिर से हिंदुओं ने मंदिरों का निर्माण करा दिया। उसके बाद 14वीं सदी में अलाउदीन खिलजी और फिरोज शाह तुगलक के दौर में फिर बनारस के मंदिरों को तोड़ा गया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि हिंदू मूर्ति पूजन करें। उनकी आस्था के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया। 15वीं सदी में सिकंदर लोदी के जमाने में बनारस के लगभग सभी मंदिरों को तोड़ा गया। उसके बाद हिंदुओं ने 16वीं सदी में उन मंदिरों का फिर से निर्माण करा दिया। हिंदुओं के मंदिर तो टूटे, लेकिन उनकी आस्था नहीं टूटी। आस्था के दम पर ही वे टूटे हुए मंदिरों का निर्माण कराते रहे।
सन् 1632 में शाहजहां ने नये-नये मंदिरों को तोड़ने का फरमान जारी कर दिया। । शाहजहां तक उनके लोगों द्वारा यह बात लायी गयी कि जहांगीर के शासनकाल में बनारस बुतपरस्तों यानी मूर्ति पूजने वालों का प्रधान अड्डा था। बहुत से मंदिर बनने शुरू हुए, लेकिन यह पूरे नहीं हो सके थे। बुतपरस्त अधूरे मंदिरों को पूरा काने के इच्छुक दिख रहे हैं। उसके बाद शाहजहां ने फरमान जारी कर दिया कि बनारस और दूसरी जगहों पर अधूरे मंदिरों को गिरा दिया जाये। शाहजहां के दौर में एक प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री पीटर मैंडी बनारस आये हुए थे। पीटर आगरा से पटना जाते हुए 1632 में बनारस पहुंचे। उन्होंने ‘ट्रेवल्स आॅफ पीटर मैंडी’ किताब लिखी है। उस किताब में उन्होंने लिखा है कि बनारस खत्री, ब्राह्मण और बनियों की बस्ती है। वहां पर दूर-दूर से लोग देवी-देवताओं की पूजा करने आते हैं। इनमें काशी विश्वेश्वर महादेव का मंदिर सबसे प्रसिद्ध है। वह उस मंदिर के अंदर गये। उस मंदिर के बीच में लंबोतर सादा पत्थर है। अब यही लंबे पत्थर का जिक्र उस यात्री द्वारा और हिस्ट्री आॅफ बनारस की किताब में एक सौ फीट लंबा शिवलिंग होने का प्रमाण मैच करती है। यही तो हिंदू पक्ष भी कह रहा है कि ज्ञानवापी परिसर की फर्श के नीचे तहखाने में एक सौ फीट का शिवलिंग और अन्य देवी-देवताओं की मूर्ति है।
मशहूर विद्वान नारायण भट्ट ने अपनी किताब ‘त्रिस्थली’ में लिखा है कि अगर कोई मंदिर तोड़ दिया गया हो और वहां से शिवलिंग हटा दिया गया हो या नष्ट कर दिया गया हो, तब भी वह स्थान महात्म्य की दृष्टि से विशेष पूजनीय है। अगर मंदिर को नष्ट कर दिया गया हो, तो खाली जगह की भी पूजा की जा सकती है। नारायण भट्ट वही व्यक्ति थे, जिनकी अपील पर ही राजा टोडरमल ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था।
इतिहासकार डॉ मोती चंद ने अपनी किताब ‘काशी का इतिहास’ में लिखा है कि विद्वान नारायण भट्ट का समय 1514 से 1595 तक था। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके जीवन के बड़े काल में काशी में विश्वनाथ मंदिर नहीं था। इसका मतलब यही है कि उस दौर में काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़ा हुआ था। उसका पुनर्निर्माण नहीं हुआ था। और ऐसा भी प्रतीत होता है कि औरंगजेब से पहले विश्वनाथ के 15वीं सदी के मंदिर के स्थान पर कोई मस्जिद नहीं बनी थी। इस किताब के हिसाब से ज्ञानवापी मस्जिद का 125 गुणा 18 फुट नाप का पूरब की ओर का चबूतरा शायद 14वीं सदी के विश्वनाथ मंदिर का बचा भाग है। इतिहासकार मोती चंद ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि मंदिर सिर्फ गिराया ही नहीं गया, उस पर ज्ञानवापी मस्जिद भी उठा दी गयी। मंदिर बनानेवालों ने पुराने मंदिर की पश्चिमी दीवार गिरा दी और छोटे मंदिरों को जमींदोज कर दिया। पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी द्वार भी बंद कर दिये गये। द्वारों पर उठे शिखरों को गिरा दिया गया और उनकी जगह पर गुंबद खड़े कर दिये गये। गर्भगृह मस्जिद के मुख्य दालान में परिणत हो गया। चारों अंतरगृह बचा लिये गये और उन्हें मंडपों से मिला कर 24 फुट दालान निकाल दी गयी। मंदिर का पूर्वी भाग तोड़कर एक बरामदे में बदल दिया गया। इसमें अब भी पुराने खंभे लगे हैं। मंदिर का पूर्वी मंडप, जो 125 गुणा 35 फुट का था, उसे एक लंबे चौक में बदल दिया गया। ये सारी बातें इतिहास के पन्नो में दर्ज बाबा विश्वनाथ की गवाही दे रही हैं। ऐसे कई राज ज्ञानवापी परिसर में दफन हैं, जिन्हें मुस्लिम पक्ष के लोग नहीं चाहते कि वे बाहर आयें। ज्ञानवापी का जो पश्चिमी हिस्सा है, उसकी दीवार मंदिरनुमा है। यह साफ-साफ नंगी आंखों से भी देखा जा सकता है। यह भी कहा जाता है कि तोड़े हुए मंदिरों के अवशेषों से ही औरंगजेब ने मस्जिद का निर्माण करवाया था। ज्ञानवापी को लेकर हिंदू पक्ष की ओर से ये दावा किया जाता है कि विवादित ढांचे के फर्श के नीचे एक सौ फीट ऊंचा आदि विश्वेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थापित है। यही नहीं, विवादित ढांचे की दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र भी प्रदर्शित हैं। हिंदुओं का मानना है कि मौजूदा ज्ञानवापी आदि विश्वेश्वर का मंदिर है। राजा विक्रमादित्य ने इसका निर्माण करवाया था, जिसे मुगल बादशाह औरंगजेब के फतवे के बाद आदि विश्वेश्वर के मंदिर को तोड़ कर ज्ञानवापी मस्जिद बनायी गयी।
कांग्रेस के शासनकाल में 1991 में लागू हुआ उपासना स्थल कानून
1991 में प्लेसेस आॅफ वरशिप एक्ट यानी उपासना स्थल कानून संसद से पास किया गया। 18 सितंबर 1991 को कांग्रेस की पीवी नरसिंह राव की सरकार थी। उस वक्त देश में राम मंदिर का मुद्दा चरम पर था और कोर्ट में भी यह मामला गरम था। 1991 में जब इस कानून को कांग्रेस द्वारा संसद पटल पर लाया गया था, उस वक्त भाजपा ने इसका विरोध किया था। लेकिन इस कानून को संसद में पास कर दिया गया था। भाजपा का कहना था कि यह कानून इस देश में आक्रांताओं द्वारा धार्मिक उन्माद के बाद स्थापित किये गये धार्मिक स्थलों को मंजूरी देता है। राम मंदिर आंदोलन के दौरान जब कोर्ट में बहस चल रही थी, तब कांग्रेस ने तो भगवान राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। प्लेसेस आॅफ वरशिप एक्ट कई बार राम मंदिर के आड़े भी आया, लेकिन इसे अपवाद माना गया। अब यह कानून ज्ञानवापी मुद्दे के भी आड़े आ रहा है, जिसका सहारा लेकर मुस्लिम पक्ष हथियार के रूप में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन ऐसे कई तथ्य और प्रमाण हैं, जिससे हिंदुओं को न्याय मिलने की पूरी उम्मीद है।
काशी विश्वनाथ ज्ञानवापी केस में 1991 में वाराणसी कोर्ट में मुकदमा दाखिल हुआ था। इस अर्जी में यह दावा किया गया कि जिस जगह ज्ञानवापी मस्जिद है, वहां पहले लॉर्ड विश्वेश्वर का मंदिर हुआ करता था और शृंगार गौरी की पूजा होती थी। लेकिन मुगल शासकों ने इस मंदिर को तोड़ कर इस पर कब्जा कर लिया था और यहां मस्जिद का निर्माण कराया था। मुकदमा दाखिल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद कमिटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाये गये प्लेसेज आॅफ वरशिप (स्पेशल प्रॉविजन) एक्ट, 1991 का हवाला देकर हाइकोर्ट में चुनौती दी। इसके बाद इलाहाबाद हाइकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था। स्टे आॅर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई। उसके बाद वाराणसी की सिविल जज सीनियर डिविजन फास्ट ट्रैक कोर्ट से ज्ञानवापी मस्जिद के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंजूरी दी गयी। जनवरी 2020 में अंजुमन-ए-इंतजामिया मस्जिद समिति ने एएसआइ के सर्वेक्षण कराये जाने की मांग पर अपना विरोध दर्ज किया था। अंजुमन-ए-इंतजामिया कमिटी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने निचली अदालत के इस फैसले को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी। 2 अप्रैल 2021 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। 18 अगस्त 2021 को दिल्ली की रहनेवाली राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, सीता साहू, मंजू व्यास और रेखा पाठक की ओर से कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी। इस याचिका में एक अनुरोध था कि ज्ञानवापी परिसर में शृंगार माता के नियमित दर्शन और पूजा-अर्चना करने की इजाजत दी जाये। उल्लेखनीय है कि यह याचिका हिंदू महासभा की ओर से दायर की गयी थी। इसमें दावा किया गया था कि ऐसा न करने देना हिंदुओं के हितों का उल्लंघन होगा। इसमें विपक्ष के तौर पर अंजुमन-ए-इंतजामिया मसाजिद, वाराणसी के कमिश्नर, पुलिस कमिश्नर, जिले के डीएम और राज्य सरकार को चुना गया था। इस मामले की सुनवाई हुई और कोर्ट ने ज्ञानवापी परिसर स्थित शृंगार गौरी और अन्य देव विग्रहों की वीडियोग्राफी और सर्वे के लिए अजय कुमार मिश्र एडवोकेट को सर्वे कमिश्नर नियुक्त कर 10 मई तक रिपोर्ट मांगी है। इसी क्रम में 6 मई 2022 को ज्ञानवापी परिसर में वीडियोग्राफी की तिथि तय की गयी। अगर किसी कारण कार्यवाही पूरी नहीं हुई, तब 7 तारीख को भी कार्यवाही जारी रखी जा सकती है।
काशी विश्वनाथ धाम ज्ञानवापी स्थित शृंगार गौरी और अन्य देव विग्रहों की वीडियोग्राफी और सर्वे का काम 6 मई 2022 को दिन के तीन बजे के बाद शुरू किया गया। ज्ञानवापी परिसर में सर्वे का विरोध कर रह लोगों ने वीडियोग्राफी और सर्वे की टीम के खिलाफ नारेबाजी भी की। अदालत की ओर से नियुक्त कमिश्नर और उनके साथ की टीम पहुंची, तो सड़क पर हंगामा हो गया। लेकिन प्रशासन की मुस्तैदी ने स्थिति को कंट्रोल कर लिया। वहां तीन लेयर की सिक्योरिटी फोर्स थी। सर्वेक्षण टीम में पक्ष और विपक्ष के 30 से ज्यादा लोग शामिल थे। अंजुमन-ए-इंतजामिया मसाजिद कमेटी के सचिव एसएस यासीन ने पहले ही इस कार्यवाही का विरोध करने का एलान किया था। उन्होंने कहा था कि ज्ञानवापी परिसर में वीडियोग्राफी और सर्वेक्षण के लिए किसी को घुसने नहीं देंगे। हालांकि इंतजामिया कमेटी के वकीलों ने कहा कि कानून की बात मानेंगे, पर कुछ अलग होगा, तो शिकायत करेंगे।
7 मई को दूसरे दिन भी सर्वे किया जाना था लेकिन भारी विरोध के कारण सर्वे नहीं हो पाया। इससे पहले अंजुमन इंतजामिया कमेटी के अधिवक्ता ने कोर्ट कमिश्नर के खिलाफ याचिका दायर की थी और सर्वे पर स्टे लगाने की मांग की थी, जिसे कोर्ट ने किसी भी तरह के स्टे से इन्कार कर दिया। सर्वे रिपोर्ट के बाद निश्चित रूप से दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा, ऐसा हिंदू धर्मावलंबियों का मानना है।